सिर्फ सरकार या व्यवस्था का ही जबाबदेही नहीं है, आप भी ऐतिहासिक पुरातत्वों को बचाने में आगे आएं

बड़ा इमामबाड़ा
बड़ा इमामबाड़ा

भारत के सभी २९ राज्यों और सात केंद्र प्रसाशित क्षेत्रों में, लखनऊ ही ऐसा शहर है, जहाँ की राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन ने उन सभी ऐतिहासिक स्थलों की कला और पुरातत्वों के मोल को पुनः स्थापित करने का प्रयास की है और कर रही है, ताकि भारत के इतिहास में उन पुरातत्वों के निर्माताओं का नाम तो अंकित रहे ही, साथ ही, पिछले कई दसकों से उन पुरातत्वों के क्षेत्र में स्थानीय लोगों के द्वारा जो अवैध कब्ज़ा किये गए थे, उसे उखाड़ फेंका है।

स्थानीय प्रशासन और सरकार का मानना है की उत्तर प्रदेश के सभी ऐतिहासिक स्थलों को विश्व पर्यटन के मद्दे नजर अनुशाषित और सुंदरता से परिपूर्ण किया जाय, और उसे सभी कीमतों पर बरकरार रखा जाय। ज्ञातब्य हो की लखनऊ में ३८ ऐतिहासिक पुरात्तव आज भी जीवित हैं। इस प्रयास की शुरुआत हुयी लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा से।

लखनऊ हमेशा से एक बहु-सांस्कृतिक शहर रहा है। यहाँ के नवाबों द्वारा शिष्टाचार, खूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत और बढ़िया व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया गया।

लखनऊ को नवाबों के शहर, स्वर्ण नगर, शिराज-ए-हिंद के रूप में भी जाना जाता है।आज का लखनऊ एक जीवंत शहर है और भारत के तेजी से बढ़ रहे गैर-महानगरों के शीर्ष पंद्रह में से एक है।

लखनऊ में हिन्दी एवं उर्दू दोनों ही बोली जाती हैं किन्तु उर्दू को यहां सदियों से खास महत्त्व प्राप्त रहा है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब दिल्ली खतरे में पड़ी तब बहुत से शायरों ने लखनऊ का रुख किया। तब उर्दू शायरी के दो ठिकाने हो गये दिल्ली और लखनऊ। जहां दिल्ली सूफ़ी शायरी का केन्द्र बनी, वहीं लखनऊ गज़ल विलासिता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गया। नवाबों के काल में उर्दू खूब पनपी एवं भारत की तहजीब वाली भाषा के रूप में उभरी। यहां बहुत से हिन्दू कवि और मुस्लिम शायर हुए जिन्होंने उर्दू शायरी तथा लखनवी भाषा को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। लखनऊ संस्कृति के लिए विश्व के महान शहरों में से एक है।

ये भी पढ़े   1939: महाराजा दरभंगा का 'सर्वाधिकार का प्रतिक' वाला उपहार और फिर अंग्रेजों का जाना 

आज भी, लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ संजोये हुए है। भारत के उत्कृष्टतम शहरों में गिने जाने वाले लखनऊ की संस्कृति में भावनाओं की गर्माहट के साथ उच्च श्रेणी का सौजन्य एवं प्रेम भी है।

लखनऊ के समाज में नवाबों के समय से ही “पहले आप!” वाली शैली समायी हुई है।यह तहजीब यहां दो विशाल धर्मों के लोगों को एक समान संस्कृति से बांधती है। ये संस्कृति यहां के नवाबों के समय से चली आ रही है

ऐतिहासिक दृष्टि से लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था, अत: इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया।

सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन १९२० में प्रदेश की राजधानी को इलाहबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया और स्वतन्त्रता के बाद १२ जनबरी १९५० में यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश के नाम से जाने जाना लगा।

लखनऊ के वर्तमान स्वरूप की स्थापना नवाब अस्सफुद्दौल्ला ने १७७५ ई. में की थी। अवध के शासकों ने लखनऊ को अपनी राजधानी बनाकर इसे समृद्ध किया। परन्तु समय के साथ-साथ आगे चलकर लार्ड डलहौज़ी ने अवध का बिना युद्ध ही अधिग्रहण कर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।

लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा सत्रहवीं शताब्दी की वास्तुकला और नवाबी ज़माने की इमारतों के सुरक्षा इंतज़ामात संबंधी निर्माण का बेहद शानदार नमूना है। गोमती नदी के किनारे बने बड़े इमामबाड़े में कई फीट चौड़ी दीवारे हैं, दीवारों में गलियारे हैं, गलियारों में दसियों दरवाज़े हैं, सैकड़ों झरोखे हैं जो जानने वालों से कुछ छिपाते नहीं और देखने वालों को कुछ दिखाते भी नहीं। इमामबाड़ा की मोटी दीवारों के कान भी हैं जो कहीं भी होने वाली हल्की सी आहट दूर तक सुन लेते हैं। कहते हैं कि यहां की भूलभुलैया और शाही बावली से बहुत सी सुरंगे निकलती हैं जो लखनऊ से बाहर अन्य राज्यों तक जाती हैं। और इन्हीं में कहीं दफ़्न है नबाब आसफ उद्दौला का अकूत खज़ाना, जिसका राज़ आजतक कभी किसी को नहीं मिला है।

ये भी पढ़े   मिथिला के धरोहर पुरुष 'अयाची मिश्र' : बालोऽहं जगदानन्द नमे बाला सरस्वती। अपूर्णे पञ्चमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम् ।।

नवाब अस्सफुद्दौल्ला ने इस विशाल भवन की स्थापना तब की थी जब सम्पूर्ण प्रदेश अकाल के चपेट में आ गया था। कहा जाता है की मानवीयता के रूप में नवाब अस्सफुद्दौल्ला दिन भर इसका निर्माण करवाते थे और रात में उसे तोड़ दिया करते थे ताकि अगले दिन मजदूरों को पुनः काम मिले, मजदूरी मिले और उसके परिवार, बाल-बच्चे को खाना ताकि उनके राज्य में कोई भूखा नहीं सोये, भूखा नहीं मरे।

बड़ा इमामबाड़ा, को लोग आसिफ इमामबाड़ा के नाम से भी जाना जाता है। इमामबाड़ा, लखनऊ की सबसे उत्‍कृष्‍ट इमारतों में से एक है। इसके संकल्‍पनाकार ‘किफायतउल्‍ला’ थे, जो ताज महल के वास्‍तुकार के संबंधी कहे जाते हैं।

बड़ा इमामबाड़ा वास्‍तव में एक विहंगम आंगन के बाद बना हुआ एक विशाल हॉल है, जहां दो विशाल तिहरे आर्च वाले रास्‍तों से पहुंचा जा सकता है। इमामबाड़े का केन्‍द्रीय कक्ष लगभग 50 मीटर लंबा और 16 मीटर चौड़ा है। स्‍तंभहीन इस कक्ष की छत 15 मीटर से अधिक ऊंची है।

यह हॉल लकड़ी, लोहे या पत्‍थर के बीम के बाहरी सहारे के बिना खड़ी विश्‍व की अपने आप में सबसे बड़ी रचना है। इसकी छत को किसी बीम या गर्डर के उपयोग के बिना ईंटों को आपस में जोड़ कर खड़ा किया गया है। अत: इसे वास्‍तुकला की एक अद्भुत उपलब्धि के रूप में देखा जाता है।

इस भवन में तीन विशाल कक्ष हैं, इसकी दीवारों के बीच छुपे हुए लम्‍बे गलियारे हैं, जो लगभग 20 फीट मोटी हैं। यह घनी, गहरी रचना भूलभुलैया कहलाती है। इसमें 1000 से अधिक छोटे छोटे रास्‍तों का जाल है जिनमें से कुछ के सिरे बंद हैं और कुछ प्रपाती बूंदों में समाप्‍त होते हैं, जबकि कुछ अन्‍य प्रवेश या बाहर निकलने के बिन्‍दुओं पर समाप्‍त होते हैं।

ये भी पढ़े   आप भाग्यशाली हैं कि अपने जन्म-स्थान जिला पुर्णियाॅ (बिहार) के 252 वें प्रवेश वर्ष में जीवित हैं, स्वस्थ हैं 

इमामबाड़े की एक और विहित संरचना 5 मंजिला बावड़ी है, जो पूर्व नवाबी युग की है। शाही हमाम नामक यह बाबड़ी गोमती नदी के अलावे बहुत सारे खुफिआ सुरंगों से जुडी हैं, जो अलग अलग राज्यों में जाती हैं। इसमें पानी से ऊपर केवल दो मंज़िले हैं, शेष तल पानी के अंदर पूरे साल डूबे रहते हैं।

इमामबाड़ा की वास्‍तुकला, ठेठ मुगल शैली को प्रदर्शित करती है जो पाकिस्‍तान में लाहौर की बादशाही मस्जिद से काफी मिलती जुलती है और इसे दुनिया की सबसे बड़ी पाचंवी मस्जिद माना जाता है।

इस इमारत की डिजायन की मुख्‍य विशेषता यह है कि इसमें कहीं भी लोहे का इस्‍तेमाल नहीं किया गया है और न ही किसी यूरोपीय शैली की वास्‍तुकला को शामिल किया गया है।

परन्तु, दुर्भाग्य की बात यही थी की पिछले कई दसकों से इसके परिसर और इसके आस-पास के इलाकों में स्थानीय लोगों, जो स्वयं को उस शाही परिवार का वंशज भी कहते हैं, अवैध कब्ज़ा कर लिया था, जिसके कारण यह अपना अस्तित्व खो रहा था। आज उस अस्तित्व को पुनः बहाल करने के लिए सभी संकल्प लिए हैं ताकि धरोहर आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित मिले।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here