‘एक-एक’ करोड़ रुपये, विधान सभा, परिषद के रास्ते पंचायत से संसद तक चुनाव में ‘आरक्षण’ और ‘क्लीनशेव’

इस तस्वीर के बारे में क्या लिखें। आप सभी तो जानते ही होंगे। आपका चुटकुलानन्द

छोड़िये और बातों को। पिछले दिनों भारत का गृह मंत्रालय गया था। रायसीना हिल पर चढ़ते ही दाहिने तरफ विशालकाय भवन। इस भवन में अन्य मंत्रालयों के विभागों के अतिरिक्त भारत सरकार के दो प्रमुख मंत्रालय को शरण मिला है – एक वित्त मंत्रालय और दूसरा गृह मंत्रालय। जैसे ही आप पहाड़नुमा अलकतरा से लीपा-पोता सड़क पर चढ़ेंगे, सुरक्षाकर्मियों की निगाहें क्या मर्द, क्या महिला, क्या जवान, क्या विजुर्ग, क्या बच्चा, क्या अविवाहित, क्या विवाहित सबों के उठते-बैठते पैरों, चालों पर इस कदर टिकती है कि अच्छे-अच्छे लोग-बाग़ डॉ बिंदेश्वर पाठक के सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन द्वारा निर्मित शंका-निवारण केंद्र को ढूंढने लगती हैं।

होनी भी चाहिए, आखिर देश की सुरक्षा का मामला है। पहले हम सभी धर्मार्थ लोग कहते थे: “ना जाने किस भेष में नारायण मिल जाये”, आजकल सुरक्षा की दृष्टि से कहावत बदल गया है। पता नहीं कौन बुरी नजर लेकर विजय चौक पर घूम रहा हो। लेकिन इस परिसर में आते ही किसी भी भारतीय का सीना 56 इंच क्या 65-75-85-105 इंच तक फ़ैल जाता है, फक्र से जब वे भारतीय जवानों को देखते हैं।

अपने प्रयास के क्रम में स्वतंत्रता सेनानियों की वर्तमान स्थिति को जांचने-परखने के लिए मंत्रालय गया था। मुद्दत तक गृह मंत्रालय और उसके सम्बंधित विभागों का रिपोर्टिंग करने के कारण गृह मंत्रालय का एक-एक ईंट जाना-पहचाना लगता है। कभी कभी तो ऐसा भी लगता है कि किसी दीवार का कोई कोना, जहाँ मुद्दत तक खाली समय में बैठकर अपने सहकर्मियों के साथ गपशप करते थे, आवाज दे रहा हो: “अर्र्रे झाजी कहाँ थे? कितने दिन बाद मुखरित हुए है ? ख़ुशी हुई आपकी मूंछों को देखकर। कितने दिनों के बाद ऐसी मूंछ फिर दिखे। आजकल तो गृह मंत्रालय कवर करने वाले विरले ही कोई पत्रकार बंधु हैं जो “सहेली” स्वरुप नहीं हैं और “क्लीन-शेव” में विश्वास नहीं करते हैं। हम तो देखते भी नहीं उन लोगों के तरफ । अब आप ही बताएं कोई गृह मंत्रालय कवर करे और मूंछ नहीं रखे, तो कैसा लगेगा।

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विभाग से मालूम हुआ कि 75 वर्ष आज़ादी की शुरूआती महीने में भी 37000 लोग स्वतंत्रता सैनिक सम्मान योजना के तहत भारत सरकार और सम्बंधित राज्य सरकारों द्वारा प्रदत्त अन्य सुविधाओं के अलावे प्रत्येक माह अच्छी-खासी रकम उनके बैंक खाते में जमा होते हैं। जैसे: एक्स-अंडमान वालो को 30,000/- रुपये प्रतिमाह (पहले 24,775/ रुपये प्रतिमाह था), भारत-सीमा के बाहर वालों को 28, 000 रुपये (पहले 23, 085 था) और आई एन ए वालों को 26,000/- प्रतिमाह (पहले 21,395 रुपये था) उनके बैंक लेखा में जमा होता है बिना किसी बिलम्ब के।

इतना ही नहीं, सन 2004-05 वित्तीय वर्ष से 2016-2017 वित्तीय वर्ष तक भारत सरकार 8670 करोड़ रुपये स्वतंत्रता सैनिक सम्मान योजना के तहत खर्च की है। आगे और देखिये। सन 2017 -2018 में कुल 750 करोड़ रुपये, 2018-2019 वित्तीय वर्ष में 825 करोड़ रुपये और 2019-2020 वित्तीय वर्ष में 907 करोड़ रुपये खर्च की है। इन सांख्यिकी को देखकर अच्छे-अच्छों का मिज़ाज इधर-उधर हो जायेगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज़ादी के 75 साल होने के बाद भी आज भी गृह मंत्रालय के रिकार्ड में 37, 000 भोक्ता “जीवित” हैं। यह अलग बात है कि पिछले कई वर्षों में इन वित्तीय संसाधनों के बंटवारे में अनेकानेक प्रश्न उठे हैं। लेकिन………खैर।

आगे और सुनिए। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी तो यहाँ तक कह गए कि “झा साहेब, आज कल मंत्रालय में कुछ अलग तरह के संवाद आ रहे हैं। आप सुनेंगे तो चौंक जायेंगे। मैं सांस रोकते पूछा, हुकुम, क्या है? अधिकारी कहते हैं कि आप तो इस दिशा में कार्य कर ही रहे हैं। आपको भी वैसे जानकारी तो होगी ही। आपको तो ज्ञात है ही कि 2004 से 2020 तक भारत सरकार स्वतंत्रता सैनिक सम्मान योजना के तहत कुल 11152 करोड़ रुपये खर्च की है। अब उन सैनिकों के परिवार और परिजन यह चाहते हैं कि जिनके पुरुखों ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अपना योगदान किया, जेल गए, या शहीद हुए, उनके परिवारों, परिजनों को, वंशजों को सरकार न्यूनतम एक करोड़ रुपये नकद दे। उनके जीवित परिवार वालों को पेंशन भी दे।

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इतना ही नहीं, भारत सरकार अपने नियमों में परिवर्तन कर केंद्रीय और राज्य सरकारी नौकरियों में, भारत के संसद के ऊपरी सदन में और राज्यों के विधान परिषदों में न्यूनतम दस फीसदी का आरक्षण दे। और सुनिए, यह भी मांग रहे हैं कि जिस – जिस प्रदेशों में पंचायतों का चुनाव हो, उस चुनाव में स्थानीय सरकार इन स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के लोगों को आरक्षण भी दे। यानी कुल मिलाकर वे पंचायत से संसद तक आरक्षण मांग रहे हैं। नौकरियों की तो बात सम्बद्ध नौकरी के लिए परीक्षा लेने वाले निकाय जाने की कितने अंक पर उन्हें उत्तीर्ण घोषित किया जाये; लेकिन राजनीति में “विधान परिषद” और “राज्य सभा” में आरक्षण का तो अर्थ यह हुआ न की सीधा आजीवन पेंशन की व्यवस्था करने की ताक में हैं। खैर।

बहरहाल, आगामी 23 मार्च, 2022 को आज़ादी के महान क्रान्तिकारी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को उत्सर्ग किये 91 वर्ष हो जायेंगे। देश में कई करोड़, कई अरब-ख़रब रूपये पानी के भाव खर्च किये जायेंगे। गेंदा का माला, गुलाब का माला, मखान का माला, कमल का माला बनेगा। नेतागण गर्दन में लटकाएंगे। सरकार के तरफ से चौथाई पृष्ठ, आधा पृष्ठ, पूरा पृष्ठ का विज्ञापन निर्गत होगा। देश में अख़बारों में उनके वितरण के आधार पर विभिन्न आकार-प्रकार के विज्ञापन जारी किये जायेंगे। उन विज्ञापनों पर प्रदेश के, देश के नेताओं की तस्वीर लगी रहेंगी। कुछ तत्कालीन “कलाकार नेता, स्वयंभू-समाजसेवी, उभरते राजनेता उन विज्ञापनों को कंप्यूटर के फोटोशॉप में जाकर अपनी-अपनी तस्वीरें भी लगाएंगे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को नमन भी करेंगे, श्रद्धांजलि भी देंगे। तस्वीरों में वे हँसते भी रहेंगे । फिर नए रूप में उन विज्ञापनों को भारत के सोसल मीडिया पर बृहत् पैमाने पर चिपकाएंगे और फिर तत्कालीन भारतीय सामाजिक-राजनीतिक ब्रह्माण्ड पर देशभक्त के रूप में छा जायेंगे।

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भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव को फांसी पर लटकने से लेकर उनकी शहादत के सौ-वर्ष के बीच देश की आवादी 22 करोड़ से 142 करोड़ हो जाएगी। किताबों के पन्नों से आज़ादी के शहीदों को, गुमनाम क्रांतिकारियों के नामों को, उनके योगदानों को तत्कालीन राजनीतिक पार्टियां, राजनेतागण अपने-अपने फायदों के हिसाब से किताबों के पन्नों पर रखेंगे। कुछ का नाम भूत के गर्त में चला जायेगा। कुछ वर्तमान में भूनते रहेंगे। कुछ भविष्य में होने वाली अपनी स्थितियों को जमीन से कोई हज़ारों-हज़ार किलोमीटर की ऊंचाई से देखते रहेंगे। कुल मिलाकर देश 5335 सांसद और विधायकगण (788 माननीय सांसद – लोक सभा: 545 राज्य सभा: 245, 4121 सम्मानित विधान सभा के सदस्यगण और 426 सम्मानित विधान परिषदों के सदस्यगण) अपने-अपने संसदीय और विधान सभा/परिषद् के क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व तो करेंगे, परन्तु उनके क्षेत्रों में आज़ादी के दौरान कौन-कौन क्रांतिकारी शहीद हुए, किन-किन महिलाओं की चूड़ियां टूटी, कौन-कौन महिलाएं विधवा हुई, किन-किन बहनों के भाई मृत्यु को प्राप्त किये, किन-किन माताओं के अंचल और स्तन सूखे – उन तमाम बातों के लिए न तो उनके पास समय होगा, न सम्वेदना । लेकिन चुनावी भाषणों में क्रांतिकारी/शहीद शब्दों को चुनावी-पासा फेंकने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे। आखिर सत्ता और कुर्सी की बात होगी। वैसे उन दोनों या आने वाले समय में ही नहीं, आज भी समय और सोच बेहतर यही है।

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