काश !! भागलपुर कारावास के मुख्य द्वार पर लिखे ‘स्लोगन’ को 42 वर्ष पूर्व पुलिस पढ़ी होती, समझी होती तो शायद ‘अंखफोड़बा काण्ड’ नहीं होता (फोटोवाला श्रृंखला: 13)

सभी अपने-अपने दृष्टि से घटना को देख रहे थे। कोई बदनामी की नजर से तो कोई राजनीती की नजर से। लेकिन "कानून" में उद्धृत नियमों के तहत दोषियों को कड़ी-से-कड़ी सजा हो, कोई नहीं सोचा रहा था, कोई नहीं देख रहा था ।

भागलपुर: “भटकाव कोई अपराध नहीं है और सुधार हमारा प्रयास है। घृणा अपराध से करो, अपराधी से नहीं” – दो बेहतरीन बातें भागलपुर के केंद्रीय कारा के प्रवेश द्वार पर लिखा दिखा। भागलपुर के आपराधिक इतिहास के मद्दे नजर कोई भी व्यक्ति इसे दो दृष्टि से देखेगा । एक: चालीस वर्ष पूर्व भागलपुर की पुलिस जिस तरह अपने जिले का 33 लोगों की आखों को फोड़कर, उसमें तेज़ाब डालकर, उनके अपराधों की सजा (सभी अपराधी नहीं थे और न्यायालय द्वारा अपराध सिद्ध भी नहीं हुआ था) दी थी – उसका एक पश्चाताप है। यह 17-शब्द इस बात का प्रमाण भी है कि भागलपुर पुलिस के कप्तान साहेब मनोविज्ञान के मर्मज्ञ हैं जो ‘अपराध’, ‘अपराधी’ में ‘शाब्दिक’ और ‘मौलिक’ भेद को समझते हैं और प्रत्येक अपराधी को, चाहे उन्हें भारत का न्यायालय ‘अपराधी’ घोषित किया हो अथवा नहीं, उन्हें दुस्तस्त कर उनके परिवार की, समाज की विकास की मुख्यधारा में जोड़ने का अथक प्रयास कर रहे हैं। जो एक बेहतरीन प्रयास है। 

दो: इन 17 -शब्दों को केंद्रीय कारा के प्रवेश द्वार पर उद्धृत देखकर यह भी सोच सकता है कि यह महज एक दिखावा है और चारदीवारी के अंदर सन 1861 में बने पुलिस एक्ट और 1862 में लार्ड थॉमस बैबिंगटन मैकॉले की अध्यक्षता में लॉ कमीशन ऑफ़ इण्डिया की अनुशंसा पर बने भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) के तहत, साथ ही, सन 1974 से लागू दंड प्रक्रिया संहिता ( Code of Criminal Procedure) में जितने प्रकार के “दंड” संभव हो सकते हैं, उसे प्रयोग में लाकर चारदीवारी के अंदर बंद भारत के नागरिक को दण्डित करना है – न्यायालय चाहे वैसी दण्डित किया हो अथवा नहीं । 

फोटो: दिवंगत कृष्ण मुरारी किशन के आर्काइव्स से 

दंड देने से सम्बंधित जो भी प्रावधान हैं वे सभी सन 1947 के पूर्व के बने हैं, सिर्फ दंड प्रक्रिया को छोड़कर । हाँ, सन 1947 के बाद स्वतंत्र भारत की सरकार अपनी सुविधा अनुसार और ‘मतदाताओं के रक्षार्थ’ समय-समय पर जितना भी परिवर्तन संभव हो पाया, करती आयी है। जिस तरह सन 1947 में अंग्रेजी हुकूमत वाली सत्ता का हस्तानांतरण तत्कालीन वाइसरॉय लार्ड लोईस माउण्टबेटन भारत के तत्कालीन नेताओं को किये, स्वाभाविक है, सत्ता के साथ भारतीय दंड संहिता, पुलिस एक्ट इत्यादि नियमों का भी हस्तान्तरण किये होंगे। अब अगर परतंत्र भारत में उन नियमों, कानूनों का प्रयोग तत्कालीन भारतीयों ने अपने ही देश के नागरिकों को जमीन के अंदर गाड़ने के लिए किया था, ताकि अंग्रेजों की हुकूमत भारतीय महाद्वीप पर जारी रहे; वैसी स्थिति में आज़ादी के महज 30-32 साल बाद ही, भारत के आम लोगों को संविधान और कानून की नजर में ‘समानता का अधिकार’ कैसे प्राप्त हो जाता। आजादी के 75-साल बाद आज भी सभी कानून गरीबों को गरीबों की नजर से, अमीरों को अमीरों की नजर से, पैसे वालों को धनाढ्यों की नजर से, गरीबों को दरिद्रों की नजर से देखती आयी है, देख रही है। 

स्वतंत्र भारत में दंड प्रक्रिया संहिता, यानी Code of Criminal Procedure, 1973 को लागू हुए महज पांच साल ही तो हुए थे । यह दंड प्रक्रिया भारत में आपराधिक कानून के क्रियान्यवन के लिये निर्मित क़ानूनी प्रक्रिया है। यह सन् 1973 में पारित हुआ तथा 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ। इस में 37 अध्याय और कुल 484 धाराएं हैं। जबकि, भारतीय दण्ड संहिता ब्रिटिश काल में सन 1860 में लागू हुई। इसके बाद इसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे। यह भारत के अन्दर भारत के किसी भी नागरिक द्वारा किये गये कुछ अपराधों की परिभाषा व दण्ड का प्रावधान करती है। इस संहिता में कुल 23 अध्याय हैं और इसमें 511 धाराएं हैं। लेकिन न तो ‘भारतीय दंड संहिता’ और ना ही ‘भारत में दंड प्रक्रिया’ किसी भी खाकीधारी को यह अधिकार दिया है कि वह न्यायालय में साबित हुए बिना भी किसी व्यक्ति को अपराधी कह दे, उसकी आखें फोड़ दे, उसमें तेज़ाब डाल दे और मरने के लिए सड़क पर छोड़ दे। 

मंत्रीजी को पता था, आखें फोड़ी जा रही है, तेज़ाब डाला जा रहा है

विगत दिनों भागलपुर गया था। भागलपुर में मेरी अपनी सबसे बड़ी बहन रहती थी। उसका ससुराल था वहां। उसका घर भागलपुर के ह्रदय में था। मेडिकल कॉलेज की दीवार और उनके ससुराल वालों के घरों का दीवार एक ही था। मुद्दत से भागलपुर रेलवे स्टेशन से आते समय जैसे ही कचहरी रोड से पीरबाबा के पास पहुँचता था, उन्हें प्रणाम कर दाहिने हाथ को मुड़ता था और फिर शशीबाबू के सफ़ेद घर से नीचे लुढ़क जाता था। बाएं हाथ कोना वाला मकान दीदी के ससुराल वालों का ही था। देश आज़ाद नहीं हुआ था जब दरभंगा के एक गाँव से वह अपने मांग में सिंन्दुर भरकर अपने पति के साथ ससुराल पहुंची थी। अपना सम्पूर्ण जीवन इसी भूमि पर बिताई थी वह । उसके साथ मोहल्ले में जो भी बहुएं आयी थी, सभी के बच्चे, उसकी बच्चों के साथ बड़ी हुई, सैंडिस कम्पाऊण्ड के टीले पर चढ़ी, नीचे लुढ़की, खेलते-कूदते पढ़ी-लिखी और फिर अपने जीवन पथ पर निकलती गयी। सबौर-रोड और पीरबाबा के सामने से नीचे गंगा छोड़ की ओर जाने वाली सड़क को मिलाने वाला रास्ता डॉ बिटसन रोड मुद्दत तक नहीं बन पाया था। यहाँ तक की जब उसकी तीनों बेटियों की शादी हुई डॉ बिटसन रोड को पत्थर, अलकतरा का दर्शन तक नहीं हुआ था। 

आज़ाद भारत में प्रथम, द्वितीय, तृतीय और न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं बन गई थी। उन योजनाओं में विकास के नाम पर आवंटित लाखों-करोड़ों रूपये पटना के रास्ते भागलपुर के ट्रेजरी तक पहुँचता तो था, लेकिन बीच में ही दम तोड़ देता था। वजह भी था – तत्कालीन राजनेता लोग विधान सभा, विधान परिषद् में अपने लोगों की संख्या कम नहीं होने देना चाहते थे। कम होने से विधानसभा में मुख्यमंत्री का पदच्युत होना स्वाभाविक था। जैसे ही मुख्यमंत्री बदले, वैसे ही बिहार के जिलों में जिलाधिकारी, जिला विकास पदाधिकारी, पुलिस अधीक्षक सभी अपना-अपना बोरिया-बिस्तर बांधने को मजबूर हो जाते थे। यही नियम था, आज भी है । इसलिए कोई भी, चाहे ‘खादीधारी’ हों या ‘खाकीधारी’ हों – सभी आपसी तालमेल बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, छोड़ते हैं। अधिकारियों के माता-पिता, सास-ससुर, टोला-मोहल्ला के लोग, साला-साली भले ‘गाल फुला’ लें, उन्हें मान्य था, मान्य है और रहेगा भी; लेकिन भागलपुर सहित, प्रदेश के अन्य संसदीय और विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों से विजय होकर दिल्ली के लोकसभा और पटना के विधानसभा में बैठे नेताजी गाल नहीं फुलाएं, किसी भी कीमत पर नहीं – अधिकारियों के आधिकारिक जीवन का मुख्य उद्देश्य होता था। आज भी परिस्थितियां लगभग वही है। 

फोटो: दिवंगत कृष्ण मुरारी किशन के आर्काइव्स से 

साठ के दशक के मध्य में जब पटना आया था, उस समय दीदी का ससुराल आने में कोई तकलीफ नहीं होता था। कोई भय भी नहीं होता था। बस पटना में किसी भी ट्रेन पर बैठ जाते थे, जो भागलपुर होकर आगे निकलती थी और वहां उतरकर हँसते-मुस्कुराते घर पहुँच जाते थे। लेकिन अस्सी के दशक के प्रारंभिक वर्षों में भागलपुर अकेले जाने में डर लगता था। यह अलग बात थी कि उन दिनों पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्र समूह में नौकरी करता था और पत्रकारिता की प्रथम सीढ़ी पर पैर भी रख दिया था। दीदी कहती भी थी कि “डरने की कोई बात नहीं है”, लेकिन पटना से प्रकाशित अख़बारों में ख़बरों को पढ़कर अच्छे-अच्छे पहलवानों को डर से पेशाब हो जाता था उन दिनों। हमारे शरीर में कुल 206 हड्डियों और मांसों का सम्पूर्ण वजन (आधा किलो कपड़ा सहित) 45-50 किलोग्राम से अधिक नहीं था, डरना लाज़िमी था। 

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उन्हीं दिनों भागलपुर पुलिस यहाँ की सड़कों पर लोगों को पकड़कर उनकी आखों को फोड़ देती थी । आखों में तेज़ाब डाल देती थी । पुलिस कहती थी जिला में अपराधों और अपराधियों की संख्या बहुत बढ़ गई है। अपराध अपने उत्कर्ष पर था।  अपराधियों को अलग-अलग राज नेताओं का राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त था। पुलिस नेताओं के आगे, दबंगों के आगे सम्पूर्णता के साथ ‘समर्पण’ भले नहीं स्वीकार रहे थे, लेकिन उनके हाव-भाव-भंगिमा इस बात का गवाह था कि वे उन अपराधियों के मदद से ही नेतागिरी कर पाने में सामर्थ्यवान हैं। इधर नेताजी आगे बढ़ रहे थे, उधर दबंग-अपराधी भी बिहार विधान सभा और लोक सभा में अपनी-अपनी कुर्सियां सुरक्षित कर रहे थे। प्रदेश में ‘राजनीती का अपराधीकरण’ और ‘अपराधी का राजनीतिकरण’ दोनों में दांत-काटी-रोटी जैसा सम्बन्ध स्थापित हो रहा था, दोनों फल-फुल रहे थे, बढ़ रहे थे, सामर्थवान हो रहे थे। जनता का कमजोर, निरीह, असहाय होना स्वाभाविक था।   

जब संसद हिल उठा

भागलपुर के कई घरों के दरवाजों पर, प्रवेश द्वारों पर जहाँ उन दिनों “स्वागतम” लिखा देखा था; आज “कुत्तों से सावधान” लिखा दिखा। खंजरपुर इलाके में बंदरों की संख्या में इजाफ़ा ही दिखा। सड़कें आज भी समतल नहीं दिखीं। लोग बाग का व्यवहार ‘समतल’ महसूस कर रहे थे। पीर बाबा के पास चार रास्ते “प्रेम” से एक साथ उन दिनों भी मिलते थे, आज भी दिखा । एक स्टेशन की ओर से आती है। एक महिला कालेज होते गंगा की ओर जाती है। बाएं तिलकामांझी और दाहिना मेडिकल कॉलेज होते सबौर की ओर। इसी रास्ते में जेल भी है। गंगा छोड़ की ओर जाने वाली सड़क को आज की पीढ़ियां भले ‘सुन्दरवती महिला कालेज’ के कारण जानती हो; लेकिन गंगा छोड़ के बाएं हाथ भारत के दो ऐसे विभूतियों का आवास था उन दिनों, जो सरस्वती के वरदपुत्र थे – श्री शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, यानि शरत बाबू का घर और और सुधींद्र बाबू (सुधींद्रनाथ जी) का घर। दादामुनी यानी मुंबई फिल्म जगत के शहंशाह अशोक कुमार का जन्म इसी राजबारी में हुआ था अक्टूबर 13 सं 1911 को। खैर। 

भागलपुर में जो खादी में थे, वे अलग “गैस” में थे। जो खाकी में थे, उनका “गैस” में रहना स्वाभाविक ही था। सन 1979-1980 के दौरान भागलपुर शहर और जिले की गलियों में, सड़कों पर, खेतों में लोगों की आखों को फोड़कर, उसमें तेज़ाब डालकर ‘विश्व का जघन्य अमानवीय घटना’ को अंजाम नहीं दिया गया था । कहते हैं उस समय लड़कियों को उठाना, व्यापारियों का अपहरण, हत्या, लूट, बलात्कार जैसी घटनाएं रोजमर्रे की बात हो गई थी । पुलिस अपराधी को पकड़ भी लेती कभी तो बिना किसी गवाह अथवा सबूत के उन्हें उनको छोड़ना पड़ता था । किसी की हिम्मत नहीं थी बाहुबलियों के खिलाफ खड़े होने की। फिर पुलिस एक रास्ता अख्तियार की – पहले अपराधियों को पकड़ना, उसका आँख फोड़ना और फिर उसमें तेजाब डाल देना । यह परंपरा लगभग 2 साल चली और कोई 33 अपराधियों को इस तरह से सजा दी गई । सन 1979 से 1980 के बीच हुए अंखफोड़वा कांड का तब लोगों में ऐसा भय समाया हुआ था कि लोग विचलित हो गए थे। यह अलग बात थी की भागलपुर के लोग पुलिस के समर्थन में सड़क पर उतर गयी थी।  लेकिन लाल टोपी वालों को देख मोहल्ले के लोग भयभीत हो जाते थे, क्या पता पुलिस किसे उठा कर ले जाए और आंखें फोड़ दे। अपराधियों को ऐसी सजा – विश्व के इतिहास में पहला था। 

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इस घटना के कोई दस साल बाद भागलपुर एक बार फिर विश्व की नजर में आया। यहाँ साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। सारा भागलपुर दंगे में नेस्तनाबूद हो गया था। भागलपुर का कोई भी ब्लॉक ऐसा नहीं था जो दंगों से अछूता रहा हो। लगभग 200 गाँव, बारह हज़ार के आस-पास घरें, हज़ारों पॉवर लूम्स, हैंडलूम्स, मस्जिदों और मज़ारों को अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया। अंखफोड़बा काण्ड क्यों हुआ? इस कांड के बारे में किसे पता था? दस साल बाद दंगा क्यों हुआ? कौन थे इसके पीछे – यह सभी बातें तो स्थानीय पुलिस और प्रदेश और दिल्ली के राजनेता अधिक जानते हैं। न्यायालय चाहे भागलपुर का हो या पटना का या फिर दिल्ली का – उतना ही जान पाई या जान पाती है, जितना उसे बताया जाता है । लेकिन जो भी हो – पीड़ित/पीड़िता चाहे अंखफोड़बा काण्ड के हों या दंगा के – न्याय के लिए जीवन पर्यन्त गुहार लगाते रहे। आज भी लगा रहे हैं। वे रोते रहे, बिलखते रहे ‘न्याय’ के लिए; और “उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगा ” – इस दौरान सत्ता के गलियारे में “खादी धारियों” के चेहरे भी बदलते गए। कुछ नेता महादेव के शरण में अपनी उपस्थिति दर्ज किये, तो कुछ का स्थान युवकों ने छीन लिया। जो “खाकीधारी” थे, वे प्रदेश के अन्य जिलों के रास्ते कुछ अवकाश प्राप्त कर लिए, कुछ ईश्वर के दरबार में उपस्थित हो गए। 

बहरहाल, भागलपुर अंखफोड़बा काण्ड से सम्बंधित पहला रिपार्ट दिल्ली से प्रकाशित दी इण्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था। उस कहानी को लिखा था श्री अरुण सिन्हा जी। सिन्हा साहेब बेहतरीन लेखक और पत्रकार ज़माने में तो थे हीउ, आज तो उत्कर्ष पर हैं । वैसे देश में “सोच बदलो-देश बदलेगा” वाली बात सन 2014 के बाद आया, सरकारी दस्तावेजों पर ‘तस्वीर’ के साथ प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ और करोड़ों लोग इस ‘स्लोगन’ के ‘फॉलोवर्स’ बन गए। लेकिन ‘सोच’ में कोई ‘परिवर्तन’ नहीं दिखा, उसी तरह, जिस तरह सं 1861 में बने पुलिस ऐक्ट से आज भी भारत के 15,579 पुलिस स्टेशनों का सञ्चालन होता है। खाकी वर्दीधारी चलते हैं। यही कारण है कि इस 15, 579 पुलिस स्टेशनों में मात्र 79 स्टेशन ही ‘बेहतरीन’ पुलिस स्टेशनों की श्रेणी में दर्ज हो सका । चयन का कार्य सरकारी स्तर पर ही हुआ है। यह एक दृष्टान्त है। 

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फोटो: भागलपुर से शालीनी कुमारी जी के सौजन्य से

आर्यावर्त – दी इण्डियन नेशन अख़बारों से सिन्हा साहेब हिंद महासागर की गहराई तक परिचित हैं। सिन्हा साहेब यह जानते थे कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित दोनों अखबार दशकों पहले बंद हो गया। पटना में रहते समय उन अख़बारों के पत्रकारों से, सम्पादकों से अन्तःमन तक बातचीत किया करते थे वे । लेकिन जब वेबसाइट की बात सुने और यह भी सुने की यह वेबसाइट उन अख़बारों के संस्थापक को समर्पित है, जिन्होंने बिहार के लोगों को सन 1930-1940 से आवाज दिया, मूक-बधिर होने से बचाया, वे खुश भी हुए और पूछे भी: ‘कैसे चलाते हैं आप इसे? अर्थ तो आपके पास होगा नहीं? कोई मदद करता है या नहीं ? कहानियां आप लिखते हैं ……इत्यादि-इत्यादि। आपको बधाई। आपके हिम्मत को बधाई …..जब भी मेरी जरुरत महसूस करें, आपका स्वागत है।” सिन्हा साहेब का शब्द मुझे अश्रुपूरित कर रहा था। जिस समय सिन्हा साहेब पत्रकारिता में अपने उत्कर्ष पर थे, मैं कुछ माह पहले ही पटना की सड़कों पर अखबार बेचते पत्रकारिता में प्रवेश लिया था, साल सन 1975 था ।    
आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते अरुण सिन्हा कहते हैं: “यह (भागलपुर अंखफोड़बा काण्ड) सूचना सर्वप्रथम एसएनएम आबदी साहेब को मिला था। भागलपुर में रहने वाले उनके कोई एक महत्वपूर्ण परिचित एक पत्र के माध्यम से उन्हें सूचित किये थे। उस ज़माने में संवाद भेजने का दो ही रास्ता था – अगर फोन उपलब्ध है तो ट्रंक कॉल या फिर पत्र। आबदी साहब सूचना पाते ही भागलपुर के लिए निकल गए थे। सम्भवतः उस ज़माने के एक मात्र फोटोग्राफर कृष्ण मुरारी किशन भी उनके साथ गए थे। कलकत्ता के आनंद बाजार पत्रिका समूह के ‘संडे’ पत्रिका के लिए आबदी साहेब कहानी लिखते थे । ‘संडे’ पत्रिका में उन दिनों कहानियों की लम्बी कतार होती थी। आबदी साहेब भागलपुर पहुंचकर पीड़ितों से मिलकर, पुलिस से मिलकर, यानी प्रशासन के सभी अंगों से मिलकर विशालकाय कहानी अपने पत्रिका के लिए लिखे, प्रेषित किये। उन दिनों संडे पत्रिका में कहानियां बहुत पहले ली जाती थी ‘अग्रिम’ और कॉपी भी वर्तमान संस्करण के लिए शीघ्र बंद हो जाती थी। जब तक आबदी साहेब अपनी कहानी प्रस्तुत करते, तब तक वह संस्करण बंद हो गया था और प्रकाशन के स्तर पर थी पत्रिका । लाख चाहकर भी कुछ नहीं हो सका।” 

चालीस वर्ष पहले

अरुण सिन्हा कहते हैं: “परिणाम यह हुआ कि उनकी कहानी उस संस्करण में नहीं आ पाई। यही अंतर होता है पत्रिका और दैनिक समाचार पत्रों में। यह बात पटना में एक बैठक के दौरान मुझे मालूम हो गया। किसी के मुख से यह बात ‘लिक’ कर गया । एक दैनिक समाचार पत्र के रिपोर्टर होने के नाते मैं उसे नजरअंदाज नहीं किया और मैं तत्काल दिल्ली को सूचित कर भागलपुर निकल गया। फिर वहां पहुँचने पर पीड़ितों से, अधिकारियों से, स्थानीय लोगों से, नेताओं से, समाज के सभी तबकों के लोगों से मिला। अगले दिन इण्डियन एक्सप्रेस में यह कहानी बहुत ही प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुई। उन दिनों ही नहीं, आज भी ऐसी ‘अमानुषिक’ घटनाओं को कोई भी दैनिक अखबार, पत्रिका बहुत प्राथमिकता से प्रकाशित करता है। लेकिन दैनिक अख़बारों और साप्ताहिक या पाक्षिक पत्रिकाओं में समय का अंतर होता है। उनके पास अफरात समय होता है, मेरे पास नहीं। लेकिन यह कहानी आबदी साहेब की ही थी, यह मैं आज भी अन्तःमन से मानता हूँ। उन्हें ‘समय मात’ दे दिया, अन्यथा ‘संडे’ पत्रिका में जरूर प्रकाशित हुआ होता। मैं ‘समय को मात’ दे दिया और उनकी कहानी को ही आगे बढ़ाया। इसे हम “फॉलो-अप” कहेंगे। उसके बाद तो अगले तीन-चार महीनों तक यह सिलसिला जारी रहा।”  

सिन्हा साहब कहते हैं: “स्वतंत्र भारत में शायद भागलपुर का वह कांड पहला कांड रहा होगा, आज भी, जहाँ पुलिस के साथ वहां की जनता सड़क पर आ गयी। वहां के लोग पुलिस के उस क्रिया-कलापों को सराही थी । उस घटना के बाद आज तक कभी न तो ऐसी घटना हुई और ना ही, लोग पुलिस के पीछे खड़े हुए। उन दिनों भागलपुर के लोग अपराधियों से त्रस्त थे । अपराध के आंकड़े और ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा था। पुलिस की संख्या भी कम थी। दूसरे तरफ, अपराधी भी एक खास जाति और विचारधारा के थे। यह भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि अपराधियों को, चाहे छोटे हों अथवा बड़े, संरक्षण प्राप्त ‘नहीं’ था। यह संरक्षण ‘छोटे नेताओं’ का भी हो सकता था, ‘बड़े नेताओं’ का भी हो सकता था। उस समय पुलिस के पास भी कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। अगर अपराधियों को पकड़कर बंद भी करती थी तो क़ानूनी प्रक्रिया में अनेकानेक बाधाएं आती थी। परिणामस्वरुप अपराधी बाहर हो जाते थे। उस समय भागलपुर जैसे शहर में पुलिस द्वारा ऐसे निष्ठुर, क्रूर कदम उठाना शायद त्रादसी का पराकाष्ठा रहा होगा। पुलिस लोगों को, जिनकी थोड़ी भी आपराधिक गति-विधि थी, पकड़कर थाने में, राते के अँधेरे में, शांत गली में, स्थिर मोहल्ले में, बस्ती में आखों को फोड़कर, उसमें तेज़ाब डाल रही थी । खाकी बर्दी में लोग अमानुषिक, जघन्य अपराध कर रहे हैं। यह घटना शायद 1979 के पहले से चल रही थी। सन 1979 तक दर्जनों ऐसे हादसे हो गए थे। विभिन्न प्रकारों के अपराध खुलेआम हो रहे थे। अचानक हादसों की गति बढ़ गयी।”

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सिन्हा साहब कहते हैं कि “यह बात सही है कि जब पुलिस ऐसे निष्ठुर और क्रूर तरीकों का अख्तियार करने लगी, भागलपुर ही नहीं, आस-पास के इलाकों में, जिलों में अपराध और अपराधियों की संख्या स्वतः कम हो गई। बहुत सारे अपराधी शहर छोड़कर भी भाग गए। भागलपुर के लोग पहली बार पुलिस के इस रबैये का समर्थन किये। सड़क पर उतड़े। लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि जिनके साथ स्थानीय पुलिस ऐसी क्रूर हरकत की, वे एक साधारण आदमी थे, अगर अपराधी भी थे (थोड़ी देर के लिए मान भी लें) तो उनका अपराध का स्तर उतना ऊँचा नहीं था की उन्हें आँख फोड़कर उसमें तेज़ाब डाल दे। इतना ही नहीं, जो लोग पुलिस के इस घृणित कार्य के समर्थन में सड़क पर उतरे, उसका पीठ थपथपाये, वे कौन थे ? कहाँ से आये थे ? किस जाति या संप्रदाय के थे ? कौन उन्हें संरक्षण दे रहा था ? किसके कहने पर वे पुलिस का साथ दे रहे थे ? इस बात से सभी अनभिज्ञ रहे। न तो स्थानीय पुलिस, न प्रदेश की सरकार, न जांच एजेंसियां – किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्थानीय पुलिस का सम्पूर्णता के साथ भागीदारी तो था ही, उनके ऊपर के स्तर के लोगों का, समुदाय का, नेताओं की भागीदारी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। जो जांच – दोष और सजा से अछूता रह गया।”

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ब्रितानिया सरकार के ज़माने में, खासकर भारत की आज़ादी की लड़ाई को दमित करने के लिए ब्रिटिश सरकार सन 1861 में (अपने हित के लिए) जो पुलिस एक्ट बनायीं थी, उसका कोई 120 वर्ष होने वाला था । वैसे 22 मार्च, 1861 के पुलिस एक्ट के प्रस्तावना में लिखा था: “WHEREAS it is expedient to re-organise the police and to make it a more efficient instrument for the prevention and detection of crime”, लेकिन भागलपुर में “कुछ और हो रहा था”, जो पुलिस एक्ट के इस प्रस्तावना से भिन्न था और कहा जाता है कि इसकी जानकारी तत्कालीन राजनेतओं को, राजनीतिक गलियारों में सफ़ेद वस्त्र धारियों को पता भी था । 

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अरुण सिन्हा कहते हैं: “जितने भी नियम हैं, जिसके आधार पर पुलिस अपना  कार्य करती है अथवा करनी चाहिए, वह ‘प्रिवेंशन’ और ‘कर्व’ पर आधारित होना चाहिए। अपराध को उक्त नियमों के तहत रोकें, अपराध की दुनिया में कोई आदमी प्रवेश नहीं करे, समाज में ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, समाज में अपराध नहीं बढे, इसलिए उन सभी कारणों पर ध्यान देना चाहिए, अपराधों की रोक-थाम के लिए जो भी तरीके हों, उसका अनुपालन करना चाहिए – न की अपराध ख़त्म करना है तो अपराधी को ही ख़त्म कर दो। भागलपुर में भी कुछ वैसा ही हुआ था जो एक व्यवस्थित तरीके से, सोची-समझी साजिश के तहत संपन्न हो रहा था। जिला के शीर्षस्थ पुलिस अधिकारी, जिनके जिम्मे पूरे जिला का शासन-व्यवस्था हो और वह यह कहे कि हमको मालूम नहीं था की पुलिस आँख फोड़ रही है, उसमें तेज़ाब दाल रही है … फिर तो पुलिस का होना, नहीं होना कोई अर्थ नहीं रखता…बेकार है। पुलिस अधीक्षक, पुलिस उपाधीक्षक, पुलिस उप-महानिरीक्षक स्तर के सभी अधिकारियों को इसकी जानकारी थी लेकिन रोकना कौन चाहते हैं, कौन नहीं यह करोड़ों का प्रश्न था। अगर रोकना चाहते तो ऐसी कुकृति होती ही नहीं। सभी इस कार्य में शामिल थे। सभी पेट्रोनॉइज़ कर रहे थे।”

अरुण सिन्हा आगे कहते हैं: “भागलपुर की पुलिस जिस तरह 33 लोगों की आँखों को फोड़कर, उसमें तेज़ाब डालकर, उनके जीवन को अन्धकार बना दिया, उनके परिवारों को सार्वजनिक रूप से सड़कों पर ला दिया; इस सम्पूर्ण अपराध को ‘मानवीय दृष्टि’ से अधिक देखा गया। जबकि इन घटनाओं को, घटना में लिप्त पुलिसकर्मियों को ‘क्रिमिनल’ समझकर न्यायपालिका को देखना चाहिए थे। न्यायपालिका यह देखने लगी की जिनके साथ यह घटना घटी है, उनके डाक्टरी जांच हुई या नहीं, आखों पर पट्टी बंधा या नहीं, दवाई लिखा गया या नहीं, दवाई खाया या नहीं …… क्या यह कार्य न्यायपालिका का है ? यानी सभी ‘चेरिटेबल एंगल’ से अपराध और अपराधी को देखने लगे। जो वास्तविक अपराधी था, उसके विरुद्ध जो कार्रवाई होनी चाहिए थी, अपेक्षा से बहुत कम हुई। बाद में जब यह मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो के पास आया, मुकदमा दाखिल हुआ।कोई 15 पुलिस अधिकारियों को आरोपित बनाते हुए न्यायिक कार्रवाई शुरू हो गई, जिसमें से 14 पुलिस पदाधिकारी ने आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ लोगों को सजा हुई। लेकिन चुकी पूरे प्रकरण में ऊपर से नीचे तक अधिकारी से नेता तक शामिल थे, बहुत लोग एक्विटेड हो गए। जिनकी आँखें चली गयी उनके जीवन के सामने अन्धकार छा गया; उनकी फरियादों को भारत के ‘विधि निर्माताओं’ से लेकर ‘विधि अनुपालकों के रास्ते’ देश के न्यायिक व्यवस्था में “समग्रता के साथ क़ानूनी-रूप” से नहीं देखा गया, जांचा गया, परखा गया; बल्कि “मानवीयता” दिखाकर संविधान के तहत प्रदत उनके अधिकारों से उन्हें वंचित रखा गया।”

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जिस समय यह घटना घट रही थी, उस समय रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री थे। राम सुन्दर दास 21 अप्रैल, 1979 को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए थे और 17 फरवरी, 1980 तक कुल 302 दिन विराजमान रहे। उस समय तक यह जुल्म प्रारम्भ हो गया था कमोवेश, लेकिन प्रकाश में नहीं आ पाया था। फरवरी 17, 1980 से राष्ट्रपति शासन लगा और शासन  8 जून, 1980 को समाप्त हुआ, जब प्रदेश का कमान डॉ जगन्नाथ मिश्र के हाथों आया। इन दिनों भागलपुर में आँख फोड़ने और उसमें तेज़ाब डालने की प्रक्रिया चल रही थी। खासकर जब प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था, पुलिस की शक्ति भी उत्कर्ष पर थी, जिसका फायदा उसने उठाई थी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति ने पुनर्वास के लिए भी आदेश दिए। पीड़ितों के नाम से 30-30 हज़ार रुपये स्टेट बैंक में जमा कराये गए और मुआवजे के तौर पर उन्हें, उनके परिवार को 750/- रुपये प्रतिमाह देने का आदेश दिया गया। मानवीय दृष्टि से वह सब कुछ हुआ – परन्तु वह नहीं हुआ जो होना चाहिए था – क़ानूनी तौर पर न्याय यानी अपराधियों को सजा देना कानून का काम है लेकिन अपराधियों के लिए खुद के हाथों में अपराध लेना, ये कहीं से उचित नहीं है। 

अरुण सिन्हा कहते हैं: “भागलपुर की अमानवीय घटना जब उत्कर्ष पर थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पटना आई थी। इंदिरा गांधी भागलपुर की घटना के कारण बहुत दुखी थी। उनके देश का नाम विश्व के पटल पर कलंकित हो रहा था। विश्व के शीर्षस्थ नेता उनसे पूछ रहे थे। इंदिरा गांधी भागलपुर की घटना को देश के साथ जोड़ रही थी। उनके लिए यह घटना देश की प्रतिष्ठा को दाव पर लगा दिया था, कलंकित कर दिया था। भारत का नाम बदनाम हो गया था। पटना एरोड्रोम पर डॉ मिश्र को बहुत फटकार लगा। वे उन्हें अपने साथ बैठने तक नहीं दीं। हवाई जहाज में चढ़ने तक नहीं दीं। एरोड्रोम पर पत्रकारों की संख्या भी बहुत कम थी। जैसे ही डॉ मिश्र मुझे देखे जोर से कहने लगे… …बाप रे बाप ….क्या कर दिया आपने ? जगन्नाथ मिश्र की सोच अपने प्रदेश तक सीमित थी। उन्हें अपनी कुर्सी की चिंता थी। उधर भागलपुर की पुलिस की सोच प्रदेश के राजनीतिक और भौगोलिक सीमा तक सीमित था और न्यायालय तो चेरिटेबल एंगल से सम्पूर्ण घटना को देख ही रहा था। कुल मिलाकर सभी अपने-अपने दृष्टि से घटना को देख रहे थे। कोई बदनामी की नजर से तो कोई राजनीती की नजर से। लेकिन “कानून” में उद्धृत नियमों के तहत दोषियों को कड़ी-से-कड़ी सजा हो, कोई नहीं सोचा रहा था, कोई नहीं देख रहा था ।”   

क्रमशः

1 COMMENT

  1. इस श्रृखला को “फोटावाला” क्यो नाम दिया गया है। पता नहीं। पुरिकाहनी में fhotowala कहीं है है नहीं।
    मैं तीन चार शृंखला पड़ी। हरेक का ये ही हाल है । आर्टिकल का नाम है फोटोवाला। लिखा कुछ दूसरा ही जा रहा है। फोटॉवाला को जगह नहीं दिया जा रहा है।

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