विशेष: भारत के इतिहास में किसी भी राजा/महाराजा का अंतिम संस्कार इतनी शीघ्रता से संपन्न नहीं हुआ होगा जितना दरभंगे के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का हुआ, 59-वर्ष की गुत्थी

मिथिला के लिए एक युग का अंत

दरभंगा / पटना / दिल्ली : आज शुक्रवार है, 24 सितम्बर। अगला शुक्रवार 1 अक्टूबर, 2021 होगा। उनसठ वर्ष पहले 24 सितम्बर सोमवार था और 1 अक्टूबर भी सोमवार ही था। लेकिन दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डाक्टर सर कामेश्वर सिंह बहादुर नहीं जानते थे कि 24 सितम्बर से 1 अक्टूबर, 1962 का सप्ताह उनके जीवन का ‘अंतिम सप्ताह’ और पहली अक्टूबर का सूर्योदय उनके जीवन का ‘अंतिम सूर्योदय’ होगा। उनसठ वर्ष आज समाप्त होने जा रहा है दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु को प्राप्त किये। लेकिन आज तक यह गुत्थी सुलझ नहीं पाया की “आखिर किसे” और “क्यों” इतनी जल्दी थी की 1 अक्टूबर, 1962 को प्रातःकाल 8.36 बजे महाराजा के शरीर को पार्थिव होने के साथ ही, दोपहर 12.30 बजे उसे अग्नि को सुपुर्द कर देने की। महाराजा का पार्थिव शरीर अपरान्ह 3.30 बजते-बजते राख में तब्दील हो गया – महाराजाधिराज द्वारा स्थापित अखबार में प्रकाशित तस्वीरें और उन तस्वीरों के साथ लिखे शब्द तो यही कहता है। 

महाराजाधिराज की आकस्मिक मृत्यु के बाद दरभंगा राज का प्रत्येक व्यक्ति चुप हो गए। जिला प्रशासन शांत हो गयी और स्थानीय प्रदेश की सरकार, राजनेताओं की मंडली जो कल तक महाराजाधिराज के चतुर्दिक चक्कर लगाते नहीं थकते थे, दो-हाथ की दूरी बना लिए। जिलाधिकारी का तबादला हो गया। और फिर समयांतराल महाराजाधिराज द्वारा बनाये गए वसीयत के क्रियान्वयन, सम्पत्तियों के बंटवारे में सभी लोग व्यस्त हो गए। उनसठ साल बाद भी संपत्ति से संबंधित मामले अब तक सुलझ नहीं पाए। परन्तु महाराजा का हँसता-खेलता-मुस्कुराता शरीर को पार्थिव होने के साथ ही, विश्व-विख्यात उस शरीर को हज़ारों-हज़ार ‘अपनों’ का, ‘शुभचिंतकों’ का, ‘उपकृतों’ का श्रद्धांजलि-पुष्पों के बिना, कुल आठ घंटे, यानी 480 मिनट से भी कम समय में “निपटा” दिया गया। महाराजाधिराज का शरीर राख हो गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद किसी भी राजा – महाराजा का मरणोपरांत अंतिम संस्कार इतनी शीघ्रता से संपन्न नहीं हुआ होगा।   

मिथिला के, दरभंगा के लालबाग परिसर के बाहर जिस बच्चे का जन्म पहली अक्टूबर, 1962 को सुबह 8 बजकर 36 मिनट पर हुआ होगा, जब ‘मिथिला’ के ‘मिहिर’ महाराजाधिराज डॉक्टर सर कामेश्वर सिंह बहादुर, नरगौना पैलेस में अंतिम सांस’ लिए थे, आज अपने जीवन के साठवें वर्ष में प्रवेश करने को तत्पर होंगे । ‘मिथिला’ के ‘मिहिर’ को इतने महान विधिज्ञाता, शिक्षाविद, मानवीय, परोपकारी, दानशील, मित्र, विलक्षण प्रतिभा वाले, ठोस विचार वाले, सार्वजनिक सेवा भाव रखने वाले, सरल, विनयशील मानव होते हुए भी, न तो उनके पार्थिव शरीर को और ना ही उनकी आत्मा को न्याय मिला। मिथिला के प्रत्येक नागरिक अपने-अपने ह्रदय पर हाथ रखकर सोचकर देखें। वैसी स्थिति में, मिथिला के अन्य जीव-जंतुओं के लिए, उनके मरणोपरांत न्याय की आशा रखना न्यायसंगत नहीं होगा। 

आखिर ऐसा क्या हुआ उस सुबह? क्यों हुआ उस सुबह? मिथिला के मिहिर का हँसता, मुस्कुराता शरीर पहली अक्टूबर, 1962 के सूर्योदय के साथ ही ‘पार्थिव’ कैसे हो गया? उनके पार्थिव शरीर को बिना किसी राजकीय सम्मान के साथ, बिना किसी की प्रतीक्षा किये बिना अग्नि को क्यों सुपुर्द किया गया? एक नहीं एक लाख सवाल आज भी अनुत्तर हैं दरभंगा की भूमि पर जिसे लोग “सांस्कृतिक राजधानी” बनाने के लिए 24 x 7 राजनीतिक कुश्ती लड़ रहे हैं।  

स्वतंत्र भारत में शायद पहली और अंतिम बार “2 अक्टूबर” को बिहार का एक संस्थान “ख़ुशी” के बदले “दुःख” के कारण बंद हुआ था। सभी मातम में थे, मर्माहत थे। उस संस्था के अतिरिक्त उत्तर बिहार के अनेकानेक शैक्षणिक संस्थाएं भी अपने-अपने प्रवेश द्वारों पर ताला लटका दिए थे। मिथिला में तो पूर्णतया करुणामय दृश्य था। मिथिला की आबादी कम तो थी ही, सड़कें भी वीरान हो गयी थी। कई घरों में चूल्हे नहीं जले थे। नवजात शिशु भी उस दिन अपने उदर-पूर्ति के लिए बिलखे नहीं थे। माँ की आँखों से निकलने वाला अश्रु उसके स्तन को भींगा रहा था और वह नवजात शिशु उस अश्रु को दूध समझकर पान कर रहा था। समस्त प्रान्त बेसुध था। मिथिला के ‘मनुष्यों’ के साथ-साथ, सभी जीव-जंतु भी अपने प्रदेश के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉक्टर सर कामेश्वर सिंह बहादुर की “आकस्मिक मृत्यु” के कारण दुखी थे। परन्तु सभी “वजह” ढूंढ रहे थे।  अगले दिन 2 अक्टूबर को राष्ट्रपिता (तब तक दिवंगत) महात्मा गांधी और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म दिन था। उधर दिल्ली में, पंडित जवाहरलाल नेहरू चौथी बार प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठे थे, इधर, पटना में बिनोदानंद झा प्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर जमे थे। 

2 अक्टूबर, 1962 को महाराजाधिराज के द्वारा स्थापित “आर्यावर्त” हिंदी दैनिक के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ: “दरभंगे के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह का स्वर्गवास। एक महान शिक्षा प्रेमी और उदार दानी का अंत। निधन-संवाद से सर्वत्र शोक” – आगे लिखा था: “लगभग 55 वर्ष की आयु में आज यहाँ प्रातः काल 8. 36 बजे दरभंगे के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के.सी.आई.इ., एल.एल.बी., डी.लिट् का देहावसान हृदयगति रुक जाने के कारण हो गया। महाराजाधिराज के देहावसान का समाचार बिजली की तरह फ़ैल गया और इस दुखद समाचार की सत्यता जांचने के लिए हज़ारो आदमी राज आहाते की ओर दौड़ पड़े और सत्यता जानकार सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी।” 

खबर की अगली पंक्ति थी: “महाराजाधिराज का दाह-संस्कार उनके भगिन श्री कन्हैया जी द्वारा सायं 5 बजे माधवेश्वर श्मशान में स्वर्गीय महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया की समाधि के बगल में संपन्न हुआ। श्राद्ध कार्य महारानी संपन्न करेंगी। इस अवसर पर दुर्गा पूजा के सिलसिले में राजकुमार राजनगर में रहने के कारण यहाँ उपस्थित नहीं थे। कहा जाता है की आज प्रातः काल उन्हें ह्रदय में पीड़ा का अनुभव हुआ और उपचार के लिए बुलाये गए कलेकिन पहुँचने के पूर्व ये परधाम को छोड़कर सदा के लिए सो गए।”

आज, महाराजाधिराज को अपनी अनंत यात्रा पर निकले 59-वर्ष हो गए। लेकिन कई सवालों में एक सवाल आज भी दरभंगा राज के कोई भी व्यक्ति – जो उस दिन उक्त अवसर पर उपस्थित थे, कुछ तो महाराजाधिराज के पास पहुँचने के लिए पृथ्वी को छोड़कर चले गए, कुछ आज भी जीवित हैं – इस सवाल का उत्तर नहीं दे सके की “आखिर क्या हुआ था उस सुवह जब ‘मिथिला’ के ‘मिहिर’ महाराजाधिराज का हँसता, खेलता, मुस्कुराता शरीर “पार्थिव” हो गया। कहा जाता है कि उक्त समय दरभंगा के नरगौना पैलेस में, जहाँ महाराजाधिराज अपनी अंतिम सांस लिए, उनकी पत्नी महरानीअधिरानी कामसुन्दरी उपस्थित थी। 

महारानी आज अपने जीवन के 88+ वें बसंत में हैं और जीवित हैं। इन विगत वर्षों में दरभंगा राज में इस बात पर भी शायद चर्चा नहीं हुई। कोई सेमिनार नहीं हुआ, कोई संगोष्ठी भी नहीं हुआ। विद्वान-विदुषियों से धनाढ्य यह शहर, शास्त्रियों, आचार्यों से परिपूर्ण इस शहर के लोग, जिनकी संस्कृति और विद्वता का जीवन-पर्यन्त संरक्षण करते रहे महाराजाधिराज; एक बार भी लक्ष्मीश्वर विलास चौराहे पर या फिर नरगौना पैलेस के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर पूछने की, जानने की, बताने की कोशिश नहीं किये की “मिथिला मिहिर का इस कदर अंत कैसे हो गया?” 

महाराजाधिराज द्वारा स्थापित उनके ही समाचार पत्र “आर्यावर्त” में प्रकाशित हुआ था कि “महाराजाधिराज का निधन 8 बजकर 36 मिनट पर हुआ।” लेकिन उनके पार्थिव शरीर को देखने, श्रद्धांजलि देने के लिए किसी भी गणमान्य लोगों की प्रतीक्षा नहीं किया गया। यहाँ तक कि महाराजाधिराज के छोटे भाई राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के पुत्र कुमार जीवेश्वर सिंह, जो उस समय मधुबनी के राजनगर पैलेस में थे, उनकी भी प्रतीक्षा नहीं की गयी, जबकि मधुबनी-दरभंगा की दूरी महज 38 किलोमीटर थी (आज भी है) । उस समय जीवेश्वर सिंह के छोटे भाई यग्नेश्वर सिंह दरभंगा में ही थे। कहा जाता है कि ‘उन्हें एक कमरे में बंद’ कर दिया गया था। राजा बहादुर बिश्वेश्वर सिंह के सबसे छोटे पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह, जिन्हे ‘मिथिला के मिहिर’ बेपनाह स्नेह करते थे, अपने विद्यालय के छात्रावास में थे। उन्हें भी लाने की कोई जरुरत महसूस नहीं किया गया। महाराजाधिराज के इष्ट-अपेक्षितों, मित्रों, राजनायिकों, राजनेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों (खासकर बिहार, कलकत्ता और उड़ीसा के मुख़्यमंत्रियों) और अन्य गणमान्य व्यक्तियों की प्रतीक्षा भी नहीं किया गया। स्थानीय प्रशासन के लोगों के अलावे मृत्यु-स्थान से माधवेश्वर में बने मृत्यु-सय्या तक वैसे हज़ारों लोगों की उपस्थिति तो थी, लेकिन ‘उनमें कोई भी महाराजके रक्त-सम्बन्ध नहीं थी संभवतः जो ‘आकस्मिक मृत्यु के कारण को कुरेद सकते’ – आनन्-फानन में उनके पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया।  

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2 अक्टूबर, 1962 को प्रकाशित “आर्यावर्त” अखबार के प्रथम पृष्ठ पर लिखा था: “खण्डवला कुल गौरव महाराजा डॉ कामेश्वर सिंह का जन्म 1907 ईस्वी के 28 नवम्बर को हुआ था। उनके पिता स्वर्गीय महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह बहादुर बहुत ही व्यवहार कुशल और दक्ष प्रशासक थे। उन्होंने आरम्भ से उनकी शिक्षा दीक्षा के ऊपर विशेष ध्यान रखा। 21 वर्ष की आयु में ही 1929 की 14 जुलाई को आप दरभंगा राज की गद्दी पर बैठे और बड़ी कुशलता से राज के कार्यों की व्यवस्था की। महाराज अधिराज उदार शासक के रूप में जाने जाते थे। सम्राट अकबर से जो राज्य पांडित्य के पुरस्कार स्वरुप दरभंगा राजवंश के संस्थापक स्वर्गीय महेश ठाकुर को प्राप्त हुआ था उसे ये श्रेष्ठ शासक थे। उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से और बनारस विश्वविद्यालय से उपाधि भी मिली थी।” 

“आर्यावर्त” अखबार में लिखा है: “महाराजाधिराज के पार्थिव शरीर को अपने में समेत कर ज्योहीं चिता की लपटें ऊपर आसमान की ओर उठीं, वहां उपस्थित एक हज़ार से अधिक व्यक्तियों की आखें अश्रुपूरित हो उठी। इस अवसर पर छोटी महारानी साहिबा भी उपस्थित थी। चिता में आग लगाए जाने से पूर्व स्थानीय सशत्र सैनिकों के एक दस्ते ने अपनी बन्दुक झुकाकर स्वर्गीय महाराजाधिराज को सैनिक सलामी दी। दरभंगे के जिलाधिकारी डॉ जे सी कुंद्रा, एस.पी. श्री एस.एन. श्रीवास्तव, सिविल सर्जन डॉ मेहरा, अस्पताल के अधीक्षक डॉ सफदरली खान, सदर एस.डी.ओ. श्री यु. एन. चौबे, सदर डीएसपी श्री लक्ष्मण प्रसाद तथा अन्य सरकारी अधिकारियों ने, जो वहां मौजूद थे, महाराजाधिराज के शव पर फूल चढ़ाये। इसके बाद श्रद्धांजलि देने वाले शिक्षकों, छात्रों, व्यवसायियों तथा अन्य नागरिकों का जिनमें स्त्री, बच्चे, बूढ़े सभी थे, तांता लग गया। शोक में स्थानीय सभी संस्थाएं स्कूल कालेज आदि बंद कर कर दिए गए।” 

बिहार मुख्यमंत्री पंडित विनोदानंद झा ने जीवेश्वर सिंह के नाम निम्नलिखित शोक सन्देश तार द्वारा भेजा था जिसमें लिखा था: “महाराजाधिराज की आकस्मिक और दुखद मृत्यु से गहरा धक्का पहुंचा है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति तथा आप सब को यह महान क्षति सहने की शक्ति दें। मेरी हार्दिक संवेदना स्वीकार करें।” अगले दिन, यानी 2 अक्टूबर को मुख्यमंत्री प्रातः काल यहाँ पहुंचे और माधवेश्वर जाकर स्वर्गीय महाराजाधिराज की चिता पर राज्यपाल श्री आयगार, बिहार सरकार तथा अपनी और से मालाएं अर्पित की। विधान परिषद के अध्यक्ष श्री रामणेश्वर मिश्र ने विधान परिषद की ओर से माल्यार्पण किया। इन लोगों के साथ स्वास्थ्य मंत्री श्री हरिनाथ मिश्र भी वहां गए थे। इसके बाद मुख्यमंत्री नरगौना राज प्रसाद आये और दोनों महारानी अधिराणी साहिबाओं के प्रति हार्दिक शोक संवेदना प्रकट की। मुख्यमंत्री वहां एक घंटे से भी अधिक काल तक वहां रहे और पंडित गिरीन्द्र मोहन मिश्र तथा ने वरिष्ठ राज अधिकारियों से बात की। वहां से वे सभी बेला पैलेस गए और कुमार जीवेश्वर सिंह से मिलकर संवेदना प्रकट की।” 

‘समाज-सुधार’ की दिशा में उनके योगदान का उल्लेख करते हुए ‘आर्यावर्त’ लिखा था : “स्वर्गीय महाराज बड़े उदार विचार के थे और उन्होंने इस बात पर जोर दिया था जोर दिया था की यदि लोग अपने चरित्र को रक्षा करें तो केवल समुद्र यात्रा से जाति या धर्म को हानि की आशंका नहीं की जा सकती। वस्तुतः स्वर्गीय मिथिलेश महाराजा डॉ कामेश्वर सिंह मिथिला के महान समाज सुधारक थे। इतना ही नहीं, महाराजाधिराज धर्म में क़ानूनी हस्तक्षेप के विरोधी थे और इस प्रसंग में राज्य परिषद् के अधिवेशनों में अपने विचार जोरदार रूप से व्यक्त किया करते थे। सन 1935 में 12 फरबरी को राज्य परिषद् (काउन्सिल ऑफ़ स्टेट) में अपने विचार व्यक्त करते हुये महाराजधिराज ने कहा था: “मैं उन लोगों में हूँ जिनका विस्वास है की भिन्न भिन्न धर्मों और सामाजिक आचार विचारों को मानने वाले सदस्यों से बनी हुयी व्यवस्थापिका हिन्दुओं के धार्मिक नियमों में परिवर्तन करने की अधिकारिणी नहीं है। सामाजिक सुधर समाज के अंदर से होना चाहिए। कानून द्वारा सामाजिक सुधर करना एक वहां है। ”

रिपोर्ट आगे लिखता है: “महाराजाधिराज भारत के सबसे बड़े जमींदार थे और तरुण अवस्था में ही अपने उदार विचारों के कारण इन्होने पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर ली थी। राजनितिक समस्याओं का इन्होने गहरा अध्ययन किया था और विलक्षण राजनीतिज्ञ होने के साथ साथ ये पक्के राष्ट्रवादी थे। गोलमेज सम्मलेन में महाराजाधिराज की राजनीतिज्ञता, राष्ट्रवादिता, योग्यता की तत्कालीन भारत मंत्री श्री उद बेनेने बड़ी तारीफ की थी। महाराजाधिराज की राजनीतिज्ञता और स्पष्टवादिता प्रवाल प्रमाण है वह भाषण जो इन्होने 1933 के 27 मार्च को काउंसिल ऑफ़ स्टेट में श्वेत पात्र के विषय में किया था। उन्होंने कहा – मुझे मालूम है की हमें जो कुछ मिल रहा है, वह न तो महात्मा गाँधी का स्वतंत्रता का सार है, न भारतवासियों द्वारा प्रितिक्षित औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेट) है। जनतंत्र निरंकुश राज तंत्र द्वारा संचालित होने जा रहा है।” 

सांप्रदायिक भेदभाव को महाराजाधिराज भारत का कलंक मानते थे और 1932 में 4 सितम्बर को बिहार संयुक्त दल की बैठक में रांची में भाषण करते हुए उन्होंने कहा था: “हमें इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए की हमें पूर्ण राष्ट्रीयता के रास्ते पर चलना है। भिन्न भिन्न जातियों और सम्प्रदायों में जो भेदभाव हैं उनको मिटाकर सबमें सामंजस्य स्थापित करना है और अपनी राष्ट्रिय आकांक्षाओं की की पूर्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी है। जातीय स्वार्थ को राष्ट्रहित के लिए बलिदान कर दीजिये और सांप्रदायिक झगड़ों को मिल्टन के लिए हमें बाहरी शक्ति की जरुरत पड़े, इस राष्ट्रिय अपमान को दूर करने की चेष्टा कीजिये।”

“शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था का महाराजधिराज ने शिक्षा के कार्यों में अपनी सच्ची लगन का जो परिचय दिया वह अनुकरणीय और आदर्श है। कलकत्ता, काशी और पटना विश्वविद्यालय को इस परिवार से जो दान प्राप्त हुए थे उसके सम्बन्ध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती है किन्तु अपने योग्य पूर्वजों के सामान महाराजाधिराज ने अपने जीवन काल में शिक्षा की उन्नति के लिए जो दान दिए और जो कार्य किये वो भुलाये नहीं जा सकते। महाराजाधिराज संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और संस्कृत शिक्षा के उन्नयन के लिए उनके दान की तुलना नहीं की जा सकती। मिथिला संस्कृत शोध प्रतिष्ठान के लिए विशन भूखंड का दान अपने ढंग का अनूठा माना जायेगा। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए लक्ष्मेश्वर विलास राज प्रसादा और इसके साथ ही एक विशाल और सर्वांगपूर्ण पुस्तकालय का दान महाराजाधिराज की उदारता का युग-युग तक प्रोज्ज्वल परिचायक बना रहेगा। मिथिला कालेज तथा अन्य शैक्षणिक संस्थाओं को भी महाराजधिराज की और से मुक्त हस्त दान दिया गया है जो महाराजाधिराज के शिक्षा प्रेम और दानशीलता का ज्वलंत उदाहरण रहेगा।” 

अपनी प्रजा के प्रति महाराजाधिराज के हृदय में अगाध वात्सल्य था। प्रजा के दुःख से दुखी और सुख से सुखी होते थे। 1935-36 की बात है। राज दरभंगा के पंडौल सर्कल के इलाके में जोरों से मलेरिया फैला था। लोग कुत्तों की मौत मर रहे थे। गरीबी के कारण लोग दवा-दारू और पाठ्य-पानी का इंतजाम भी नहीं कर पाते थे। कोई किसी का हाल भी पूछने वाला नहीं था। इस रोग प्रसार की खबर महाराजाधिराज के कानों में पहुंची। वे वैचैन हो उठे और लगभग चालीस हज़ार रुपये उन्होंने पीड़ितों की सेवा और चिकित्सा के लिए दिए। इसके अतिरिक्त इलाके भर में चाह चिकित्सा केंद्र खोलकर बीमारों की चिकित्सा व्यवथा की गयी। महाराजाधिराज ने स्वयं गाँव गाँव में घूमकर उस समय अपनी रोग पीड़ित प्रजा की दयनीय अवस्था का निरिक्षण कित्या था। 

अखबार आगे लिखता है कि “दरभंगा के महाराजाधिराज डॉक्टर सर कामेश्वर सिंह बहादुर के देहावसान पर आज बिहार विधान परिषद में हार्दिक शोक प्रकट किया गया और विभिन्न क्षेत्रों में की गयी उनकी अन्य सेवाओं, त्याग, विशाल हृदयता, उदारता, एवं दानशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए स्वर्गीय महाराजाधिराज के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गयी। शोक प्रस्ताव स्वीकृत करने के बाद परिषद् दिवंगत प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए उठ गयी। सभी सदस्यों ने मौन खड़े होकर दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। शोक श्रद्धांजलि प्रकट करने वाले सदस्यों ने खड़े होकर रुंधे गले से भावविह्वल शब्दों में उन्हें श्रन्धांजलियाँ अर्पित की और सबों ने एक स्वर में कहा की वे वे अपने महान परिवार की विशालता के प्रतिक थे।” 

परिषद के अध्यक्ष रावणेश्वर मिश्र ने शोक प्रस्ताव उपस्थित करते हुए महाराजाधिराज के जीवन एवं उनकी सेवाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डाला। उन्होंने कहा की महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह बहादुर का जन्म 20 नवम्बर 1907 को हुआ। अपने जीवन के आरम्भ काल से मृत्यु पर्यन्त वे जनता जनार्दन एवं राष्ट्र की सेवा में संलंग रहे। वे सन् 1928 में राज्य परिषद के सदस्य मनोनीत किए गए। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में उन्होंने भारत का एक सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व किया। भारतीय संविधान परिषद के सदस्य के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भाग लिए। वे अपने शैक्षिक एवं विशेषताओं एवं प्रतिभाओं का समन्वय था जो मनुष्य में बहुत मुश्किल से देखने को मिलता है। उन्हें न केवल बिहार में वरन सम्पूर्ण देश में गौरवमयी स्थान प्राप्त था। देश में सबसे पहले संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना उनकी ही दें है। एक बड़ा भूमिपति होने के वावजूद उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रीय भाग लिया एवं अंग्रेजों की परवाह न कर स्वातंत्र्य आंदोलन में खुले दिल से सहायता की। 

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उन्होंने कहा कि डॉ कामेश्वर सिंह विद्वानों का न केवल सम्मान एवं संरक्षण करते थे वरन वे स्वयं भी बहुत बड़े विद्याप्रेमी और कई विषयों के अच्छे ज्ञाता थे। जो कोई भी उनसे मिला उसपर उनकी मानवता मैत्री, सज्जनता का गहरा असर पड़ा। वे मिथिला के अजातशत्रु थे। उनके देहावसान से देश को गहरी एवं अनूपुरनिय क्षति हुई है। संयुक्त विरोधी गुट के नेता अनिल कुमार सेन ने कहा की देश में शायद ही ऐसी कोई शैक्षिक शिक्षण संस्था हो जिसे दरभंगा राज परिवार से सहायता नहीं प्राप्त हुयी हो। स्वर्गीय महाराजाधिराज विशालता एवं उदारता की प्रतिमूर्ति थे।” 

श्री जानकीनन्दन सिंह (स्वतंत्र) ने कहा, “महाराजाधिराज डॉ कामेश्वर सिंह के उठ जाने से मिथिला अनाथ हो गयी। मिथिला और मिथिला वासियों के अभ्युत्थान के लिए वे आरम्भ से ही सतत सचेष्ट रहे। विदेश यात्रा से लौटने के बाद उनका वहिष्कार करने की कोशिश की गयी जिस कारण से महाराजा को काफी मानसिक कष्टों का सामना करना पड़ा। कुमार गंगानंदन सिंह, एम.एल.सी. ने अपने शोक संदेश में कहा की दरभंगा के महाराजाधिराज श्री कामेश्वर सिंह बहादुर की दुखद एवं असामयिक निधन का समाचार सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। वे मिथिला के अनुकरणीय सपूत थे, जिन्होंने भारत की लगन के साथ सेवा की।  मानववादी एवं शिक्षण के विख्यात संरक्षक के निधन से देश निर्धन हो गया है। अपने महान परिवार की परंपरा एवं संस्कृति के वे योग्य प्रतिनिधि थे। उन सभी लोगों को वे सदा स्मरण रहेंगे जो उनके संपर्क में आये। व्यक्तिगत रूप से मैंने अपना एक अभिन्न मित्र एवं अनुग्रहकर्ता खो दिया जिनके साथ मेरा स्नेह था और जिन्हे मैं आदर करता था। ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें तथा शोक संतप्त परिवार को अपूरणीय क्षति सहने की शक्ति दें।” 

पटना विश्वविद्यालय में मैथिली चेयर की स्थापना के लिए महाराजाधिराज ने 12 लाख रुपये दिए थे। सुप्रसिद्ध पत्रकार सी वाई चिन्तामणि ने महाराजधिराज के सम्बन्ध में एक बार निम्नलिखित शब्दों में अपने विचार प्रकट किये थे: “अक्टूबर 1930 में कैसरे हिन्द जहाज पर मैं पहले पहल महाराजाधिराज से मिला। हम लोग साथ ही इंग्लैंड गए। जहाज पर और पहले गोलमेज सम्मलेन में हमें एक दूसरे को जान्ने का और एक दूसरे के विचारों का आदर करने का मौका मिला। इसके बाद भी मैं उनसे कई बार दरभंगा, इलाहाबाद और कलकत्ते में मिल चूका हूँ। इसके परिणामस्वरूप मैं आपका दोस्त, विलक्षण प्रतिभा, ठोस विचार, सार्वजनिक सेवा भाव, सरलता, विनयशीलता आतिथ्य सटका भाषण पटुता और शजाबड़ सामर्थ के सम्बन्ध में मेरी उच्च कोटि की धरना है। हमारे भूतपूर्व भारत मंत्री श्री वेज उड बनने महाराजाधिराज की योग्यता और भाषण पटुता के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किये थे, मैं उनसे पूर्णतः सहमत हूँ। जो लोग महाराज के संसर्ग में आते हैं, उन पर वे जादू सा प्रभाव दाल देते हैं। देश के भविष्य के सम्बन्ध में भी आप बहुत उच्च विचार रखते हैं और इसके लिए त्याग करने के लिए भी तत्पर रहते हैं। ” एक अनुभवी पत्रकार के इन शब्दों से महाराजधिराज की विशेषता का जो आभाष मिलता है उससे भी बड़ी विशेषता उनमें यह थी कि उन्हें घमंड छू नहीं गया था। महाराजाधिराज वर्तमान शिक्षा पद्धति के तीब्र आलोचक थे। उद्योग और कला कौशल की शिक्षा के महाराजाधिराज समर्थक थे।” 

बहरहाल, नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विशेश्वर नाथ खरे और अन्य न्यायमूर्तियों के समक्ष दायर दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किया जाता है। वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो जाती है और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर”बन जाते हैं। फिर 26 सितम्बर,1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट”करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को दिया जाता है। उस दिन बिहार में भी पटना उच्च न्यायालय था और पंडित लक्ष्मीकांत झा उसी न्यायालय के न्यायमूर्ति भी थे। लेकिन अरबो-खरबों का प्रश्न अनुत्तर रह गया कि “आखिर पंडित झा संपत्ति की सीमा-क्षेत्र को छोड़कर, दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय में वसीयतनामा को लेकर क्यों गए? महाराजाधिराज की सम्पत्तियों से लाभ प्राप्त करने वाले सम्मानित मोहतरमा और मोहतरम आखिर आपत्ति क्यों नहीं जताए ?

महाराजा के वसीयतनामे के अनुसार, महाराजा का दरभंगा राज का सम्पूर्ण अधिकार न्यायमूर्ति झा के पास गया । उस वसीयतनामे में तीन ट्रस्टियों का नाम होता है जिसके नियुक्ति”सेटलर”द्वारा किया गया – वे थे: पंडित एल के झा (स्वयं), पंडित जी एम मिश्रा और ओझा मुकुंद झा। उपरोक्त”एस्क्यूटर”को अपना सम्पूर्ण कार्य समाप्त करने के बाद दरभंगा राज का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप इन ट्रस्टियों को सौंपना था। महाराजा के वसीयतनामे में इस बात पर बल दिया गया था कि ट्रस्टियों की मृत्यु अथवा त्यागपत्र के बाद, दूसरे ट्रस्टी द्वारा रिक्तता को भरा जायेगा और वर्तमान ट्रस्टी उक्त दस्तावेज में उल्लिखित नियमों के अधीन ही नियुक्त किये जायेंगे। 

“एंड व्हेरेऐज आई हैव नो इस्सू” इस छः शब्दों को अपने वसीयत के दूसरे पन्ने पर लिखते अथवा लिखाते समय दरभंगा के अंतिम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की आत्मा “दो-फांक” में अवश्य विदीर्ण हो गया होगा। उस वसीयत में जिस प्रकार बहुत ही प्रमुखता, सम्मान, अपनापन के साथ यह उद्धृत किये कि “मेरे सबसे करीबी, मेरी अपनी दो पत्नियां हैं – महारानी राज्यलक्ष्मी और महारानी कामसुंदरी और मेरे दिवंगत भाई राजा बहादुर बिशेश्वर सिंह के तीन पुत्र – राज कुमार जीवेश्वर सिंह, राज कुमार येणेश्वर सिंह  और राजकुमार शुभेश्वर सिंह, जिसमें पहला सबसे बड़ा है और शेष दो अभी नाबालिग है”; आज की स्थिति में शायद ही कोई लिखता होगा, अपने भतीजों को ‘अपना’ कहता होगा, अपने सगे-सम्बन्धियों को ‘अपना स्वीकारता’ होगा । परन्तु, जिस दिन महाराजाधिराज का पार्थिव शरीर अग्नि के रास्ते महादेव के पास जा रहा था, उनकी “दोनों” पत्नियों के अलावे उनके छोटे भाई राजबहादुर बिश्वेश्वर सिंह के तीनों संतानों में से एक भी उपस्थित नहीं हो पाए थे। 

उस दिन प्रकाशित अखबार की कहानी के अनुसार, राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘राजनगर’ में थे। दूसरे पुत्र राजकुमार यग्नेश्वर सिंह, थे तो दरभंगा में ही, वह भी अपने घर में; परन्तु, लोगों का मानना है कि “उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया था”, और वे निःसहाय थे। सबसे छोटे पुत्र राजकुमार शुभेश्वर सिंह अपने शैक्षिक संस्थान/छात्रावास में थे। कोई भी भतीजा, यानी ‘रक्त-सम्बन्धी’ उक्त दाह-संस्कार के अवसर पर उपस्थित नहीं हो पाए, अथवा नहीं होने दिया गया। जो उपस्थित थे, अगर 2 अक्टूबर, 1962 को प्रकाशित “आर्यावर्त” की खबर को माने, तो कन्हैया जी, महाराजाधिराज की इकलौती बहन के पुत्र थे, जिन्होंने ‘मुखाग्नि’ भी दिए और महारानी थी। 

ज्ञातव्य हो कि जब महाराजाधिराज के भाई राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह का देहांत हुआ था, उनके बड़े पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह मुखाग्नि दिए थे। भाग्यवश, उस दिन भी राजकुमार जीवेश्वर सिंह “जीवित”थे, दरभंगा से महज 38 किलोमीटर दूरी पर थे जिसे तय करना महाराजाधिराज के परिवार और परिजनों के लिए महज आधे-एक घंटे का प्रश्न था। लेकिन उनका इंतज़ार नहीं किया गया। अगर राज दरभंगा के आज के जीवित महिलाओं की बातों को मानें, तो यग्नेश्वर सिंह को ‘कमरे में बंद’ कर देना, उन्हें दाह-संस्कार में उपस्थित नहीं होने देना, कुमार शुभेश्वर सिंह के आगमन तक उनकी प्रतीक्षा नहीं करना – करोड़ों-अरबों का अनुत्तर प्रश्न छोड़ता है। 

जिस दिन महाराजा अंतिम सांस लिए जीवेश्वर सिंह की आयु 32 वर्ष थी। व्यावहारिक दृष्टि से अगर देखें, तो  राजकुमार जीवेश्वर सिंह उस दिन दरभंगा राज परिवार के सबसे बड़े सदस्य थे, वह भी पुरुष, तथा उम्र में महाराजाधिराज की सबसे छोटी पत्नी महरानीअधिरानी कामसुन्दरी (कल्याणी सिंह) के सम-उम्र थे अथवा कुछ वर्ष बड़े। महाराजाधिराज की मृत्यु 1962 में हुई और आज महारानी 88 + वर्ष के करीब हैं। वैसी स्थिति में कुमार जीवेश्वर सिंह अगर जीवित होते तो आज 91-वर्ष के अवश्य होते। इस दृष्टि से, सन 1907 में जन्म लिए महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह 22-वर्ष की आयु में सन 1929 में दरभंगा राज सिंहासन का बागडोर संभाल सकते हैं, फिर 32-वर्षीय जीवेश्वर सिंह की मानसिक परिपक्वता तो उत्कर्ष पर रही होगी ही। संभव है, इस कारण भी उन्हें महाराजा की मृत्यु-दाह संस्कार के समय अलग रखा गया हो। महाराजाधिराज का अपने जीवन-काल में जीवेश्वर सिंह से जो भी ‘मानसिक तनाव’ रहा हो, वे कभी भी उनके ‘अहित की कामना’ नहीं किये होंगे। शैक्षिक और बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से कुमार जीवेश्वर सिंह अपने उत्कर्ष पर थे, यह सभी स्वीकार करते हैं। 

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इतना ही नहीं, अगर महाराजाधिराज अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी संपत्ति का वसीयत बना सकते थे, तो उक्त वसीयत अथवा दस्तावेज पर इस बात को भी उद्धृत कर सकते थे की उनकी मृत्यु के बाद उन्हें “मुखाग्नि कौन देगा”? उन्होंने यह भी नहीं लिखा था कि उनके तीनों भतीजे, जो उनके बहुत करीबी थे, दाह-संस्कार में उपस्थित नहीं होंगे, उन तीनों भाइयों में से कोई भी उनके पार्थिव शरीर का स्पर्श नहीं करेगा, कोई मुखाग्नि नहीं देगा। फिर अचानक, क्या हुआ जो मुखाग्नि देने का एकमात्र अधिकार उनके भगिना को दिया गया और उस समय उनकी छोटी पत्नी (अखबार के रिपोर्ट के अनुसार) शमशान में, मुखाग्नि के समय उपस्थित थी। यह बात भी आज तक अनुत्तर रहा कि दरभंगा के तत्कालीन जिलाधिकारी, जो उस ‘आकस्मिक मृत्यु’ का तहकीकात करना चाहते थे, उन्हें दरभंगा से हस्तान्तरित कर दिया गया। इससे भी बड़ा प्रश्न आज तक उत्तर की तलाश में है कि आखिर “जब महाराजाधिराज के तीनों भतीजे एकत्रित हुए तो फिर सम्पूर्ण घटना की जांच के लिए एकमत क्यों नहीं हुए?

बहरहाल, न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा, यानी “सोल एस्क्यूटर”संभवतः सन 1978 साल के मार्च महीने के 3 तारीख को मृत्यु को प्राप्त किये । न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी (अवकाश प्राप्त) को दरभंगा राज के”प्रशासक” के रूप में नियुक्त किया गया । इसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्तिसब्यसाची मुखर्जी अपने आदेश, दिनांक 16 मई, 1979 के द्वारा उपरोक्त”प्रशासकों” को “इन्वेंटरी ऑफ़ द एसेट्स’ और ‘लायबिलिटीज ऑफ़ दइस्टेट’ बनाने का आदेश दिया गया ताकि वह दरभंगा राज के ट्रस्टियों को सौंपा जा सके । उक्त दस्तावेज के प्रस्तुति की तारीख के अनुसार तत्कालीन ट्रस्टियों ने महाराजाधिराज दरभंगा के रेसिडुअरी इस्टेट का कार्यभार 26मई,1979 को ग्रहण किया था । कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेशानुसार, महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी (यानी परिवार के सदस्य) इस ट्रस्ट के ट्रस्टीज होंगे ।

इस बीच, 27 मार्च, 1987 को सम्बद्ध लोगों के बीच हुए फेमिली सेटेलमेंट को लेकर दायर अपील को सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर,1987 को”डिक्री”देते हुए ख़ारिज कर दिया। तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल IIमें वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल IIमें उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फॅमिली सेटलमेंट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, शेड्यूलIII में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते शेड्यूलIII में उल्लिखित सम्पत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत सिड्यूल IVमें वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IVमें उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। फेमिली  सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के अधीन, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी बालिग पुत्रियां) और सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी नबालिग पुत्रियां), श्री रत्नेश्वर सिंह, श्री रश्मेश्वर सिंह (उस समय मृत), श्री राजनेश्वर सिंह (कुमार यग्नेश्वर सिंह) सिड्यूल V में उनके नामों के सामने उल्लिखित, साथ ही, उसी सिड्यूल में उल्लिखित शर्तों के अनुरूप, सम्पत्तियों के मालिक होंगे। 

फैमली सेटेलमेंट के तहत,  महाराजाधिराज के उस सम्पूर्ण संपत्ति स्वरुप सिक्के को जिन चार भागों में विभक्त किया गया, उसमें एक-चौथाई भाग महाराजा की पत्नी कामसुन्दरी को मिला। एक-चौथाई हिस्सा राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह को मिला। एक-चौथाई हिस्सा रराजकुमार जीवेश्वर सिंह और राजकुमार यग्नेश्वर सिंह को मिला और अंतिम एक-चौथाई टुकड़ा चेरिटेबल ट्रस्ट के हिस्से में आया जिसका नाम कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट हुआ। आगे, फैमिली से सेटेलमेंट के क्लॉज  14 के अधीन न्यायालय के आदेश के दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 से  पांच साल के अंदर इस सेटेलमेंट को लागू करना था। 

इसी फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल ivके अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी इस्टेट चेरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नतरयाणी देबि, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तानांतरित करेंगे, सिवाय फेमिली सेटेलमेंट के लोगों के।

बहरहाल, दरभंगा राज रेसिडुअरी इस्टेट की हालात को देखते हुए, विगत दिनों कलकत्ता उच्च न्यायालय ने महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की सम्पत्तियों से लाभार्थियों द्वारा दायर एक याचिका पर निर्णय लेते हुए “दरभंगा राज रेसिडुअरी ट्रस्ट” के क्रियाकलापों में अनियमितता, कुप्रबंध, ट्रस्ट की सम्पत्तियों को औने-पौने मूल्य पर बेचने, महाराजाधिराज और दरभंगा राज की गरिमा को नष्ट करने इत्यादि के कारण ट्रस्ट के ट्रस्टियों (प्रबंध समिति के सदस्य) – महारानी कामसुंदरी सहित, राजबहादुर के सबसे छोटे पुत्र (दिवंगत) कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्रों – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – को दरभंगा राज रेसिडुअरी ट्रस्ट के ट्रस्टीशिप / प्रबंध समिति की सदस्यता से “बेदखल” कर दिया है। साथ ही, न्यायालय ने तीन पूर्व न्यायमूर्तियों को “संयुक्त विशेष अधिकारी”के रूप में नियुक्त भी किया है। ये संयुक्त विशेष अधिकारी दरभंगा राज रेसिडुअरी ट्रस्ट के पिछले दस वर्षों के सभी कार्यों की छानबीन करेंगे। न्यायालय ने संयुक्त विशेष अधिकारियों का प्रतिमाह दो लाख रुपये का पारिश्रमिक भुगतान निर्धारित किया है । न्यायालय ने  पश्चिम बंगाल न्यायिक सेवा के विरुद्ध”अवांछनीय”टिका-टिप्पणी करने पर  दरभंगा राज रेसिडुअरी के प्रबंध समिति के एक सदस्य कपिलेश्वर सिंह को 10,00,000 रुपये का दंड  देने का आदेश भी दिया है। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति देबांगसु बसाक वीडियो कांफ्रेंसिंग द्वारा आयोजित न्यायालय में दरभंगा रेसिडुअरी इस्टेट के क्रिया-कलापों की छानबीन के लिए जिन तीन विशेष स्पेशल ऑफिसर्स की नियुक्ति किये हैं उनमें कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ज्योतिर्मय भट्टाचार्य, न्यायमूर्ति (श्रीमती) मधुमिता मित्रा (अवकाश प्राप्त) और साहिबगंज के प्रिंसिपल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज (अवकाश प्राप्त) न्यायमूर्ति गोपाल कुमार रॉय हैं। न्यायालय ने उन सभी पुलिस अधिकारियों, अधीक्षकों से अनुरोध भी किया है कि जिन-जिन स्थानों/क्षेत्रों में दरभंगा रेसिडुअरी इस्टेट की संपत्ति है, और जिसका इन्वेंट्री बनाया जायेगा, आवश्यकता पड़ने पर प्रशासनिक मदद करें। 

बहरहाल, अब न तो महाराजा है और ना ही उनका दोनों अखबार, न राजबहादुर बिश्वेश्वर सिंह हैं और न उनकी पत्नी, न बड़ी महारानी हैं, न मझली महारानी, न जीवेश्वर सिंह हैं और न उनकी पत्नी, न शुभेश्वर सिंह हैं और ना ही उनकी पत्नी, न महाराजाधिराज की एकलौती बहन जीवित हैं, न उनके पति, न कन्हैया जी जीवित हैं, न उनका पुत्र शंकर जी । उस श्रृंखला की एक मात्र महिला, महाराजाधिराज की तीसरी पत्नी महरानीअधिरानी काम सुंदरी जीवित हैं जो सम्पूर्ण घटनाओं की चश्मदीद गवाह भी हैं। ईश्वर सभी दिवंगत आत्माओं को, विशेषकर, महाराजा की आत्मा को शांति प्रदान करें। 

अखबार का कतरन: महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के सौजन्य से 

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