देश का ‘शिक्षा विभाग’ और दिल्ली पुलिस की ‘यातायात विभाग’ ”प्रयोग” के लिए विख्यात है

आदरणीय प्रदान साहेब। शिक्षा का मोल बढ़ाएंगे, मूल्य नहीं।

सत्तर के दशक से भारत के शिक्षा मंत्रियों का नाम अखबार में पढ़ते आ रहा हूँ। वजह यह है कि उस दशक में मैं पटना की सड़कों पर अखबार बेचा करता था। पटना के गाँधी मैदान के बाएं कोने पर स्थित राज्य सरकार की बस अड्डा के बरामदे से अपनी साईकिल पर अखबार उठाने से पहले, उसी बस अड्डे के प्रवेश द्वार के कोने पर दाहिने तरफ स्थित चाय की दूकान पर बैठकर डबल कप चाय और तीन डंडा-बिस्कुट खाता था, फिर दिन की शुरुआत करते थे। चाय की चुस्की लेते आर्यावर्त-इण्डियन नेशन – सर्चलाईट – प्रदीप और जनशक्ति अखबारों की शीर्षकेँ अवश्य पढ़ लेते थे। यह नित्य का काम था, ताकि साईकिल की पैडिल मारते समय “अमुक समाचार” को पटना की सड़कों पर चिल्लाता रहूं। सुबह-सवेरे पटना की सड़कों पर स्वास्थ्य-वर्धन हेतु चहल कदमी करने वाले महानुभावों का ध्यान आकृष्ट कर सकूँ। उन दिनों पटना की सड़कों पर महिलाएं सुबह-सवेरे स्वास्थ्य-वर्धन के लिए चहल कदमी नहीं करती थी, चाहे उनका वजन 200 किलो क्यों न हो जाए । आम तौर पर महिलाएं बिना किसी कार्य से बाहर भी नहीं निकलती थी, बशर्ते “मंगलवार” नहीं हो या “शनिवार” नहीं हो। उस समय न पत्रकारों की “होड़” थी और ना ही “अखबार बेचने” वालों की। जो तत्कालीन समय में अपनी-अपनी पेशा में थे, एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। लोगों की “टाँगे” भी सीमित होती थी (अपवाद छोड़कर क्योंकि उन दिनों भी गंगा नदी में मेढ़क था) और टाँग खींचने वाले लोगों की भी किल्लत नहीं तो, बाहुल्य भी नहीं था। राजनीतिक क्षेत्रों को अपवाद में रखें।

इसलिए बाबू सिद्धार्थ शंकर रे के ज़माने से राजेंद्र प्रसाद रोड स्थित शिक्षा मंत्रालय फिर मानव संसाधन मंत्रालय फिर शिक्षा मंत्रालय के दफ्तर में कुर्सी पर आसीन सफ़ेदपोश नेताओं का देश की शिक्षा से उनका संवेदनात्मक सम्बन्ध यमुना नदी की गहराई तक है या ब्रह्मपुत्र की गहराई तक, ज्ञात होने में उतना ही समय लगता था जितना मंडी हॉउस गोलंबर से चलकर राजेंद्र प्रसाद रोड स्थित शास्त्री भवन तक पहुँचने में, और वह भी “पैदल” । “आधुनिक शिक्षित” लोग तो शायद स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन जो देश की आज़ादी के है-उम्र होंगे वे सभी इस बात को स्वीकार करेंगे की आज़ाद भारत में अगर किसी क्षेत्र में सबसे अधिक प्रयोग किया गया, किसी क्षेत्र को सबसे अधिक रौंदा गया, किसी क्षेत्र का सबसे अधिक मंथन किया गया – वह क्षेत्र है “शिक्षा” का। लेकिन तकलीफ इस बात की रही कि उस मंथन से सरकारी क्षेत्र के शैक्षिक संस्थानों का प्रवेश द्वार जितना ही संकीर्ण होता गया, निजी क्षेत्र के संस्थानों का प्रवेश द्वार गंगा नदी की लम्बाई जैसे “चौड़ी” होती गयी। जो शिक्षा सरकारी क्षेत्रों में महत्वहीन होता गया, निजी क्षेत्रों में फलने-फूलने लगा। सरकारी क्षेत्रों के प्राध्यापकों की कुर्सियां खली होने लगी, निजी क्षेत्रों में नई-नई कुर्सियां लगने लगी। बहुत सी बातें हैं।

जब नब्बे के दशक में दिल्ली पहुंचा, तो भारतीय शिक्षा मंत्रियों की मनोदशा और प्रारंभिक क्रिया-कलाप दिल्ली पुलिस के यातायात अवर पुलिस आयुक्त (डीसीपी) के समरूप पाया। नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जब बहादुर शाह ज़फर मार्ग स्थित दी इण्डियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में संवाददाता बना, तो इन विषयों पर अनेकानेक लेख लिखा, प्रकाशित हुआ। वैसे उन दिनों दी इण्डियन एक्सप्रेस अखबार की बिक्री दिल्ली से प्रकाशित अन्य अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में ‘घुटने’ और ‘आदम’ कद जैसा रिस्ता था। आज भी यह रिस्ता बहुत बेहतर नहीं है। अन्य अंग्रेजी अखबार आदम-कद स्वरुप दिल्ली की गली-कूचियों में बिकती है। सभी लोग ‘अंग्रेजी’ अखबार ‘पढ़ते’ हैं। लेकिन दोपहर बाद सड़क के किनारे की दुकानों में ‘दोना’ बनाने के लिए, दीखता था। आज भी स्थिति बेहतर नहीं है। परन्तु ‘घुटने-कद’ में बिकने वाला दी इण्डियन एक्सप्रेस ‘सम्बद्ध अधिकारियों, विभागों, मंत्रियों, सन्तरियों की घुटनों में ऐसा दर्द पैदा कर देता था की वे कुछ दिन चलने-फिरने लायक नहीं होते थे। जब चलना प्रारम्भ करते थे तो अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते एक्सप्रेस कार्यालय ही पहुँचते थे।

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यह बात इसलिए कह रहा हूँ, लिख रहा हूँ कि सत्तर के दशक के बाद न तो देश की शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त हो पाया और ना ही दिल्ली पुलिस की यातायात व्यवस्था। विश्वास नहीं हो तो सत्तर के दशक के बाद जो भी भारत के शिक्षा मंत्री बने हैं या फिर जो दिल्ली पुलिस के यातायात डीसीपी, उनके पदभार ग्रहण करने के बाद उनके कार्यालय से जारी “प्रेस विज्ञप्तियों” अथवा उनका “पहला इंटरव्यू” का तुलनात्मक अध्ययन कर लें। कल भारत के संसद में नव-नियुक्त केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का जबाब भी उसी शृंखला की अगली कड़ी है।

बहरहाल, सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों से लेकर लेकर विगत महीने शिक्षा मंत्रालय में मंत्री जी के कार्यालय में रखी कुर्सी पर सम्मानित धर्मेंद्र प्रधान विराजमान हुए। सम्मानित प्रधान साहेब शायद 26वें केंद्रीय शिक्षा मंत्री हैं, 75 वर्ष के देश में। यानी शिक्षा मंत्रालय में एक शिक्षा मंत्री की औसतन आयु तीन-वर्ष से भी कम । कल की ही तो बात है। विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र वाले देश के संसद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नागपट्टिनम संसदीय क्षेत्र के विजय उम्मीदवार और भारतीय संसद के निचली सदन के सदस्य एम सेल्वाराज ने भारत सरकार के पहले के मानव संसाधन विभाग और वर्तमान में नव-नामकरण वाले शिक्षा विभाग से एक प्रश्न पूछे। प्रश्न का उत्तर नव-नियुक्त शिक्षा मंत्री को देना था।

सरकारी क्षेत्र के, अर्द्ध-सरकारी क्षेत्र के, वित्त-पोषित क्षेत्र के शैक्षणिक संस्थाओं, उनमें कार्य करने वाले अध्यापकों और देश की शैक्षिक ग्राफ के प्रति व्यवस्था कितनी ‘सचेत’ है यह देश के नव-निर्मित केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के लोक सभा में दिए गए जबाब से आँका जा सकता है। शिक्षा मंत्री ने एक प्रश्ज का जबाव देते हुए कहा कि 54% of अन्य पिछड़ी जाति (OBCs), 41% अनुसूचित जाति (SC) और 38% देश के केंद्रीय विश्ववद्यालय में शिक्षक के पद खाली है। मंत्री के अनुसार 97 % OBC में प्रोफ़ेसर के पद अब भी खाली है। (विस्तृत सांख्यिकी के लिए संलग्नित सूची देखें)

विगत दिनों सत्यहिंदी कॉम में प्रीति सिंह इस वर्ष के मार्च महीने में एक लेख लिखी थी। उस लेख में लिखा था कि देश के 44 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6,074 पद रिक्त हैं, जिनमें से 75 प्रतिशत पद आरक्षित श्रेणी के हैं। अन्य पिछड़े वर्ग के आधे से ज़्यादा पद खाली पड़े हैं। प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट में ओबीसी, एससी, एसटी की स्थिति और ख़राब है, जहाँ इस वर्ग के लिए सृजित कुल पदों में 60 प्रतिशत से ज़्यादा खाली पड़े हैं, जबकि अनुसूचित जनजाति के 80 प्रतिशत पद खाली हैं।

तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 15 मार्च 2021 को ओडिशा के कोरापुट से कांग्रेस सांसद सप्तगिरि शंकर उलाका, केरल के चालाकुडी लोकसभा से कांग्रेस के सांसद बैन्नी बेनहन और तमिलनाडु के विरुधनगर लोकसभा से कांग्रेस सांसद बी मणिक्कम टैगोर की ओर से पूछे गए कई सवालों के जवाब में विस्तार से ब्योरा दिया। निशंक ने कहा कि नियुक्तियों में एससी, एसटी, और ओबीसी के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 12 जुलाई, 2019 को केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 अधिसूचित किया गया, ताकि विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में शिक्षक संवर्ग में सीधी भर्ती में पदों का आरक्षण प्रदान किया जा सके। इसके बाद ओबीसी आरक्षण सभी स्तरों पर लागू किया गया।

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इसके बाद यूजीसी ने 4 जून, 2019 को अपने अ.शा. पत्रांक एफ. 1-14/2019 (सीपीपी-2) द्वारा भर्ती के लिए चयन प्रक्रिया और समय सीमा निर्धारित करते हुए विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और संबंधित विश्वविद्यालयों में संकाय की भर्ती के लिए दिशानिर्देश तैयार किए, जो सभी विश्वविद्यालयों को भेजे गए। विश्वविद्यालयों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया कि विश्वविद्यालयों के साथ संबद्ध कॉलेजों में रिक्त पदों को जल्द से जल्द भरा जाए। इसके बाद यूजीसी ने 31 जुलाई 2019, 7 अगस्त 2019, 5 सितंबर 2019 और फिर 22 अक्टूबर 2019 को पत्र लिखकर विश्वविद्यालयों और उनसे संबद्ध कॉलेजों में रिक्त पदों को जल्द भरने पर भर्ती प्रक्रिया की स्थिति यूजीसी के विश्वविद्यालय गतिविधि निगरानी पोर्टल पर अपलोड करने को कहा।

यूजीसी ने जून 2019 में स्पष्ट रूप से सभी विश्वविद्यालयों को पत्र लिखकर रिक्तियाँ भरने के लिए 6 महीने का वक़्त दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर दिशानिर्देशों का उल्लंघन होता है तो अनुदान रोक दिया जाएगा। उसके बावजूद 15 मार्च 2021 तक 42 विश्वविद्यालयों में 6,074 पद खाली थे और इनमें से 75 प्रतिशत पद आरक्षित श्रेणी के थे।

उससे पहले एक खबर और पढ़ा था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने शिक्षा का स्तर सुधारने के संबंध में नई पहल की है। इसके तहत रिक्त पदों को प्राथमिकता से भरने के निर्देश दिए गए हैं। देश के सभी विश्वविद्यालयों और डीम्ड विश्वविद्यालयों के प्रमुखों को पत्र लिखा गया है। शिक्षण संस्थानों में खाली पदों की पहचान से लेकर उम्मीदवारों के चयन तक का शेड्यूल मुहैया कराया गया है। संस्थानों को छह माह की समय सीमा में ये पद भरने होंगे। आयोग के निर्देशों की अवहेलना करने वाले संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनुसार सबसे पहले खाली पदों की जानकारी पांचवे माह में साक्षात्कार आयोजित करने से लेकर चयनित उम्मीदवारों की अंतिम सूची जारी करना होगी। इसके बाद अगले यानी छठे महीने के अंत तक नियुक्ति पत्र जारी करना होगा।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सामान्य और आरक्षित श्रेणी के पदों को भरते समय रोस्टर नियमों का पालन करने के निर्देश भी दिए । वैसे आयोग उच्च शैक्षिक संस्थानों में अनुभवी और विशेषज्ञ शिक्षा-संकाय की कमी को लेकर चिंता भी जताई और यह भी कहा कि इसे जल्द से जल्द सुधारना जरूरी है क्योंकि, आयोग के अनुसार, शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। आयोग ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रमुखों को इस आदेश पर तुरंत अमल करने को कहा भी कहा और धमकाया भी कि ऐसा न करने पर अनुदान वापस लिया जा सकता है। आयोग का मानना था कि देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों, डीम्ड यूनिवर्सिटीज और कॉलेजों में शैक्षणिक स्टाफ की कमी है। पर्याप्त स्टाफ न होने से वहां की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। एक अध्ययन के अनुसार देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में कम से कम पांच लाख पद खाली हैं। अगर 48 केंद्रीय विश्वविद्यालयों की बात करें तो वहां लगभग 5,000 पद खाली हैं। यूजीसी देश भर के 900 विश्वविद्यालयों और 40,000 से अधिक कॉलेजों की मानीटरिंग करता है। उस रिपोर्ट में प्रो. रजनीश जैन, सचिव, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कहा भी कि “उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा के घटते स्तर का प्रमुख कारण पर्याप्त टीचिंग स्टॉफ न होना है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने और फैकल्टी की कमी दूर करने के प्रति यूजीसी गंभीर है। इसलिए हमने देश के सभी विश्वविद्यालयों को पत्र लिखकर 6 माह में भर्ती प्रक्रिया पूरी करने को कहा है।”

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चलिए, सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न पर – क्या आपने कभी रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूजपेपर्स फॉर इण्डिया के अधीन कोई 1,18,239 प्रकाशनों – समाचार पत्रों और पत्रिकाओं – और कोई 850 टीवी चैनलों में पढ़ा या सुना की देश के राज्यों की विधान सभाओं, विधान परिषदों, राज्य सभा अथवा लोक सभा में विधायकों या सांसदों का पद मुद्दत से रिक्त पड़ा है। कभी आपने पढ़ा या सुना कि अनेकानेक पत्राचार के बाद भी देश का निर्वाचन आयोग उक्त रिक्त पदों को भरने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है? कभी आपने सुना, पढ़ा कि देश की राजनीतिक पार्टियां, या उसके अध्यक्ष, कार्य कर्त्ता दिल्ली के सरदार पटेल चौक के बाएं तरफ स्थित भारत का निर्वाचन आयोग के विशालकाय भवन के सामने रिक्त पदों को भरने के लिए प्रदर्शन किये हों? कभी आप चश्मदीद गवाह हुए की भारत का निर्वाचन आयोग के सामने 105 डिग्री कोण पर स्थित पार्लियामेंट थाना के सामने धरना दिए हों? शायद नहीं और जीवन पर्यन्त न कभी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में पढ़ेंगे या चौबीस घंटे-सातो दिन चलने वाले टीवी चैनलों पर सुनेंगे ही – क्योंकि भारत का निर्वाचन आयोग “सतर्क” है ताकि देश में “प्रजातंत्र” जीवित रहे ।

बहरहाल, आज देश के सभी विधान सभाओं में सम्मानित सदस्यों की कुल संख्या 4,123 हैं। इनमें 141 स्थान रिक्त हैं। लेकिन ‘मुद्दत’ से नहीं, बल्कि ‘कुछ दिनों’ से। इसी तरह 788 सांसदों की संख्या में तीन स्थान रिक्त हैं। देश के सभी राजनीतिक पार्टियों को, चाहे आंचलिक हों अथवा राष्ट्रीय, उन्हें भारत के निर्वाचन आयोग पर विश्वास है कि वह देश की राजनीतिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलने. चलाने के लिए कोई भी कुर्सी खाली नहीं रहने देंगे – सवाल कुर्सी की है और एक-एक कुर्सी प्रजातंत्र के लिए महत्वपूर्ण है । परन्तु, देश का शिक्षा मंत्रालय अथवा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग या केंद्र अथवा राज्य सरकारों के अधीन शिक्षा व्यवस्था को अनुकूल रखने में लगे विभागों, विभागाध्यक्षों या अन्य सभी सम्मानित गणमान्य लोग भारत के निर्वाचन आयोग जैसा मुस्तैद नहीं हैं। अगर ऐसे होते तो आज यह हाल नहीं होता।

खैर, सुनते हैं सम्मानित शिक्षा मंत्री 26 मई, 2014 से 7 जुलाई, 2021 तक देश के पेट्रोलियम मंत्री थे। जब मंत्रालय में पदभार ग्रहण किये थे तक पेट्रोल की कीमत 73 रुपये 60 पैसे और डीजल 57 रुपये 84 पैसे प्रति लीटर था। जब पेट्रोलियम मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय की ओर उन्मुख हुए, बाज़ार में पेट्रोल 101 रुपये 84 पैसे और डीजल 89 रुपये 87 पैसे बिक रहे थे। पेट्रोल और डीजल की कीमत में बे-रोक-रोक बेहताशा वृद्धि हुई और यह वृद्धि जारी है। ईश्वर से प्रार्थना करूँगा की शिक्षा मंत्रालय में इनके कार्यकाल के दौरान “भारतीय शिक्षा का मोल” भारत के समाज में ही नहीं, बल्कि विश्व शिक्षा बाज़ार में भी सबसे ऊपर हो। भारत का आवाम, खासकर गरीब माता-पिता, गरीब छात्र-छात्राएं मैनिट शिक्षा मंत्री से उम्मीद भी करेंगे की शिक्षा का मोल बढ़े, शिक्षा का मूल्य नहीं नहीं !!! ऐसा होने से ही माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी का सपना “पढ़ेगा इण्डिया तो बढ़ेगा का इण्डिया” पूरा हो सकता है। (सांख्यिकी रतन लाल जी के फेसबुक वाल के सौजन्य से)

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