जब माँ ‘गहना’ बेचकर शुभ्रो को कैमरा खरीदने को कहीं, यह भी कही कदमकुआं का नाम ‘शुभ्रो’ रखना, ताकि ‘दाग’ नहीं लगे (बिहार का फोटोवाला: श्रंखला:5) 

नीतीश कुमार ही नहीं, बिहार के पिछले दर्जनों मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में शहर का हाल इससे बेहतर नहीं रहा है। चित्र में हैं शुभ्रो भट्टाचार्य

कदमकुआं (पटना) / नई दिल्ली : कभी आपने अपने माता-पिता के नाम के साथ अपने नाम को जोड़कर, उसके भावार्थ को, उस भावार्थ के सार्थकता पर गौर फ़रमाया है? वैसे आज के परिवेश में आधी से अधिक आबादी अपने नामों का सही मायने में भावार्थ भी नहीं जानती, माता-पिता के नामों के साथ ‘अर्थ’ और ‘शब्दार्थ’ करने की बात तो मीलों दूर। लेकिन पटना का कदमकुआं इलाका अगर सत्तर के दशक में भारत की राजनीतिक मानचित्र पर एक युग-पुरुष के नाम को अवतरित होते देखा, ‘जयप्रकाश’ से ‘लोकनायक’ होते देखा उसे; तो उसी कदमकुआं इलाके में स्थित कोई सौ वर्ष पुराना पानी टंकी, टंकी की बुनियाद भी इस बात का गवाह है कि उसके परिसर में रहने वाला खगेन्द्र (पक्षियों का राजा) नाथ भट्टाचार्या, उनकी पत्नी श्रीमती विनती (अनुरोध) के पुत्र शुभ्रो (सफ़ेद) भट्टाचार्य की माँ की “मिनोती” को ईश्वर ने स्वीकारा और उसे “पक्षियों के राजा” का पुत्र होने के नाते, उसे उसकी अदम्य साहस, मेहनत को पुरस्कृत करते ‘बेदाद’ (सफ़ेद) जीवन देने में तनिक भी कोई कोताही नहीं किया। यह सत्य है और आज भी अपनी पराकाष्ठा पर है। विश्वास नहीं हो तो आजमा के देखें क्योंकि “शुभ्रो” के माँ अपने पुत्र को अपनी आभूषण को बेचकर 2500 रूपया देती है और कहती है : “बेटा, यह बहुत कम पैसे हैं, फिर भी तुम छोटा ही सही, एक कैमरा खरीद लो। जीवन में तुम्हारे पास बहुत कैमरे होने, बाहर महंगे कैमरे होंगे। यह माँ का आशीष है।”

भारतीय स्वाधीनता दिवस के 75 वें वर्षगाँठ पर स्वाधीनता संग्राम 1857 – 1947 के गुमनाम क्रांतिकारियों, शहीदों और उनके जीवित, परन्तु समाज से उपेक्षित, वंशजों से सम्बंधित अपने डेढ़ से अधिक दशक के प्रयास को आंक रहा था और भारत के लोगों की मानसिकता को भी, उन शहीदों और उनके वंशजों के साथ तालमेल कर रहा था। गंगा के किनारे का रहने वाला, पला-बड़ा हुआ था; इसलिए आखों में पानी की किल्लत नहीं थी।  आखें भींग गई थी। बीच-बीच में यह भी देख रहा था कि भारत के शहरों में, गली-मुहल्लों में, झोपड़ियों में, गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में, खेत-खलिहानों में, फार्म-हॉउसों में, किराये के मकानों से अपने और अपने पत्नियों के नाम से स्थानीय सरकारी निबंधन कार्यालय में निबंधित कराये आलीशान मकानों में रहने वाले लोगबाग; अपने परिवार, समाज, कुटुम्ब, शहर, गाँव, मोहल्ला के बारे में कितना जानते हैं? जिस गाँव में वे रहते हैं, जिस शहर में वे रहते हैं, जिस मोहल्ले में वे रहते हैं – उसके बारे में कितना जानते हैं? अगर आपको भी कभी मौका मिले तो किसी गली के नुक्कड़ पर, दालानों पर, सड़कों के चौराहों पर, शहरों में गोलचक्करों पर खड़े होकर “रैंडम सैंपलिंग” करके आजमाने की कोशिश जरूर करियेगा – अगर आप मुंह के बल न गिरें तो कहियेगा। 

शहर में प्रवासित औसतन 90 फीसदी 10-20 वर्ष के स्कूल और कालेज जाने वाले युवक और युवतियां अपने गाँव का नाम नहीं बता पाएंगे।  अक्सरहां कहेंगे “बिहार” के रहने वाले हैं। ट्रेन से जाने पर किस स्टेशन पर उतरते हैं, औसतन लोग बताने में हिचकी लेने लगेंगे । औसतन 20-40 और अधिक वर्ष के लोगों में 50 से अधिक फ़ीसदी महानुभाव और मोहतरमा, अपने परिवार (मातृपक्ष, पितृपक्ष या ससुराल) की तीन पीढ़ियों का नाम ही बता दें, तो आप स्वयं को भाग्यशाली समझें। हाँ, “नैतिक-शिक्षा” के मामले में अपने दाहिने-बाएं हाथों की दसों उंगलियां अपने-अपने बच्चों के विद्यालयों में “नैतिक-शिक्षा” पढ़ाने वाले/वाली शिक्षक/शिक्षिकाओं की ओर उठाने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे। अब उन्हें कौन बताये की मोहतरम और मोहतरमायें – आपके माता-पिता को, सास-ससुर को, दादा-दादी को, नाना-नानी को विद्यालय के शिक्षक अथवा शिक्षिकाएं कैसे जानेंगे, कैसे पहचानेंगे। वर्तमान काल में तो अधिकांश लोग बाग अपना, अपने बच्चों का “उपनाम” भी “वास्तविक” नहीं लगाते। बातें बहुत छोटी-छोटी है, लेकिन “कैंसर से भी भयानक और भयंकर” है। वैसी स्थिति में समाज का सम्पूर्णता के साथ नैतिक पतन की ओर जाना स्वाभाविक ही है। शब्द कटु हैं, लेकिन लेखक को गलियाने से पहले एक बार उन्हीं उँगलियों को अपनी ओर मोड़कर सोचियेगा जरूर और यब भी सोचने में कोताही नहीं करेंगे की “नाम की सार्थकता सिद्ध है अथवा नहीं।” 

पटना के कदमकुआं का यह ऐतिहासिक पानी टंकी जिसके नीचे शुभ्रो, अपने भाई-बहन, माता-पिता के साथ जीवन की शुरुआत किये

जब भी किसी अखबार में, पम्पलेटों पर किसी भी शहर, कस्बे या मोहल्ले के नाम के पीछे उसके बसने की कहानी को लिखा देखता हूँ, किसी को बताते-सुनाते देखता हूँ, सुनता हूँ – अच्छा लगता है। क्योंकि “नाम” तो “संज्ञा” होता ही है, उस संज्ञा का  का अर्थ भी होता है। प्रत्येक नाम का कुछ-न-कुछ इतिहास भी होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को, समाजों को उसकी जड़ों तक ले जाता है और यही कारण है कि सैकड़ों, हज़ारों वर्ष बीतने के बाद भी “किबदन्तियों” में ही सही, उस ‘संज्ञा’ का ‘वास्तविक विशेषण’ जीवित रहता है। घर में बड़े-बुजुर्ग, बूढ़ी दादी-नानी उस संज्ञा के बारे में पुस्त-दर-पुस्त बताती है और वह जीवित रहता है। गंगा तट पर बसा हमारे पटना का, पटना के गली-मोहल्लों का, सड़कों का, स्थानों का भी अपना-अपना एक इतिहास है जो आज ‘अप्भ्रन्सित’ होते हुए अपने नाम के अस्तित्व को बरकरार रखते हम सबों को सारगर्भित किया है।आज का पटना कभी पाटलिपुत्र के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि पटना जब एक गांव था, उस समय यहां बहुत सारे पाटलि वृक्ष थे। इन पाटलि वृक्षों के कारण ही इसका नाम पहले पाटलिग्राम पड़ा। जब ग्राम में लोग बसने लगे, ग्राम नगर बनने लगा तो पाटलिग्राम ‘पाटलिपुत्र’ हो गया। बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते और सूबेदार मुहम्मद अजीम के अनुरोध पर 1704 ई. में पाटलिपुत्र ‘अजीमाबाद’ हो गया। समयांतराल ‘अजीमाबाद’ ‘पटना’ हो गया। इस क्षेत्र का प्राक-ऐतिहासिक, ऐतिहासिक अनेकानेक नाम हैं। खैर। हम ह्रदय से आभारी है सम्मानित अक्षय पांडेय जी का जो आज भी उस इतिहास को न केवल अपने दस्तावेजों में धरोहर स्वरुप अंकित किये हुए हैं, बल्कि उनकी कोशिश भी हमेशा रही है कि उनके शहर के, उनके प्रदेश के बच्चे, लोग बाग़ इस बात को जाने। 

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पटना के कई मोहल्ले हैं जो अपनी कहानी खुद कहता है। तकलीफ सिर्फ इस बात की है कि उस कहानी के श्रोताओं की आज किल्लत ही नहीं, सुखाड़ सी हो गयी है। आज तो बिहार ही नहीं, देश के सभी ‘लंड़गे-लुल्हे-दिव्यांग शहर, जहाँ न स्वच्छ पानी पीने की व्यवस्था है और न ही शौचालय से रात्रिमल-मूत्र के पानी को निकलने का रास्ता; बरसात में क्या पेय-जल, क्या स्नान-जल और क्या शौचालय का जल – सभी सड़कों पर समाजवादी विचारधारा को बरक़रार रखते गले मिलते रहते हैं और उस शहर के मतदाता सड़कों, गली-मुहल्लों में बहते पानी में गोंता लगाते रहते हैं। हमारा पटना अछूता नहीं है। लेकिन एक बात विश्व को मानना पड़ेगा कि हम पटना के लोग बहुत ही सहनशील हैं। बहरहाल, पटना सिटी स्थित चुंगीकर कार्यालय या कारवां सराय के नाम पर इस जगह का नाम मालसलामी पड़ा। ‘सलामी’ या ‘टैक्स’ के रूप में व्यापारियों को अपने माल के बदले एक निश्चित रकम देना पड़ता था। इसी तरह, कंकड़बाग का इलाका बादशाह अकबर द्वारा ईरान के शाह तहमरूप के पुत्र को जागीर के रूप में प्रदान किया गया था। लाल बालू, मिट्टी, कंकड़ और झाडिय़ों के कारण यह इलाका कंकड़बाग हो गया । आर्य कुमार रोड से सटे मछुआरों की बस्ती वाला मोहल्ला मछुआ टोली के नाम से विख्यात हुआ। मछुआ टोली के सटे मोहल्ले जहां बरसात के दिनों में पानी लग जाता था, जिसके कारण लंगर वाले नाव चलाया करते थे ‘लंगर टोली’ हो गया। लोहानीपुर पहले ‘नुहानीपुर’ था और इसी मोहल्ले में बिहार के दीवान नबाव मीर कासीम का जन्म हुआ था। 

पटना कॉलेज और खुदाबख्स लाइब्रेरी के सामने जाने वाली सड़क खजांची रोड के रूप में जानी जाती है।कहा जाता है कि 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी के पूर्वार्ध तक कर लेने वाले ‘खजांची बाबू’ यहीं रहा करते थे। पटना कॉलेज के दक्षिण निचली सड़क पर स्थित भिखना पहाड़ी बौद्ध भिक्षुओं का गढ़ हुआ करता था। मौर्य काल में यहां बौद्ध मठ थे जिसमें बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। इसके अलावा भिखना कुआं देवी एवं भिखना कुंवर नामक एक संत रहा करते थे। जिसके बाद इस मोहल्ले का नाम भिखना पहाड़ी रखा गया। पटना में एएन कॉलेज के आगे बोरिंग रोड में पहली बार बोरिंग हुई थी, इसलिए यह बोरिंग रोड हो गया । गुलजारबाग और गर्दनीबाग का नाम यहां मौजूद बगीचों के कारण पड़ा। गर्दनीबाग का इलाका आदिवासी लोगों का गढ़ हुआ करता था। यहां गर्दनिया नामक आदिवासी रहते जो यात्रियों से लूट कर उन्हें जान मार देते थे।गांधी मैदान के पश्चिम दक्षिण स्थित छज्जूबाग मोहल्ले का नाम छज्जू माली के नाम पर पड़ा। जो विशाल बाग-बगीचे का देखभाल किया करते थे। इस बगीचे के प्रमुख आम अलीवर्दी और सिराजुद्दौला को भेजा जाता था। इस मोहल्ले में छज्जू शाह का मकबरा आज भी है।

इसी तरह, मालसलामी मोहल्ला के दक्षिण नगला या नगरा मोहल्ला नगरम से बना है। अजातशत्रु ने सर्वप्रथम यहां चारदीवारी वाला नगर बसाया था। पटना सिटी के दक्षिण-पूर्व स्थित बड़ी और छोटी पहाड़ी का नामकरण अशोक मौर्य ने करवाया था। बौद्ध स्तूपों के कारण इनका नाम बड़ी एवं छोटी पहाड़ी पड़ा। अशोक राज पथ पर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल के मुख्य द्वार के ठीक सामने दक्षिण की ओर एक कोने पर एक कुआं हुआ करता था, साथ ही उस कुएं के पास एक विशाल पीपल का बृक्ष भी था। इस स्थान पर एक व्यक्ति प्रतिदिन मक्खन बेचा करता था। यह मखनिया कुआं हो गया। इस सड़क के बाएं कोने पर एक होटल भी था। साथ ही, दाहिने हाथ कोने पर साठ और सत्तर के दशक में भी ‘मक्खन’ ना सही, ‘दही’ बेचा जाता था। पटना सिटी स्थित त्रिपोलिया जहां तीन पोल या तीन प्रकार के फाटक हुआ करते थे। मुगलकाल में एक ऐसा बाजार था जिसमें आने-जाने के लिए तीन बड़े द्वार या रास्ते थे। वही त्रिपोलिया अस्पताल के पास मुगलकाल में चिडिय़ा मारने वाले लोग रहा करते थे। जिस कारण मोहल्ले का नाम मीर शिकार टोह पड़ा।  बौद्ध भिक्षु हरे-भरे बाग में टहला करते थे जिसे रमण के नाम से भी जानते थे। इस क्षेत्र को अंग्रेजों ने मनीसरूल्ला नामक नबाव को दिया जो शाह आलम द्वितीय से दीवानी अधिकार प्राप्त किया। 

पीरबहोर मोहल्ले का नाम संत दाता पीरबहोर के नाम पर पड़ा। जिनका मजार आज भी दाता मार्केट से सटे है। संत दाता पीरबहोर शाह अरजान के समकालीन थे। पटना साइंस कॉलेज के इलाका बादशाही गंज के नाम से मशहूर हुआ। इस क्षेत्र में औरंगजेब का पोता फर्रुखसियर आया था जिसे खुश करने के लिए मोहल्ले का नाम बादशाही गंज रखा गया। बाद में इसी मोहल्ले में ठठेरों की बस्ती विकसित हुई जिसे ठठेरी बाजार कहा जाने लगा। इस मोहल्ले के लोग गंगा नदी और दरियापुर गोला से बरसात के मौसम में मछली पकड़ लाकर बेचा करते थे। जहांगीर कालीन बिहार के गर्वनर मिर्जा रूस्तम सफवी के पुत्र मिर्जा मुराद 17 वीं सदी में एक  प्रतिष्ठित व्यक्ति हुआ करते थे। उन्हीं के नाम पर मोहल्ले का नाम मुरादपुर पड़ा। यह मोहल्ला पटना सिटी के एसडीओ कोर्ट के पास स्थित है।गांधी मैदान से पटना रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क फ्रेजर रोड का नाम बंगाल के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर ए एच एल फ्रेजर के नाम पर वर्ष 1906 में पड़ा।अफगानों के शासनकाल में बिहार का तत्कालीन गर्वनर दरियाखां नूहानो के नाम पर मोहल्ले का नाम दरियापुर पड़ा।

इतना ही नहीं, सन 1915-20 के ज़माने में अंग्रेजी हुकूमत के लोग, अधिकारीगण पटना की अकेनानेक इलाकों में बसना प्रारम्भ किए, साथ ही, न्यूनतम मूल्यों पर जमीन भी बेचे, ताकि पटना के लोग भी उस क्षेत्र में बस सकें। यह क्षेत्र खास महल कहलाया। सबसे बड़ा ख़ास महल कदम कुआं इलाके में बसा। इस इलाके में दो कठ्ठा जमीन से 12, 15 20 कठ्ठा जमीनों में अनेकानेक लोग अपना-अपना मकान बने। जैसे अनुग्रह नारायण सिन्हा, लाल बहादुर शास्त्री की बहन श्रीमती सुंदरी देवी, बाबू जगजीवन राम, गंगा नदी में जहाज चलने वाले बच्चू बाबू, जय प्रकाश नयारायण। कदम कुआं के तर्ज पर खाल महल कुछ अन्य इलाकों में भी आया – महेन्दू मोहल्ला, चिरैय्याँ टांड, पटना अजायबघर के पास इत्यादि। 

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तस्वीर: शुभ्रो भट्टाचार्या 

वैसे, कदमकुआं के नामकरण को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। इतिहासकार इसके नामकरण पर दो तरह का विश्लेषण करते हैं। एक के मुताबिक इस इलाके में एक विशाल कदम का पेड़ था। इसके नीचे में ही एक बड़ा-सा कुआं था, जिसके कारण इसे कदमकुआं कहा गया। दूसरी मान्यता के मुताबिक मौर्यकाल में कुआं बनाने का प्रचलन था। प्राचीन काल के कई रिंग वेल का भी साक्ष्य प्रदेश के अलग-अलग जगहों से मिला है। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में कई कुएं थे। “कदम-कदम पर कुआं” से इसका नामकरण कदमकुआं के रूप में हुआ। उन दिनों पटना में और भी कई बड़े कुओं का जिक्र मिलता है- जैसे अगमकुआं, मखनिया कुआं आदि। आज़ाद भारत में पटना के जिस मोहल्ले का विकास सबसे तेज हुआ, वह है कदमकुआं। साठ-सत्तर के दशक में ज्यादातर पढ़े-लिखे और समाज के संभ्रांत लोग, आर्थिक दृष्टि से घनाढय लोग कदमकुआं में बसने लगे। आज़ादी के दिनों में कदम कुआं इलाके का महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ स्थित विशालकाय मैदान में सैकड़ों बार हज़ारों-लाखों की संख्या में लोग एकत्रित होकर शंखनाद किये थे, ताकि भारत के लोग स्वतंत्र देश में सांस ले सकें। 

इसी मोहल्ले में दो महत्वपूर्ण लोग रहते थे – एक: जयप्रकाश नारायण जो बाद में ‘लोकनायक’ बने और दूसरे: कदमकुआं इलाके के ऐतिहासिक पानी टंकी के पास सुब्रो भट्टाचार्या के माता-पिता, परिवार, समाज। जो पटना के बासिन्दे हैं, कदमकुआं इलाके से वाकिफ हैं वे इस बात को अवश्य स्वीकार करेंगे कि देश में आजादी की लड़ाई से लेकर वर्ष सत्तर के दशक के मध्य से लेकर उत्तरार्ध तक सम्पूर्ण क्रांति की मशाल थामने वाले लोकनायक का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरा जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश को एक नई दिशा दिए। लोकनायक की संपूर्ण क्रांति में सात क्रांतियां शामिल थी – राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। इस इलाके को ‘जांच, कांच और नाच’ के रूप में भी जाना जाता है। इस इलाके में चिकित्सक अधिक रहते हैं, चूड़ी बाजार के कारण कांच के लिए जाना गया। साथ ही, लोकनायक के कहने पर यहाँ नृत्य कला मंदिर की नींव पड़ी, जहाँ लड़कियों को उत्साहित करने के लिए जयप्रकाश नयारण ने सबसे पहले अपनी पत्नी प्रभावती जी को भेजे। 

शुभ्रो की माँ श्रीमती मिनोति जी बंगला के ख्याति प्राप्त लेखक बिभूति भूषण मुखोपाध्याय की भतीजी थी।

लोकनायक जय प्रकाश नारायण की मृत्यु महात्मा गांधी के जन्मदिन पर हुआ। सिर्फ साल का अंतर था। जय प्रकाश नारायण 2 अक्टूबर, 1979 को मृत्यु को प्राप्त किये और उन्हें लाखों लोगों की उपस्थिति में पटना में गंगा नदी के किनारे अग्नि को सुपुर्द किया गया। उसी दिन कदमकुआं के स्थित ऐतिहासिक पानी टंकी की परछाई में पलने-बड़े होने वाले एक बंगाली क्रांतिकारी युवक ने अपने एक अद्भुत प्रयास से जिंदगी की शुरुआत की। जो लोकनायक की अंतिम यात्रा में गंगा तट पर साथ थे, वे इस बात का चश्मीद गवाह भी होंगे, उन्हें याद भी होगा जब लोह नायक के मुख में मुखाग्नि दिया जा रहा था, उसी गंगा तट पर एक पटना वासी अपने बाएं हाथ पर चुनाते-रगड़ते खैनी (तम्बाकू) को ठोक दिया। उपस्थित लोग “उसे ताली समझ बैठे” और फिर लाखो-लाख हाथें एक दूसरे के साथ आलिंगन करने लगे, आसमान तक तालियों की गूंज उठने लगी और इन्दिरा गाँधी उठकर चिल्लाती रहीं, लोगों को बताती रही – यह ताली बजने का अवसर नहीं है। यह दुःख की घड़ी है। ऐसे होते हैं पटना के लोग। खैर। उन सभी गगनचुम्बी तालियों की गरगराहटों को अपने जीवन का पाठ मानकर कदमकुआं का वह बंगाली युवक सुब्रो भट्टाचार्या विगत चार से अधिक दशकों में एक अलग तरीके से समाज में अद्वितीय कार्य किया। विगत चार दशकों में पटना ही नहीं, बिहार के लाखों संभ्रांत परिवार होंगे जिनकी बेटियों की हाथों में जब मेंहदी लगी थी, उसका वैवाहिक जीवन जब प्रारम्भ हुआ था, जब वे दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की थी – सबों के हाथों में एक तस्वीरों के साथ ऐतिहासिक दस्तावेज हस्तगत किये जो उनके जीवन का अभिन्न अंग बना। उन दस्तावेजों के पन्नों को पलटकर वे अपनी कहानी अपने बच्चों को, पोते-पोतियों को, नाती-नतनियों को बताकर जीवन के एक-एक पल का आनंद लेकर जीवित हैं। इसके अलावे बंगाली बाबू पटना के लगभग सभी फोटो-जर्नलिस्टों को, उनकी इक्षानुसार, उनके अखबरोबन, पत्रिकाओं के नाम के अनुसार प्रदेश के विभिन्न शहरों, गांव, पंचायत में भ्रमण कर असाइनमेंट करता रहा। अपनी तस्वीरों को उन फोटो जर्नलिस्टों के नाम से चपटे देख खुश होता रहा। जानते हैं क्यों? फोटो खींचना और उस फोटो में अपनी मेहनत को देखकर मुस्कुराना, ताली बजाना उसके रोजमर्रे की जिंदगी हो गयी। उसे खुशियां मिलती थी, आज भी मिलती है। 

तस्वीर: शुभ्रो भट्टाचार्या 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते सुभ्रो भट्टाचार्य कहते हैं: “बचपन में मेरे साथ एक ऐसी घटना घटी जो मुझे कैमरा की ओर धकेल दिया। मुझे जीवन में कुछ और करने, कर गुजरने के लिए देखने की जरुरत नहीं महसूस हुई। मुझे लगा की मन इसी कार्य के लिए जन्म लिया हूँ। कदम कुआं में एक ऐतिहासिक स्थान है – देवेंद्र कुटीर। देवेंद्र तो एक संज्ञा है। एक नाम है और इसका अर्थ है जो देवों के राजा हो, यानी इंद्र। इस देवेंद्र कुटीर में पूजा के अवसर पर या अन्य सांस्कृतिक समारोहों में हज़ारों लोगों का समागम होता है। एक के हाथ में कैमरा था। वे कैमरे को रखकर शौचालय जाने लगे। मैं वहीँ बैठा था। इस बीच मैं उस कैमरे को छूने की कोशिश किया। वे मुझे देख लिए। वे जोर से चिल्लाने लगे…….नहीं नहीं नहीं……छूने की कोशिश नहीं करना। ओपरेट नहीं कर पाओगे…..रखो….. रखो … और न जाने क्या-क्या कहें। वहां उपस्थित सभी लोग उन्हें देखने लगे, मुझे देखने लगे । ऐसा लगा जैसे मैं को भीषण अपराध कर दिया हूँ। उस समय मैं तनिक छोटा था। वह दिन, वह समय, उनकी बातें, वहां उपस्थित लोगों की निगाहें मैं जीवन में कभी नहीं भुला, आज भी नहीं और मैं पटना का एक ऐसा फोटोग्राफर बना जिसे न केवन बिहार और भारत के समाचार पत्रों, पत्रिकाओं से जुड़े फोटो जर्नलिस्ट्स ह्रदय से लगाए, बल्कि हज़ारों-हज़ार लड़कियों के माता-पिता अपनी पुत्री के हाथों में मेंहदी लगने, विवाह होने, घर बसने में मेरे कैमरे को ही चुना – आशीष स्वरुप।”

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पटना वाटर बोर्ड के एक कर्मी खगेन्द्र नाथ भट्टाचार्या और श्रीमती मिनोती भट्टाचार्य के पुत्र सुभ्रो भट्टाचार्य दो भाई (सुबीर भट्टाचार्य) और एक बहन (सपना बनर्जी) हैं। सुभ्रो के पिता पटना वाटर बोर्ड में काम करते थे। सभी कदमकुआं के ऐतिहासिक पानी टंकी परिसर में ही रहते थे – माँ, बाबूजी, भाई और बहन। सगे-सम्बन्धी जब भी आते थे, सभी उसी छोटे से परिसर में रहकर हंसी बटोरकर जाते थे। सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्ष में, जब शुभ्रो आठवीं-नवमीं कक्षा में थे, तब तीनो भाई-बहनों के सर से ब्रह्माण्ड समाप्त हो गया। पिता ईश्वर के पास अनंत यात्रा पर निकल गए। साल 1972 था। भट्टाचार्या साहेब का पैतृक लोग, मुर्शिदाबाद से पटना आये थे। उस ज़माने में भी भारतीय द्रव्यों का मोल और मूल्य था। एक गरीब और अर्थहीन परिवार में तीन बच्चे कैसे पलेंगे माता-पिता के बिना, यह अपने आप में एक गीता का पाठ था। परन्तु “शुभ्रो” और अन्य भाई-बहन को इस पाठ को कंठस्त तो करना ही था, जीवन से जूझने के लिए। शुभ्रो को “अनुकम्पा” के आधार पर पटना वाटर  बोर्ड में नौकरी मिल गयी। जीवन की एक शुरुआत हो गयी। शुभ्रो की माँ श्रीमती मिनोति जी बंगला के ख्याति प्राप्त लेखक बिभूति भूषण मुखोपाध्याय की भतीजी थी। 

पुरस्कृत होते शुभ्रो

शुभ्रो कहते हैं: “मुझे उन दिनों पांच रुपैया बारह आना नित्य मिलता था। शुरुआत में डेली-वेज पर ही नौकरी मिली और मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था। विकत परिस्थिति थी। सभी भाई-बहन एक-दूसरे का मुख देखकर जीते थे। दो साल बाद नौकरी पक्की हुई। लेकिन मन में “सोमदा” की वह बात “बेल के कांटे” जैसा चुभ रहा था। सोच रहा था फोटोग्राफी की दुनिया में कैसे प्रवेश लूँ।सन 1982 में एक छोटा सा कैमरा लिया। उन दिनों पटना के रंजन बसु भी देवेंद्र कुटीर में आते थे। उन लोगों से बहुत प्रभावित थे। इसी बीच अपने एक मित्र संजय घोष के देवघर विवाह में गए। वहां उन्हें तस्वीर खींचने थी। कैमरा ओलम्पस एसएलआर था। संजय घोष मेरे हाथ में कैमरा दिए और मैं कन्यादान-सिंन्दुरदान का दो फोटो क्लिक-क्लिक किया। जब उसकी सफाई हुई तो वह बेहतरीन तस्वीरों में रखा गया।”

शुभ्रो आगे कहते हैं: “एक मनुष्य को गरीबी, पैसे की किल्लत और पेट की भूख बहुत पाठ पढ़ाती है, सबक सीखाती है। समय सबसे बड़ा ‘टाईम-बाबू’ होता है। उसकी निगाहें हमेशा मनुष्य के कर्मों पर होता है। मैं भी समय की निगाहों में ही था। ऊबन दिनों हमारी ड्यूटी पटना के चिरैयाटांड़ में रात्रि बेला में लगा था। मेरे पास दिन में समय होता था ताकि कोई काम कर के दो पैसे कमा सकूँ, भाई-बहन को ठीक से देख सकूँ। साल कोई 1983-1984 का था।  इंदिरा गाँधी जीवित थी। उस समय मुझे देखकर पटना स्थित फोटो मेकर्स के संस्थापक माणिक दा मुझे कार्य करने का अवसर दिए और पूछे भी ‘काम करोगे?” मेरे पास “ना” कहने का कोई “मतलब” ही नहीं था। और मैं शुरू हो गया दिन के पाली में – ब्लेक एंड व्हाईट, रंगीन, सी-41, ट्रांसपेरेंसी इत्यादि के प्रोसेसिंग, प्रिंटिंग पर काम करना, सीखना और महारथ होना। फिर डार्क रूप का काम सीखा। मैं कभी भी ऑटो-प्रिंटर पर काम नहीं किया। बड़ी-बड़ी तस्वीरें निकाले। लक्ष्य ‘फोटोग्राफी’ करना था और चतुर्दिक विख्यात होना था। फिर माणिक डा नेपाल से पेन्टेक्स – के:1000 माँगा दिए। मैं धीरे-धीरे दो सजीवों को जीवंत रखने की ओर उन्मुख हुआ – एक: वाईल्ड लाइफ में और दूसरे: बेटी की विवाह में। वैसे दोनों दो शिरायें थी – लेकिन पेट की भूख, माथे की भूख और जीवन में कुछ करने की भूख – सबों ने मुझे फोटोग्राफर से फोटो-जर्नलिस्ट बना दिया।”

दो आँखों की कहानी कैमरे के लेंस से

शुभ्रो कहते हैं: पटना की सडकों पर काम करते-करते उस ज़माने के अनेकानेक फोटो जर्नलिस्टों से रूबरू हुआ।  उनसे सीखा। उनका विश्वास जीता। उन्हें जिन तस्वीरों की जरुरत होती थी, मैं सम्पूर्णता के साथ उन्हें उपलब्ध करता था – बेहतरीन। पटना ही नहीं, देश, विदेश के पत्र/पत्रिकाओं में मेरी खींची तस्वीरें प्रकाशित होने लगी – लेकिन एक शाट पर: नाम मेरी नहीं हो क्योंकि मैं नौकरी करता था। आज उन उन मित्रों के विश्वास के कारण, अपनी मेहनत और सोच के कारण न नाम की किल्लत है और ना ही शोहतर की।  न पैसे की दिक्कत है और न ही पहचान की – सब कैमरे का क्लिक-क्लिक। आज पक्षी के राजा खगेन्द्र को ईश्वर के पास गए पचास वर्ष हो गए। ‘विनती’ की विनती को भी स्वीकार किये कोई चालीस से अधिक वर्ष हो गए जब वह खगेन्द्र के पास पहुँचने के लिए अपनी अनंत यात्रा पर निकली  – लेकिन आज भी शुभ्रो अपने माता-पिता और अपने नामों की सार्थकता सिद्ध करने में प्रयत्नशील है – ताकि कोई स्वर, कोई व्यंजन छूटे नहीं। 

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