स्वाभिमान का श्रृंगार’ : जो ‘स्वाभिमान’ महारानी कामेश्वरी प्रिया में था, दरभंगा राज उस स्वाभिमान को फिर नहीं देख पाया (भाग – 50)

महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया और महाराज अधिराज कामेश्वर सिंह

दरभंगा: कुछ तो अलग बात थी दरभंगा के अंतिम राजा महाराज अधिराज सर कामेश्वर सिंह की मझली पत्नी ‘कामा’ में, जो विवाहोपरांत महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया बनी । तत्कालीन समाज के उपेक्षित, गरीब-निरीह लोगों के प्रति उनका आकर्षण था, जो महाराज को अपनी ओर आकर्षित किया। कुछ तो अलग व्यक्तित्व की मालकिन थी वह। कुछ तो चमत्कारिक स्वभाव रहा होगा उनमें। तभी तो महाराज अपने शरीर को पार्थिव होने के पूर्व तक अपनी सबसे छोटी पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी का “पहला खोइँछा” महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया की शरीर को पार्थिव होने के बाद भी, उन्हें आत्मा में जीवित रखकर, उनके गोसाऊन घर (घर में भगवती का स्थान) में अर्पित करने का आदेश दिए थे। “सुहागन” के रूप में महारानी अधिरानी कामसुन्दरी जब भी दरभंगा के महल से अपनी मायके (नैहर) जाती थी, महाराज के आदेशानुसार, अपने खोईंछे का पहला अंश मझली महारानी के घर में भगवती को अर्पित करती थी, फिर अपने घर में अपनी भगवती-पीठ में। यह क्रिया महारानी कामेश्वरी प्रिया के शरीर को पार्थिव होने से लेकर महाराजा के शरीर को पार्थिव होने तक जारी रहा। 

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम पर प्रकाशित अब तक के सम्पूर्ण श्रृंखला को मिथिला के लोग, दरभंगा के लोग काफी सराहे। विगत दो माह में कोई दस हज़ार से अधिक लोग इसे देखे, पढ़े, सराहे। लेकिन इण्डियन चार्टर्ड एकाउंटेंट ऑफ़ इण्डिया के अंतिम वर्ष के एक छात्र अलोक झा आज भी महारानी कामेश्वरी प्रिया की “अकस्मात् मृत्यु” से “क्षुब्ध” हैं, “स्तब्ध” हैं । महारानी कामेश्वरी प्रिया की मृत्यु के बारे में आज भी उनके घर में चर्चाएं होती हैं। मृत्यु के बाद उनके परदादा-परदादी किस तरह चीत्कार मार कर रोए थे, किस तरह उन्होंने अपनी बेटी की “अचानक मृत्यु” के बाद दरभंगा राज से, राज की भूमि से अपने आप को दूर कर लिए थे, कैसे वे आने वाली पीढ़ियों को दरभंगा राज की मिट्टी से अलग रहने का निर्देश दिया था, इस बात की चर्चा परदादा-परदादी तो किये ही, उनके पुत्र-पुत्रवघु (दादा-दादी) और उनके पुत्र-पुत्रवधु (माता-पिता) भी करते आये।

इसका जीवंत दृष्टान्त यह है कि उनके घर की “कामा” आज भी उन लोगों के बीच जीवित हैं। उनके परदादा-परदादी अपनी बेटी की मृत्यु के बाद तत्कालीन परिवार के लोगों को, उनके बाल-बच्चों को, आने वाली पीढ़ियों को “सचेत” कर दिया था कि कोई भी व्यक्ति भविष्य में दरभंगा राज की मिट्टी से सम्बन्ध नहीं बनाएगा। दरभंगा राज की किसी भी वस्तुओं से “उपकृत” नहीं होगा। “कामा” के विवाहोपरांत महाराजा ने मधुबनी के मंगरौनी गाँव के कामा के पिता श्री गंगाधर झा और माता श्रीमती त्रिपुरा ओझाइन जो भी सम्मान और सम्पदा दिए थे, कामा के पार्थिव शरीर को अग्नि में सुपुर्द होने के साथ ही दरभंगा राज को पुनः वापस कर दिए अथवा अपनी नज़रों से उपेक्षित कर दिए। उनके परिवार की आज की तीसरी और चौथी पीढ़ियां इस बात को “ब्रह्मवाक्य” मानती है। 

अलोक झा

अलोक झा आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम के पचासवें श्रंखला के लिए अपनी अश्रुपूरित आखों से अपनी “कामा दादी” के बारे में, अपने माता-पिता से, अपने दादा-दादी से, बड़े भाई-बहनों से, बड़े चाचा-चाचियों से, घर के बड़े-बुजुर्गों से जो भी सुने थे, उसे शब्द बद्ध कर प्रेषित किये हैं। मैं उनकी बातों को हुबहु यहाँ रख रहा हूँ। 

“शुरू करते है उनके  परिवार के इतिहास से जिनका नाता खण्डवला कुल से पूर्व से ही था। मैथिल श्रोत्रिय ब्राह्मण के पलिवार महिषी कूल के बहुत प्रतापी थे, अच्युत झा उर्फ घोंघे झा, जो महिषी में निवास करते थे। कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तत्कालीन महाराज शुभंकर ठाकुर ने उन्हें आग्रह कर सरिसब गाँव में बसने को कहा, जो कि उनका ससुराल था। साथ ही, उनके साथ पारिवारिक संबंध बनाया । संतानों की शादी अपनी संतान से किया। महाराज ने अपनी पुत्री की शादी भी घोंघे झा से की। यह भी कहा जाता है कि घोंघे झा के पौत्र तीन पीढ़ियों तक सरिसब गाँव में रहने के बाद किसी कारण वश अन्यत्र चले गए । उनके एक प्रपौत्र अमृत नाथ झा थे, जो पाही गाँव में बसे जिनके प्रपौत्र डॉक्टर सर गंगानाथ झा थे। घोंघे झा के एक पुत्र महि झा थे, जिनका विवाह खण्डवला कुल महाराज महेश ठाकुर के पोते ज्योतिर्वेद हेमंगद ठाकुर के पौत्री और हृषिकेश ठाकुर से हुआ जिसमें महि झा के एक पुत्र भवानी दत्त झा हुए। समयांतराल भवानी दत्त झा के पुत्र फाल्गुन झा मंगरौनी गाँव में जा बसे।  

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तत्कालीन प्रचलित नियमानुसार उनके संतान श्रोत्रिय नहीं रहे। फाल्गुन झा के प्रपौत्र पंडित गंगाधर झा थे।  पंडित गंगाधर झा के तीन पुत्रियां – परमेश्वरी, कामेश्वरी और बलेश्वरी – थी तथा एक पुत्र चन्द्र धर झा थे। परमेश्वरी देवी का विवाह चापहि  गाँव के जीव नाथ मिश्र के पुत्र दया नाथ मिश्र से  हुआ। जबकि कामेश्वरी के लिए महाराजा कामेश्वर सिंह का प्रस्ताव आया। लेकिन पिता पंडित गंगाधर झा उक्त प्रस्ताव को नहीं माने। वजह था महाराज कामेश्वर सिंह का ‘शादीशुदा’ होना और पंडित गंगा धर झा यह नहीं चाहते थे कि उनकी पुत्री का विवाह एक ऐसे पुरुष के साथ हो, जो पहले से ही विवाहित हो, यानी ‘द्वितीय वर’; किन्तु बाद में महाराज और अन्य लोगों के आश्वासन से पंडित गंगाधर झा मान गए और फिर कामेश्वरी का विवाह महाराज के साथ सन 1935 में सम्पन्न हुआ। 

महारानी कामेश्वरी प्रिया की माता पिता – पंडित गंगाधर झा और श्रीमती त्रिपुरा बौआसिन

मिथिला में ब्राह्मण समुदाय में “श्रोत्रिय” की श्रेणी में कौन रहेगा अथवा कौन नहीं रहेगा, इसका निर्णय महाराज करते थे। स्वाभाविक है पंडित गंगा धार झा को भी श्रोत्रिय बना दिया गया। उन्हें द्वितीय श्रेणी का सम्मान दिया गया। आम तौर पर महाराजा जब किसी को श्रोत्रिय बनाते थे, तो चौथी श्रेणी देते थे। परंतु पंडित गंगाधर झा और उनके दादा को द्वितीय श्रेणी से सम्मानित किये। साथ ही, उन्हें “श्रोत्रिपुरा” (सोइतपुरा) पे बसने को कहा।  महाराज के इस प्रस्ताव को पंडित गंगाधर झा नहीं स्वीकार किये। लेकिन, उन्होंने महाराज से मंगरौनी को ही सोइतपुरा का हिस्सा मानने के लिए आग्रह किया। पंडित गंगाधर झा के प्रस्ताव को महाराज अस्वीकार नहीं कर सके। महाराजा के सुरक्षा और रहने के दौरान अन्य सुख-सुविधाओं के लिए मंगरौनी में पंडित गंगाधर झा के घर पे एक पक्का मकान, चारो तरफ चारदीवारी से घिरा, एक विशालकाय मंडप बनाया गया, जहाँ महाराज कामेश्वर सिंह का विवाह कामा जी, यानी कामेश्वरी के साथ संपन्न हुआ और ”कामा” बन गई महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया।  

यह उल्लिखित है कि कामा अपने पिता के सानिध्य में शास्त्रों, पुराणों की अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी वो हर तरह निपुण थी। एक महारानी बनने के लिए उनमें समस्त गुण थे । कामेश्वरी किताब पढ़ने की बेहद शौक़ीन थी। उन्हें पेड़-पौधे-फूल-पत्ति से भी बहुत लगाव था।  वे बहुत दयावान थी और हमेशा दूसरे के मदद को तैयार रहती थी।

1934 में भयंकर भूकंप के करण पूरे समाज मे बहुत नुकसान हुआ था। महारानी लोगों की मदद के लिए बहुत कुछ की थी। इस बात का जिक्र दरभंगा ही नहीं, मिथिला के तत्कालीन विद्वद्जन अपने-अपने शब्दों में अनेकानेक स्थानों को अंकित किये हैं। कहा जाता एक बार वाराणसी गयी तो उन्होंने एक गरीब अपंग बच्चे को देख अपने सारे गहने उत्तर मदद में दे दी।  इसी तरह, एक दिन महारानी की एक दासी जो मंगरौनी की थी, गाँव से लौटी महारानी ने अपने परिवार का हाल पूछा तो उसने बताया कि उनके पिता की गाय मर गयी और इस बार खेती से भी उपजा नही हुआ है । ये सुनकर महारानी ने अपने नैहर की मदद चाही।  लेकिन महारानी यह जानती थी उनके पिता स्वाभिमान होने के कारण राज द्वारा मदद लेना पसंद नही करेंगे।  पूर्व की घटना जिसमें महाराज द्वारा किसी गाँव मे बसने ओर सैंकड़ो एकड़ जमीन के प्रस्ताव को ठुकरा चुके थे कामेश्वरी के पिता। अपने पिता को मदद करने के लिए महारानी महाराज के साथ, अथवा राज में महाराज के मदद के लिए, राज के क्रिया-कलापों में जो हिस्सा लिया करती थी, और उन्हें उस कार्य के लिए जो पारिश्रमिक मिलती थी, उसे अपनी कमाई मानकर मदद करने को निश्चय की। उन धनों से वे अपने छोटे भाई को भी मदद करती थी, जब तक वह नाबालिग थे। उनके पास जो भी राशि एकत्रित होती थी, दूसरों की मदद में खर्च कर देती थी। उनका यह व्यवहार उन्हें महाराज की ओर आकर्षण का एक महत्वपूर्ण सूत्र बन गया और वे धीरे-धीरे महाराज के बहुत करीब आ गयी। 

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महाराजा द्वारा निर्मित कराया गया पंडित गंगाधर झा और श्रीमती त्रिपुरा बौआसिन का घर जहाँ विवाह हुआ था महाराज का

महाराज उन्हें बहुत चाहते थे। दरभंगा राज से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों को यदि आज भी खंघाला जाए तो महाराज कामेश्वर सिंह और महारानी कामेश्वरी प्रिया का अनेकानेक दस्तावेज प्राप्त होंगे जो दोनों के द्वारा लिए गए फैसलों का गवाह होगा। तत्कालीन समाज का शायद ही कोई क्षेत्र होगा जहाँ कामेश्वर-कामेश्वरी का संयुक्त हाथ नहीं पहुंचा हो। कामेश्वरी एक निर्धन परिवार से जरूर आई थी, लेकिन अपने माता-पिता, दादा-दादी या परिवार के अन्य बड़े-बुजुर्गों के सानिग्धता में जो भी सीखी थी, वह संस्कार और स्वाभिमान के उत्कर्ष पर था। यह भी कहा जाता है कि महारानी इतनी दयावान थी कि गरीब बच्चों के लिए उन्होंने अपनी रॉयल्स रॉय कार भी दान में दे दी । 

विवाहोपरांत कामेश्वर-कामेश्वरी का जीवन बहुत सुखमय बीत रहा था। दरभंगा राज में हंसी-ख़ुशी का वातावरण था। सब अच्छा था। पांच-छः वर्ष कैसे बीते न महारानी समझ पाई और ना ही महाराज। एक “ख़ुशी” का वातावरण बन रहा था। चतुर्दिक खुशियों की खुसबू आ रही थी – अचानक “क्या”, “कैसे” “क्यों” हुआ और महारानी कामेश्वरी बीमार हो गयीं। यह बीमारी कुछ ही समय में उन्हें महाराज से दूर कर दरभंगा राज के दरबार से ईश्वर के दरबार में उपस्थित कर दिया। तत्कालीन लोगों का यह कहना था कि “जब महारानी अपनी अंतिम सांस ली, वे गर्भवती भी थी।” लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विगत 80 वर्षों में दरभंगा के लोग, मिथिला के लोग कभी चुन तक नहीं किये। महारानी की मृत्यु के बाद कोई बीस वर्ष तक महाराज कामेश्वर सिंह भी ‘शरीर’ से जीवित रहे – लेकिन ऐसा कौन कारण था जो उस आकस्मिक मृत्यु के कारण की तह तक पहुँचने में बाधक बना। यह सर्वविदित है कि उसी समय महाराज अपनी पहली पत्नी को त्याग दिए थे। अगर कामेश्वरी प्रिया गर्भवती थी, अगर उनका संतान इस मिट्टी पर आया होता तो शायद दरभंगा राज का हश्र यह नहीं होता जो आज है। 

उनके मरने के बाद महराज को बहुत धक्का लगा। वो टूट गए ओर उनकी याद में बहुत दान करने लगे। उन्होंने उनकी मृत्यु के कुछ दिन बाद ही ब्रिटिश महरानी को 15000 पौंड ऑर्फन रिलीफ़ फंड में दान दिए । फिर उनके याद में उनके जन्मस्थान पर श्यामा मंदिर और बड़ा सा पोखर 51 एकड़ के विशाल भूखंड पर बनवाया। इस मंदिर और पोखर की स्थापना उन्होंने महारानी के पिता के हाथों करवाया था, जिन्होंने इस यादगार धरोहर के लिए दान में 11 एकड़ जमीन भी दिए थे। शेष जमीन  महाराजा ने अन्य लोगों से ख़रीदा था । 

महारानी कामेश्वरी का बच्चों के प्रति स्नेह के ध्यानार्थ  महाराजा कामेश्वर सिंह ने 1940 में देश का ऐतिहासिक ओर्फनेज और पुअर होम – महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया पुअर होम – का नीव रखें। कामेश्वरी प्रिया पुअर होम की स्थापना दरभंगा के तत्कालीन महाराजा सर कामेश्वर सिंह ने अपनी चहेती पत्नीकी याद और सम्मान में, उनकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जनवरी 1942 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत एक सोसायटी के रूप में किये थे। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य  समाज के निराश्रित व्यक्तियों, भिखारियों, परित्यक्त बच्चों, विधवाओं, विकलांगों, वृद्धों के नैतिक – भौतिक – सामाजिक और आर्थिक उत्थान को पुनः प्राप्त करने  के लिए किया गया था।  महाराज की इक्षा थी की इस संस्था के माध्यम से सामाजिक और मानवीय सेवाओं द्वारा बीमार, दुर्बल और पीड़ित व्यक्तियों को मानवीय दृष्टि से सेवा किया जाए, उन्हें आश्रय प्रदान किया जाए। महाराज यह भी सोचे थे कि आने वाले समय में समाज के ऐसे निरीह और उपेक्षित व्यक्तियों को आजीविका के साधन के लिए भी मदद होनी चाहिए ताकि वे कभी भी दान पर निर्भर न रहें, परिवार पर बोझ बने रहें और एक सामान्य स्वास्थ्य के साथ सम्मानित जीवन जी सकें। 

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महाराजा द्वारा निर्मित कराया गया पोखर

महाराज चाहते थे कि पुअर होम में रहने वाले निवासियों को  सामान्य रूप व्यावसायिक या तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था करना, जिससे वे अपने पैर पर खड़े हो सकें। इस कार्य के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। इसमें स्वतंत्र अथवा अन्य धर्मार्थ लोगों, समूहों से भी मददलेने की बात की गयी थी यदि देखा जाए तो महाराज की असीम इक्षा थी की समाज में एक  ऐसे  जनमत तैयार किया जाए, उन्हें शिक्षित किया जाए ताकि समाज में पेशेवर भिखमंगे नहीं रहें।
उनकी यह भी कोशिश थी की आम तौर पर  भिखारियोंके साथ पाए जाने वाले बच्चों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण के बाद उन्हें समाज में बसाया जा सकता है ताकि बड़े होने पर उनके लिए उपयुक्त रोजगार मिल सके । और यही कारण है कि महाराजा ने इस कार्य के लिए ‘डैनबी ब्लॉक’ नामक भवन के निर्माण के लिए धन भी दान किया और गरीब घर को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 80 दुकानों का निर्माण किया। जिसे हराही मार्केट के नाम सेजाना जाता है। इन दुकानों से मिलने वाला किराया का उपयोग कैदियों के कल्याण और गरीब घर के रखरखाव के लिए किया जा सकता है।

महारानी कामेश्वरी प्रिया यानी अपने पिता की “कामा” की मृत्यु से उनके पिता को बहुत सदमा लगा। उन्होंने राज से भी दूरी बनानी शुरू की। अपने बेटे चन्द्रधर झा को भी वापस बुला लिए, जिन्हें मझली महारानी अपने साथ ले गयी थी जहां उन्होंने शिक्षा ग्रहण के साथ साथ खेल कूद एवं अंग्रेजी पे अच्छी पकड़ बनाई। महाराज के प्रिय महारानी की तीन बहनों पर वे सबसे छोटे एक मात्र भाई थे। महाराज भी उन्हें बहुत मानते थे। कहा जाता है कि चंद्रधर झा राज की ओर से पोलो भी खेलते थे।  यह भी कहा जाता है कि उनकी लंबी कद काठी खेल और बहुयामी प्रतिभा के कारण तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने उन्हें पुलिस में डीएसपी पद का ऑफर किया।  लेकिन अपनी पुत्री की आकस्मिक मौत से दुःखी पिता के लिए यह सभी उपहार व्यर्थ थे और वे अपने पुत्र को दरभंगा राज से निकल जाने को कहा, वापस बुला लिया।

श्यामा मंदिर

महाराजा ने श्यामा मंदिर और पोखर में बाबू चंद्र धार झा को चौथाई हिस्सा। चंद्रधर झा का गाँव में एक अलग सा सम्मान था। हिस्सा देने के पीछे यह इक्षा थी कि पोखर और मंदिर का बेहतर देखभाल हो। चंद्र धर झा भी बहन की याद में बनाई हुई धरोहर की रक्षा के लिए स्वीकार किया, परंतु महाराजा की भी ‘आकस्मिक मृत्यु’ के बाद उन्होंने उन्होंने उस हिस्से से स्वयं को “बेदखल” कर लिया। वे भी दरभंगा राज की मिट्टी से स्वयं को बहुत दूर कर लिए। आज उस तालाब के चारो तरह लोगों का कब्ज़ा है। आज उस अतिक्रमण को देखने वाला, रोकने वाला कोई नहीं है। आज महारानी कामेश्वरी प्रिया की याद में बनाई गई उस इमारत और परिसर में कहीं भी महारानी अधिरानी कामेश्वरी प्रिया का नाम भी उल्लिखित नहीं है। 

यह भी कहा जाता है कि महाराजा के विरह को देख उनके सलाहकारों ने तीसरी शादी के लिए उन्हें मनाया।  प्रारम्भ में महाराज अस्वीकार करते रहे।  लेकिन जब राजमाता का दखल हुआ फिर महाराज एक शर्त रखे – विवाह मंगरौनी ही करेंगे – और फिर उनकी तीसरी शादी मंगरौनी के ही कुलीन फाँदहवार खनाम कुल के हँसमणि झा के पुत्री महरानी कल्याणी से हुआ जो मात्रिक सम्बन्ध में कामेश्वरी प्रिया की बहन भी थी। और यही कारण है कि महारानी अधिरानी महाराज के जीवन-काल में जब भी अपनी मायके गईं, अपना पहला “खोइँछा” महारानी कामेश्वरी के घर की देवी के सामने ही समर्पित की, फिर अपने घर की देवी के पास …….क्रमशः 

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