साइकिल बनाने वाले द्वारकाजी नहीं जानते थे कि उनके दोनों बेटे भारत की फोटो-पत्रकारिता में अमिट इतिहास लिखेगा (बिहारका फोटोवाला:श्रृंखला-7: कृष्णमोहन शर्मा को श्रद्धांजलि) 

मेरा नमन स्वीकार करना मोहन !!!

पटना: भारत के तत्कालीन राजनेताओं को ब्रितानिया सरकार के आला अधिकारियों के हाथों “सत्ता के हस्तांतरण” के कोई चार-छः वर्षो के बाद पटना के दरियापुर गोला के नुक्कड़ पर तत्कालीन युवक “द्वारका विश्वकर्मा” के घर में दो पुत्र रत्नों का आगमन हुआ। विश्वकर्मा बाबू तत्कालीन समय के बेहरीन यातायात के साधन “साईकिल” का अस्थि-पंजर बनाने में महारथ थे । छेद बंद करते थे। तेल मालिस कर उसे पटना की तत्कालीन सड़कों पर दौड़ने योग्य बनाते थे। वे एक साईकिल मिस्त्री थे और घर के बहार वाले कमरे में अपनी एक छोटी सी दूकान से घर-परिवार का भरण पोषण करते थे और अपने, अपने परिवार में, कुटुम्बों में, समाज में सम्मानपूर्वक जीवन यापन करते थे। उस ज़माने में द्वारका साहेब अपने नाम के आगे उपनाम में “विश्वकर्मा” इसलिए नहीं लगाए थे कि उन्हें सरकारी नीति के तहत कोई सुख-सुविधा हड़पनी है । 

देश गुलाम था जब द्वारका जी का जन्म हुआ था। द्वारका जी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनका दोनों बेटा आने वाले समय में पटना ही नहीं, मगध ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में, जो भी बिहार से सम्बंधित समाचार पढ़ेंगे, तस्वीरें देखेंगे, वे उनके दोनों बेटों को “शक्ल” से ना सही, नाम से जरूर पहचानेंगे। अर्थ से भले दरभंगा के महाराजा के छोटे भाई के वंशज जैसा धनाढ्य नहीं हो; लेकिन नाम और शोहरत इतना अर्जित करेगा कि दरभंगा राज की वर्त्तमान पीढ़िन भी बौना दिखेगा। दोनों बालक अपने-अपने कर्मों से अपने पिता को इतना अधिक यशस्वी बना देगा कि उनके देहावसान के बाद भी उनका पार्थिव शरीर या उनकी चिता गौरव से इतनी ऊंचाई को छुएगा, जिसे छूने के लिए शायद जीते-जी भी लोगों को मुद्दत, दशक और शताब्दी भी लग जाएगी। कहते हैं इतिहास तो गरीब ही लिखता है और दरियापुर वाले द्वारका बाबू अपने दोनों बेटे रूपी कलम से भारतीय न्यूज फोटोग्राफी और पत्रकारिता के क्षेत्र में इतिहास रच दिया। 

साठ के दशक के उत्तरार्ध और सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों के रास्ते मध्य दशक तक पटना की सड़कों पर मन ही मन हिन्दू-मुस्लिम-सिख-जैन और ईसाई धर्म के प्रवर्तकों और रक्षकों को प्रणाम करते काजीपुर मोहल्ला के दाहिने हाथ मुसल्लहपुर हाट की ओर से आने वाली सड़क, जो दाहिने-बाएं-ऊपर-नीचे-तिरछी होती पटना के कई ऐतिहासिक मुहल्लों को पार करती, ऐतिहासिक सड़कों को बीच से दो-फांक करती, पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन की और निकलती थी, आज भी मानस पटल पर छपा है। काजीपुर मोहल्ले से पटना जंक्शन पहुँचने का दो रास्ता था – एक: या तो वायें हाथ हो लें।गली-कूचियों में कूड़े के अम्बारों को लांघते, प्रत्येक घरों से गली की ओर खुलने वाले कमाऊ-पैखानों से “टप-टप” गिरते पानी और मल-मूत्रों का दर्शन करते, नाक पर रुमाल रखते वैतरणी पार कर, सरकारी आवास वाले परिसर को पार कर, राजेंद्र नगर गोलचक्कर पर पहुँच जायँ और फिर आर्य कुमार रोड के रास्ते स्टेशन की ओर बढ़ें। कुछ दूर चलते ही सड़क के बीचो बीच हनुमान जी को प्रणाम करें। कुछ और आगे बढ़ने पर मुंबई गए लालाजी के पीले रंग के मकान में सड़क की ओर एक ऐतिहासिक घड़ी को देखकर समय का समय, प्रदेश का समय और अपना समय मिलाते आगे बढ़ें। उन दिनों उस सड़क पर बहुतों का समय, धड़ी की सूई की रफ़्तार में ही सही, बदल रही थी। मुंबई के चर्चित”खामोश” के कंठ के ख़ामोशी नहीं, बल्कि ”गर्जन” जैसा आवाज मुंबई से लेकर पटना के छवि गृहों में चिचिया रहा था। उन दिनों खामोश को सभी सम्मान के साथ देखते थे। आज की बात नहीं करूँगा। आर्य कुमार रोड आगे चलकर बारी पथ से टकरा कर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेता था। इस तिमुहानी पर उन्ह दिनों एक धर्मार्थ संस्था – ब्रह्मकुमारी – का विशालकाय बोर्ड लगा होता था, जो बाद में एक अखबार के दफ्तर के रूप में परिवर्तित हुआ और फिर बंद हो गया। 

कृष्णमोहन शर्मा (बाएं से तीसरा)

एक रास्ता होता था जब हम काजीपुर से दाहिने हाथ गलियों से निकलकर नयाटोला सड़क पर आ जाते थे। काजीपुर से नयाटोला आते समय उन ऐतिहासिक खुले शौचालयों का दर्शन करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था। हाँ, गंगा में भी मेढ़क होता है। कहीं-कहीं टप-टप दिख जाता था। इसलिए अधिकांश लोग इसी रास्ते का चयन करते थे। यह अलग बात थी कि तत्कालीन प्रशासन के लोग, राज नेतागण, मुख्यमंत्री कार्यालय में कार्य करने वाले कामगारों से लेकर विधान सभा और विधान परिषद् में बैठने वाले सदस्यों के लघु शंका के बराबर भी अगर बारिस हो जाती थी, अथवा किसी कारण वश लोग बाग़ कूड़ेदान तक नहीं पहुंचकर बनारस की गलियों की तरह सीधा कूड़ा गलियों में फेंकते थे, वैसी स्थिति में बिल्ली के माथे के बराबर बहने वाली नालियां उन कूड़ों की मात्रा को पानी के वेग के साथ आगे नहीं ले जा पाता था। परिणामस्वरूप गली में गोता लगाने लायक पानी का जमाव हो ही जाता था। चाहे महिला हो या पुरुष, सभी को घुटने, ठेहुना तक अपने वस्त्रों को उठाकर ही वैतरणी पार करना होता था। 

उन दिनों हम, लोग जैसे छोटे-छोटे बच्चे जो चड्डी या हाफ पैंट पहनते थे, कोई तकलीफ नहीं होती थी। छप – छप करते, पानी में दीर्घशंका के रूप में मानव मल के साथ फुटबॉल खेलते निकलते जाते थे। अधिक-से-अधिक घर पहुँचने पर माँ दो-चार चांटा रसीद देती थी। वह जानती थी की बदमाश कोई नहीं है, बस, बदमाशी करता है। मुझे उम्मीद है कि आज भी काजीपुर की गलियों में कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ होगा। संभव है खुले पैखाने बंद हो गए होंगे, लेकिन खुली नालियां आज भी बहती होगी सम्मान के साथ और आज भी पानी का जमाव गली के नुक्कड़ पर होता ही होगा। लोगबाग भले अपने शरीर पर, वस्त्रों पर ‘इत्र और फरफ्यूम’ लगाकर आते-जाते हों; पानी के जमाव के कारणआज भी वे सभी अपना वस्त्र उसी तरह उठाते होंगे या फिर चुपचाप रास्ता बदल कर चलतेहोंगे। कहते हैं मूक-बधिर होने से करोड़ों गुना बेहतर है ‘तुतलाकर’ ही सही,’हकलाकर’ ही सही बोलिये जरूर – लेकिन पटना ही नहीं, बिहार के मतदाता सिर्फ चुनावकाल में ही बोलते हैं, वे भी अपने पार्टी के नेता के लिए। फिर चुप। अगर बोलते तो शायद बिहार आज ऐसा नहीं होता। 

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काजीपुर मोहल्ला महज एक दृष्टान्त था और है भी। पटना के अशोक राज पथ का कुछ इलाका जिसकी मिट्टी चन्द्रगुप्त मौर्य के समय, मुगलों के समय, अंग्रेजों के समयकाल में तनिक ऊँची थी, सैकड़ों शताब्दी बीतने के बाद भी नीचली सतह की ऊंचाई बढ़ नहीं सकी। अलबत्ता सम्पूर्णता के साथ लोगों की मानसिकता, चाहे मतदाता हों या नेता हों या फिर अधिकारी, पानी की धार की तरह नीचे की ओर ही उन्मुख ही हुई है। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रदेश के अब तक 24 मुख्यमंत्रियों में बिहार के लोग तीन-चार मुख्यमंत्रियों को ही क्यों जानते? अधिकारियों की तो बात ही नहीं करें। जैसे तेरहवीं के बाद लोग बाग़ अपने सम्बन्धियों, कुटुम्बों को, यहाँ तक की माता-पिता को भी भूल जाते हैं, उनका देहावसान की तिथि भी याद नहीं रहता; अधिकारियों को भी भूल जाते हैं। कुछ अधिकारी ऐसे हैं तो “मार्ग” बदल लेते हैं और “बजरंगबली” के भक्त हो जाते हैं। खैर। 

छाया: कृष्णमोहन शर्मा

उन दिनों पटना के लालजी टोला मोहल्ला में मेरी माँ की एक बहन रहती थी और अक्सर हां (सप्ताह में कम से कम तीन दिन) या तो माँ के साथ, अथवा अकेले ‘हवाई चप्पल’ को चट -चट करते, सड़कों को पैर से पीछे धकेलते, चप्पल और पैर के चमड़े को घिसते आगे बढ़ते रहते थे। आम तौर पर हम दाहिने हाथ का रास्ता ही लेते थे। नयाटोला में ऐतिहासिक खजांची रोड तिमुहानी को फांदते, फिर मछुआ टोली तिमुहानी को लांघते, सब्जी बाजार में कोभियों के दुर्गन्ध को सूंघते आगे बढ़ते थे। आगे यह रास्ता दो फांक में बंट जाता था। एक ऐतिहासिक सब्जीबाग की और उन्मुख होता था और दूसरा पटना कॉलेजिएट स्कूल होते, दाहिने हाथ पर नीम के बृक्ष के नीचे एक मंदिर को प्रणाम करते आगे बढ़ता था। इसी पटना कॉलेजिएट स्कूल के कुछ विद्यार्थी पटना के वर्तमान सात-मूर्ति के सामने अपने सात मित्रों के साथ अंग्रेजी हुकूमत को भागने के लिए पटना सचिवालय पर तिरंगा लहराना चाहते थे। वैसे सातों छात्र सफल नहीं हुए और एक अलग छात्र तिरंगा लहराया। लेकिन सभी सात छात्र बन्दूक की गोलियों को अपने सीने पर स्वागत कर मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग अवश्य किये। यह बात भी अलग है कि आज बिहार के 90 से अधिक फीसदी लोग उन क्रांतिकारियों और शहीदों के आज के वंशजों को नहीं जानते हैं। इस 90 फीसदी में पटना विधान सभा और विधान परिषद् में बैठने वाले सफेदपोश नेताओं को सम्मिलित करना नहीं भूलेंगे।  

इस मंदिर से कुछ पचास कदम आगे एक और पड़ोसी मंदिर था। यहाँ बाबा हनुमान जी बैठे रहते थे। हनुमान जी उन दिनों एक प्रकार से आज के यातायात पुलिस जैसा थे। यातायात की देखरेख तो करते ही थे, सड़क को भी दो फांक में विभक्त कर दिए थे। एक बाएं और दूसरी दाहिने जो हथुआ मार्केट होते, बाकरगंज के रूपक सिनेमा हॉल में सिनेमा देखते, पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान से मिलती थी। उन दिनों रिक्शा, साईकिल के अलावे सड़कों पर वाहनों की संख्या तिलचट्टों जैसी नहीं थी। वजग भी था – गरीबी। प्रदेश में पांच-छः आम चुनाव और विधानसभा चुनाव होने के बाद भी, गरीब ‘अमीर’ नहीं बन पाया था। ‘मड़ुआ रोटी’ से दोनों समय ‘गेंहू की रोटी’ पर नहीं पहुंचा था। पानी जैसा मसूर दाल से अरहर और चना चाल पर छलांग नहीं लगाया था। उसना चावल, वह भी सरकारी सस्ते दूकान से बासमती चावल को दांत के नीचे नहीं दबाया था। अलबत्ता नेतागण, अधिकारी लोगों का कित्ता-दर-कित्ता मकान, मोटर गाड़ी दिख रहा था। नए-नए कालोनियों में फलाना मंत्री, चिलाना अधिकारी का मकान रातो-रात भूमि पूजन के साथ ही मंगल ग्रह पर पहुँचने लगता था। खैर, मुझ जैसा गरीब आदमी कर ही क्या सकता था। माँ कहती थी – दूसरों की संपत्ति को मिट्टी समझना, चाहे दरभंगा के राजा या जमींदारों का ही क्यों न हो । उसे देखकर खुश जरूर होना, लेकिन लालच नहीं करना। अपनी मेहनत और विश्वास पर डटे रहना। और माता-पिता यानी प्रकृति और ब्रह्माण्ड तो कभी गलत होते नहीं। 

इसी बजरंगबली के पीछवाड़े बाएं हाथ पर कोई दस कदम आगे एक पतली सी गली मुड़ती थी, जो आगे पटना नरेश और मुंबई के खामोश यानी लालजी यानी शत्रुघ्न सिन्हा के घर के पास निकलती थी। कुल मिलाकर और किसी भी रास्ते का अख्तियार करें, मंजिल पटना रेलवे स्टेशन ही होता था। माँ ही नहीं, मेरे अदृश्य गुरुवर दिवंगत हरिवंश राय बच्चन भी कहते थे, लिखे थे-  मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला – हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला – ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला। हम सभी पटना कीसड़कों पर अपनी मेहनत से अपने जीवन का, अपने भविष्य का इतिहास लिख रहे थे ताकि आने वाले समय में हमारी अगली पीढ़ी को अपने पूर्वजों पर, माता-पिता पर, अपने दादा-दादी पर नाज हो, फक्र हो। 

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छह हिंदुस्तानी! कृष्ण मोहन शर्मा, नवेन्दु, पवन, श्रीकांत, प्रणव चौधरी और डॉ अजित प्रधान।

इसी गली, जिसे पटना के भौगोलिक इतिहास में ‘दरियापुर गोला’ के रूप में जाना जाता है; के प्रवेश के साथ दाहिने हाथ कोने पर खुली जमीन थी। यह जमीन किन्ही महाशय का था, जहाँ निर्माण कार्य नहीं हुआ था। दाहिने हाथ पर पहले एक झोपड़ी नुमा मकान हुआ करता था, जिसके दरवाजे आसमानी रंग का होता था। दरवाजे लकड़ी के कई बराबर तख्तों से जुड़कर बना होता था, जिसे खोलने पर प्रत्येक तख्ता एक-दूसरे से चिपक जाता था – स्नेह से, प्रेम से, सम्मान से ताकि कभी अलग नहीं हों।एक छोटे टीन (अल्युमिनियन) पर लिखा होता था “विश्कर्मा निवास” – यह घर महज एक घर नहीं था। यह वास्तव में “विश्वकर्मा”का ही घर था। आज भी है। क्योंकि इस घर के मालिक श्री (दिवंगत) द्वारका विश्वकर्मा शायद यह नहीं जानते थे कि इस घर की मिटटी में पलकर, बढ़कर जो बच्चा दरियापुर गोला की सड़क पर कदम रखेगा, वह अर्थ से जो भी हो भविष्य में, भारत ही नहीं विश्वके लोग उसेउ सके नाम से, उसके शोहरत से जानेंगे, पहचानेगे। उसे अपने व्यक्तित्व की, पहचान की किल्लत कभी नहीं होगी।इसी घर में द्वारका विश्वकर्मा साहेबके दो पुत्र और परिवार रहता था। उनके पुत्रोंका नाम था – कृष्ण मुरारी किशन और कृष्ण मोहन शर्मा। विश्वकर्मा साहेब अपने दोनों पूर्वको “कृष्ण”शब्द से अलंकृत किये। एक मुरारी बना और एक मोहन। 

अपनी मौसी के घर लालजी टोला अथवा स्टेशन जाते समय अक्सर हां उस खाली स्थानके कोने पर कई बच्चों के साथ एक बालक भी बैठा होता था । वह गेहूं के बोरीको दो-तह में मोड़कर बैठता था। सामने एक लकड़ी के पीढ़ी नुमा  मेज पर,  कुछ बोतलें भरी होती थी।कुछ बोतल में “किरासन”तेल. तो किसी में “तीसी”का तेल होता था। एक “फुच्की” सा मापक। यह तेल का प्रयोग संध्या और रात्रिकाल में सड़कों पर चलने वाले रिक्शा के अगली हिस्से में जलती ‘ढिबरी’ में किया जाता था। यहाँ बैठा होता था”मोहन” और उसके साथ गली के कुछ बच्चे। मोहन यानी “कृष्ण मोहन शर्मा” पटना से प्रकाशित दी टाईम्स ऑफ़ इण्डिया समाचार पत्र का छायाकार – जो पटना की सड़कों पर अपनी जीवन का इतिहास अपने कैमरे से लिखा और लिखते लिखते अपने जीवनका अंतिम सांस भी लिया। कैमरे का शटर भी क्लिक-क्लिक करते बंद हो गया । आज, संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से जारी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के रिपोर्ट  के   अनुसार  भले ही प्रदेश के राजनीतिक राजा-महाराजाओं के, हुक्मरानों को सुकून की सांस लेने का अवसर देता हो लेकिन आज भी बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है। आज भी गरीबी उतनी ही है। बस कृष्ण मोहन शर्मा जैसा लड़ाकू नहीं है फोटो-जर्नलिस्ज्म के क्षेत्र में। 

एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के तीन मानकों के 10संकेतकों पर आधारित एक तथ्य और भी चौंकाता है कि बिहार के 38 जिलों में से 11 जिलेऐसे हैं जिसमें 10 में से 6 लोग गरीब हैं। यह जिले मुख्यतया उत्तर बिहार में है औरअररिया व मधेपुरा में गरीबों की यह संख्या बढ़कर 10 में 7 हो जाती है। देश के 640जिलों में से वैसे जिले जहां 60% गरीब है, ऐसे जिलों की आबादी करीब 4 करोड़ है। इन4 करोड़ लोगों में से आधे से ज्यादा ( 2 करोड़ 80 हजार) लोग बिहार के इन्हीं 11जिलों में रहते हैं। करीब 1 करोड़ 60 हजार उत्तर प्रदेश में तो शेष छत्तीसगढ़,गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में रहते हैं। गरीबी का प्रमुख कारण कुपोषण, 6 वर्ष से कम की स्कूली शिक्षा है हालांकि पेयजल, स्कूलों में उपस्थिति और शिशु मृत्यु दर सरीखे मानकों में काफी सुधार हुआ है। राज्यों में सबसे अधिक सुधार झारखंड में हुआ है। सुधार के मोर्चे पर झारखंड से थोड़ा ही पीछे हैं अरुणाचल प्रदेश, बिहार,छत्तीसगढ़ और नागालैंड। इसके बावजूद बिहार सर्वाधिक गरीब राज्य है जहां आधी आबादी गरीब है।
 
केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे और बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के प्रदेश में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधा पटना के वरिष्ठ छायाकार कृष्ण मोहन शर्मा के लिए बेकार सिद्ध हुआ। कृष्ण मोहन, जिन्होंने न जाने कितने लाख “क्लिक-क्लिक” बटन दबाएं होंगे सत्तर के दशक से इन छात्र नेताओं को प्रदेश और राष्ट्र का नेता बनाने के लिए – विगत साल पटना ऐम्स में अंतिम सांस लिए। बिहार का शायद ही कोई नेता होगा, चाहे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ही क्यों न हो, जो मोहन को नहीं जानते होंगे। उन्हें बुखार था और सांस लेने में तनिक कठिनाई भी हो रही थी। अस्पताल में एडमिट होने से कुछ दिन पूर्व वे अपना कोरोना का टेस्ट भी कराये थे, जिसमें निगेटिव परिणाम आया था। मृत्यु के तीन दिन पहले वे पुनः बुखार से पीड़ित हुए। एम्स में उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। लेकिन वे बच नहीं पाए।  अपने पीछे अपनी विधवा, दो बेटी और एक बेटा छोड़ गए हैं।

दफ्तर में जन्मदिन मानते मोहन 

मोहन पटना के टाइम्स ऑफ़ इंडिया अखबार से दसकों से जुड़े थे। टाइम्स से पहले वे जनशक्ति अखबार में थे। मोहन को अपनी अंतिम यात्रा पर निकलने से दो दिन पहले मैं उसे फोन किया था। बातचीत किया था। वह अस्पताल जा रहा था। जब मैं पूछा कि अगर सांस लेने में दिक्कत हो रही है तो ‘कोरोना टेस्ट’ जरूर करा ले।  मैं जब फोन किया था तो मोहन मोबाईल की तीसरी घंटी बजते ही दूसरे छोड़ से आवाज आया – का रे शिबू (शिवनाथ) !!!  दोनों काफी देर बातचीत किये। एक दूसरे के परिवार, पत्नी, बच्चों के बारे में भी बात किये।  उस दिन मैं फोन पर बताया कि मैं आर्यावर्तइंडियननेशन(डॉट)कॉम नाम का एक समाचार वेबसाइट लाया हूँ। यह सुनते ही वह कहता है:  “शिवू, मेरे पास कुछ तस्वीरें हैं पुराने भवन का, संस्थान के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक दिवंगत कुमार शुभेश्वर  सिंह का क्रिकेट खेलते हुए, और कुछ नेताओं से मिलते; मैं ढूंढकर मेल कर दूंगा बहुत बेहतर काम किये उस ऐतिहासिक नाम को जीवित करने कोशिश किये। वैस मिथिला में झौआ सब मिलकर खा गया उसे, मालिक भी कमजोर था। आज तो सभी मिटटी में मिल गया।” लेकिन न मुझे मालूम था और न ही उसे – यह वार्तालाप इस पृथ्वी पर हम दोनो की अंतिम थी, दोनों छोड़ से। 

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मोहन पहले पटना से ही प्रकाशित “जनशक्ति” अखबार में कार्य करता था। लेकिन जब टाइम्स ऑफ़ इण्डिया का पटना संस्करण आया तब मोहन टाईम्स ऑफ़ इंडिया का हो गया। कोई दो दशक से भी अधिक समय तक इस अखबार के लिए कार्य किया। बिहार का शायद ही कोई जिला होगा जहाँ वह अपने कैमरे के साथ पहुंचा नहीं हो। प्रदेश में दो दर्जनों से अधिक नरसंहारों में शायद वह पहला छायाकार होता था, जो तस्वीरों के लिए वहां पहुँचता था। अपनी तस्वीरों से सैकड़ों नेताओं, अधिकारियों को ‘ब्लेक एण्ड व्हाइट’ किया। लेकिन जैसे ही उसकी सांस रुकी, आँखें बंद हुई – सभी अपने-अपने रास्ते लिए। कोई फोन पर सांत्वना दिए तो कोई सोशल मीडिया पर RIP लिखे। बिहार के लोग इससे अधिक कर भी क्या सकते हैं ?

सुशील मोदी, जिन्हे छाप -छाप कर नेता बनाये

मोहन के साथ मेरा ताल्लुकात उसी ज़माने से था। जब 1975 में आर्यावर्त-इण्डियन नेशन पत्र समूह में अपने सेवा प्रारंभ किया और पत्रकारिता सिखने सड़क पर उतरा, मोहन के साथ सम्बन्ध बढ़ता गया। आज मोहन के 28-वर्षीय पुत्र राहुल शर्मा से बात किये ,अपने पिता के बारे में, अपने दादाजी के बारे में, अपने बड़े पापा (कृष्ण मुरारी किशन) के बारे में दशकों पुरानी बातों को सुनकर कभी ‘स्तब्ध’ हो रहा था तो कभी उसके कंठ अवरुद्ध हो रहे थे। कभी साँसे तेज चलने लगती थी तो कभी कुछ पल के लिए बोलना भूल जाता था। ऐसा लग रहा था कि उसके पिता उसके समीप हों और मेरी बातों को सुन रहे हों। कभी मुझे देख रहे हों तो कभी अपने एकलौते पुत्र को। पुत्र के मन में, चेहरे पर विश्वास की रेखाएं गहरी थी। कृष्ण मोहन अपनी विधवा श्रीमती अनीता शर्मा के अलावे दो पुत्री नीता शर्मा और प्रीति शर्मा और एक पुत्र राहुल को छोड़ गए। नीता और प्रीति की शादी हो गयी है। मोहन खुद करा कर गए। आर्यावर्त इण्डियन नेशन से बात करते राहुल कहते हैं: “आज भी दरवाजे का रंग वही है जो दादाजी के ज़माने में था। पापा के बारे में, बड़े पापा के बारे में अब तो बताने वाला भी कोई नहीं है। दोनों का आज भी कइल लाख निगेटिव हैं जो एक धरोहर है। हम लोगों की कोशिश जरूर होगी कि बड़े पापा और पापा के उस धरोहरों को एक दस्तावेज में परिवर्तित करें।” 

राहुल आगे कहते हैं: मैं हैदराबाद के एक शैक्षणिक संस्थान से सिविल इंजीनियरिंग की पढाई किया। पापा चाहते थे की मैं अभियंता बनु। लेकिन घर के माहौल के कारण मैं अपने आप को फोटो की दुनिया से अलग नहीं रख सका। मैं वहीँ हिंदुस्तान टाइम्स में काम करने लगा। जब यह बात पापा को मालूम हुआ तो वे कहे की वहां क्यों, यहाँ आ जाओ। मैं नहीं जानता था कि समय क्या चाह रहा है। मैं 2015 से ही टाईम्स ग्रुप में काम करने लगा। समय-समय पर फ्रीलांसिंग फोटो भी करता था। पापा जान अवकाश ग्रहण किये तो तत्कालीन संपादक उन्हें वापस बुला लिए और कहे कि जब तक चाहो काम करो। पापा वही किये। लेकिन ईश्वर कुछ और चाहता था। आज पापा नहीं हैं। उनकी बहुत याद आती है। मैं रोने लगता हैं . बहुत प्यार करते थे हम सभी को। पापा के जाने के बाद उनके स्थान पर टाईम्स ऑफ़ इण्डिया सम्पादकीय में मुझे स्थान मिला है, लेकिन अभी भी फोटो के आधार पर ही भुगतान होता है – 200-/ रुपये प्रति फोटो। किसी दिन दो फोटो प्रकाशित होता है तो किसी दिन कुछ भी नहीं। स्थानीय संपादक मेरे बारे में दिल्ली से कहे भी हैं ताकि मेरी नौकरी पक्की हो जाए जिससे मैं अपनी माँ को, परिवार को देख सकूँ। शेष क्या होगा, कुछ नहीं जानता।”
  

मोहन अपनी पत्नी के साथ

आज की फोटो-जर्नलिज्म में दिवंगत कृष्ण मोहन शर्मा की विधवा श्रीमती अनीता शर्मा और उसका पुत्र “राहुल शर्मा” एक दृष्टान्त हैं । हमें पत्रकारिता में, चाहे लेखन की पत्रकारिता हो या फोटो की – इंसानियत को जीवित रखना होगा अपने जीवन का उत्सर्ग करने के बाद भी। आज पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाले संस्थाओं को अपने कर्मचारियों को, उनके परिवारों को मानवीयता की नजर से देखना होगा – क्योंकि सिर्फ मानवीय कहानियों के बल पर पाठकों का विश्वास नहीं कमाया जा सकता है अगर कर्मचारियों का परिवार अश्रुपूरित रहे। 

मेरा नमन स्वीकार करना मोहन !!!

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