क्या दरभंगा की अंतिम ‘महारानी’ कामसुंदरी ‘अंतर्मुखी’ हैं या ‘डर है कहीं कुछ बोल न दें’, उन पर ‘प्रतिबंध’ है ? (भाग-48)

महारानीअधिरानी काम सुंदरी जी (फोटो श्री अमल झा के फेसबुक वॉल से )

दरभंगा / पटना / दिल्ली :  इस कहानी में लगी तस्वीरों को देखकर मनोविज्ञान क्या, आम आदमी भी नहीं कह सकता कि इस तस्वीर की महिला “अंतर्मुखी (इंट्रोवर्ट)” है। यह भी नहीं कहा जा सकता है मोहतरमा को लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं है। यह कहना भी गलत होगा कि ये अपनी बातें लोगों से बांटना नहीं चाहती है, बताना नहीं चाहती है। आम तौर पर बुजुर्गों की दो आदतें महत्वपूर्ण होती है – एक वह ऊँची आवाज में सुनता है और दूसरे, उसकी हमेशा इक्षा होती है कि उसकी बातें सभी सुने। संभव है, उम्र के इस पड़ाव पर वह ‘कहानी गढ़ने’ की कला में पारंगत हो गया हो; यह भी संभव है कि ‘यादास्त की कमजोरी’ के कारण दो बातों को एक साथ मिलाकर भी कहता हो; यह भी संभव है कि वह झूठ बोलने में भी महारथ प्राप्त कर लिया हो; लेकिन इस बात को कतई नहीं स्वीकार किया जा सकता है कि वह बोलना नहीं चाहता है। जो आज यह कह रहे हैं, वे गलत शब्दों को गूँथ रहे हैं। शब्दों के गूंथने के क्रम में कहीं न कहीं उनका स्वार्थ अवश्य निहित होगा। क्योंकि आज समाज में ‘सुनने वालों की किल्लत’ तो हो ही गई है; समाज में, परिवार में कुछ ऐसे भी व्यक्तियों की उपस्थिति है जो नहीं चाहते कि घर के बड़े-बुजुर्ग समाज के लोगों से, मोहल्ले के लोगों से, सगे-सम्बन्धियों से मिले। मनोविज्ञान यह कहता है कि ऐसे लोगों को ‘भय होता है’ कि मिलने-जुलने के क्रम में वह कुछ ऐसी बातें न कह दें, जो उसके दिमाग में मुद्दत से दबी पड़ी है, तो क्या होगा? 

यह अलग बात है कि आज उनकी आयु 90+ वर्ष है और इस उम्र की छोटी-मोटी, हल्की-फुल्की साधारण शारीरिक अस्वस्थता के अलावे ये मोहतरमा बिलकुल स्वस्थ हैं। खुद अपना कार्य करती हैं। चलने-फिरने में कोई तकलीफ नहीं है। परन्तु करोड़ों-अरबों का सवाल है कि ”इनके इर्द-गिर्द रहने वाले, या जो इस उम्र में इनकी देखभाल करते हैं, सेवा-शुशुर्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं; वे आम लोगों को इनकी सानिग्धता क्यों नहीं होने देते? उनसे बात क्यों नहीं करने देते?”, जबकि आज संचार की सुविधा अपने उस उत्कर्ष पर है । 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनका अपना कोई संतान नहीं है। लेकिन आज भी बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, विश्व के लोग इन्हे, इनके पति को जानते हैं। विश्व के किसी कोने में बैठा एक आदमी इनके पति को जब गुगुल पर ढूंढेगा, हज़ारों-हज़ार पृष्ठ खुलेंगे – जो उनके पति के बारे में, उनके ससुर के बारे में लाखों-करोड़ों शब्दों को पसार देगा। यह लिखते, कहते, बताते थकेगा नहीं कि कितने बड़े “महामानव” थे वे सभी। यह अलग बात है कि इनके पति छः दशक पूर्व “संदेहास्पद अवस्था में ही सही” ईश्वर को प्राप्त हुए, उनके ससुर इसी माह जुलाई के तीन तारीख को कोई 92-वर्ष पूर्व मृत्यु को प्राप्त किये। 

अविभाजित भारत से विभाजित भारत तक, भारतीयों के अलावे ब्रितानिया हुकूमत के अधिकारियों के लिए ये महिला बहुत ही सम्मानित हैं। ये विश्व के सबसे बड़े दानशील राजा की पत्नी हैं। आज ये महिला अपने परिवार के बच्चों के लिए, अपने समाज के लोगों के लिए, दरभंगा के लोगों के लिए, मिथिला के लोगों के लिए, बिहार के लोगों के लिए, भारत के लोगों के लिए भले “महत्वहीन” हों; लेकिन आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम का मानना है कि “जिस दिन इनका जीवन्त शरीर “पार्थिव” हुआ, उस दिन दरभंगा के अंतिम राजा महाराज अधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की एकमात्र जीवित पत्नी का नाम भी धरती से समाप्त हो जायेगा। कल दरभंगा ही नहीं, विश्व के सारे संवाद एजेंसी, विश्व के अखबार, विश्व के टीवी 20 शब्द ही सही, 20 सेकेण्ड ही सही, लिखेंगे, बोलेंगे जरूर – क्योंकि इनके देहावसान के बाद महाराज अधिराज (डॉ) सर कामेश्वर सिंह के परिवार का अंत हो जायेगा, भले वे “संतानहीन” रहे। इनकी मृत्यु के बाद दरभंगा राज के चारदीवारी के अंदर-बाहर जो भी हैं, वे सभी राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह के रक्त के वंशज कहलायेंगे, और सनद रहे, राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा नहीं थे। वे महाराज अधिराज के एक भाई थे। जैसे आज की पीढ़ी में राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह के तीन पुत्र – जीवेश्वर सिंह (दिवंगत), याग्नेश्वर सिंह (जीवित) और शुभेश्वर सिंह  (दिवंगत) – थे या फिर उन तीनों के सन्तान एक-दूसरे के भाई-बहन हैं और सर कामेश्वर सिंह के पैतृक सम्पत्तियों के लाभार्थी। 

महारानीअधिरानी काम सुंदरी जी (फोटो श्री अमल झा के फेसबुक वॉल से )

दरभंगा के लाल किले परिसर से तथाकथित रूप से ही सही, “फेबिक्विक जैसा जोड़” रखने वाले लोगों का मानना है कि महारानी मिथिला के, दरभंगा राज के रीति-रिवाजों का निर्वाह करते, महाराजा की मृत्यु के बाद सार्वजनिक कार्यों में या फिर संवाद सूत्रों से, पत्रकारों से, टीवी वालों से किसी भी प्रकार का कोई ताल्लुकात नहीं रखीं। यही कारण है कि विगत चार दशकों में भारतीय संचार-प्रचार-प्रसार माध्यमों में, देश के दूसरी महारानियों को सार्वजनिक जीवन में आने के बाद भी, ये स्वयं को “परदे” के अंदर ही रखी। यह कैसे हो सकता है? आज मेवाड़, जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, ग्वालियर, पन्ना, डुमरांव, वर्द्धमान के राजा-महाराजाओं की वर्तमान पीढ़ियों की महिलाएं देश मानचित्र पर “जीवित” हैं, फिर दरभंगा के महाराज अधिराज की पत्नी क्यों अलग-थलग हो गयी? क्या उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है? 

दिल्ली में दरभंगा हाउस/कल्याणी हाउस या 7, मानसिंह रोड स्थित दरभंगा के महाराजाओं के ऐतिहासिक भवनों को, परिसरों पर सरकार का आधिपत्य होने के बाद, 90-वर्ष की आयु में दक्षिण दिल्ली के पंचशील इलाके में दो-दो आलीशान फ्लैट्स क्यों खरीदीं जबकि जीवन की अगली सांस का कोई पता नहीं है ? यहाँ रहकर तो महाराजा रामेश्वर सिंह या महाराज अधिराज कामेश्वर सिंह के तरह उन्हें भारतीय राजनीति में कोई हिस्सा नहीं लेना है, भारतीय राजनेताओं से वार्तालाप नहीं करना है, प्रशासन में हिस्सेदारी नहीं निभानी है, ना ही उन्हें भारत की अन्य महिलाओं की तरह, समाज सेविकाओं की तरह, शिक्षा-दीक्षा के प्रचारकों की तरह दिल्ली में गोष्ठी, संगोष्ठी, बैठक इत्यादि करनी है, लोगों से मिलना-जुलना है ? क्योंकि वे तो “इंट्रोवर्ट” हैं, किसी से “मिलना-जुलना नहीं चाहती, बात करना नहीं चाहती। 

दरभंगा के विद्वद्जन तो यह कहते हैं कि “पर्दा” प्रथा मिथिला के लिए, दरभंगा के लिए या फिर लाल कोठी के लिए नई बात नहीं थी। लेकिन इस प्रथा को तोड़ने के शुरुआत तो इनके ससुर महाराजा रामेश्वर सिंह ने ही किया था अपनी पत्नी को साथ ले जाने के लिए। महाराज रामेश्वर सिंह कोई 31-वर्ष तक दरभंगा के महाराजा रहे। वे सन 1898 से अपनी अंतिम सांस तक दरभंगा राज का राजा रहे। सन 1880 में, आज से कोई 141-वर्ष पहले, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होने के नाते वे अपनी पत्नी को छपरा ले जाना चाहते थे, जब वहां के मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए। ‘पर्दा-प्रथा’ बीच में खड़ा हो गया। लोग-बाग़ बोलने लगे। एक शिक्षित व्यक्ति की तरह, महाराज रामेश्वर सिंह तत्काल उस समस्या का निदान करने के लिए पत्नी को नहीं ले गए। 

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लेकिन जब उनका तबादला मुंगेर और भागलपुर हुआ, वे अपनी पत्नी को साथ ले गए। बाद में, वे सं 1885 में वे बंगाल के विधान परिषद्न के सदस्य नियुक्त हुए और फिर बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर के एक्सेक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य बने।  सं 1899 में भारत के गवर्नर जेनेरल ऑफ़ इण्डिया के कौंसिल के सदस्य बने, फिर बंगाल प्रोविंस का प्रतिनिधित्व करने के लिए 1904 में नन-ओफिसिएटिंग सदस्य बने। उनकी पत्नी हमेशा उनके साथ रहीं। उनकी पत्नी के लिए पर्दा प्रथा कभी बीच में नहीं आया और ना ही किसी कोने से कोई आवाज उठी। घर, समाज, बड़े-बुजुर्ग किसी कोने से कोई सवाल नहीं किये । ऐसी बात नहीं थी कि उनके सामने कोई सवाल नहीं था, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह था कि देश आधुनिकता की ओर अग्रसर हो चुका था, घर-समाज में बदलाव आ रहा था। महिलाएं भी उन बदलावों को अपने-अपने हितों के रक्षार्थ स्वीकार कर रही थी और महाराजी रामेश्वरी भी अपने पति के साथ एक अर्धांगिनी के रूप में सम्पूर्ण जबाबदेही निभाने के लिए सज्ज थी, भले ही वे बहुत अधिक शिक्षित नहीं थी। महाराजा रामेश्वर सिंह तो महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के पिता ही थे। इसलिए “पर्दा-प्रथा” को बीच में लाना उचित नहीं है। सवाल यह है कि कि महारानी वर्तमान स्थिति की सामना करने के लिए स्वयं सज्ज हैं अथवा नहीं या कोई उन्हें कमजोर कर रहा है, अपनी हुकूमत चला रहा है ?

नरगौना पैलेस में रखा महाराज अधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह का बिस्तर। फोटो: अमल झा के सौजन्य से

आने वाले समय में महाराजा रामेश्वर सिंह की चार डायरी, बड़ी महारानी की सं 1925 से लगातार कोई 34 वर्ष की डायरी, राजकुमार जीवेश्वर सिंह की चार डायरी, फिर चार दरबार डायरी, छोटी महारानी की डायरी, महाराजाधिराज की ‘नोटिंग’ आदि ऐतिहासिक दस्तावेजों पर जब दरभंगा के लाल किले के अंदर बहस होगी, वार्ता होगी, गोष्ठी होगी, संगोष्ठी होगी (जिसकी अपेक्षा दरभंगा राज की वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों से नहीं कर सकते हैं), तब तत्कालीन विद्वान और विदुषियों को ज्ञात होगा कि दरभंगा के लाल किले के अंदर कौन “लाल” था, कौन “सफ़ेद”, कौन अपना “ज्ञान बढ़ाना” चाहता था, कौन “परजीवी” के रूप में जिंदगी की साँसे गिनना चाहता था, कौन “दरभंगा राज का विकास” देखना चाहता था, कौन “विनाश करने में” अपनी भूमिका निभा रहा था। क्योंकि इस बात को किसी भी स्तर पर निरस्त नहीं किया जा सकता है कि महाराज अधिराज सर कामेश्वर सिंह को अत्यंत इक्षा रही होगी कि वे अपने पिता के तरह एक कुशल शासक बनें जहाँ उनकी पत्नी बगल में सज्ज खड़ी रहें । उनके पिता जिस तरह अपनी पत्नी (महाराज की माता) को जीवन के प्रत्येक पहलू पर दक्ष और सज्ज रखना चाहते थे, दक्ष और सज्ज बनाये; इसकी शुरुआत महाराज कामेश्वर सिंह भी अपनी पहली पत्नी से किये, जब वे दरभंगा राज की गद्दी पर अपने पिता की मृत्यु के बाद 3 जुलाई, 1929 को बैठे। 

महाराज चाहते थे कि उनकी पत्नी भी शिक्षित हो, बदलते वक्त में वे भी आधुनिकीकरण का अख्तियार करें।  लेकिन समय कुछ और चाहता था। आज तक वह गुथ्थी, गुथ्थी ही बना रहा (शायद डायरी इस बात को खोल दे) कि आखिर क्या हुआ जो महाराज अधिराज कामेश्वर सिंह बड़ी महारानी को “त्याग” दिए। साल था 1934, उस समय एक ओर जहाँ प्रकृति द्वारा उत्तर बिहार में भयंकर भूकंप आया था, जानमाल हुआ था; दूसरी ओर, बड़ी महारानी महाराज के लिए “आम महिला” हो गयी। शेष जीवन वे राज के चार दीवारियों के अंदर तो रही, सभी सुख भोगी, परन्तु कहा जाता है कि “पति सुख” प्राप्त नहीं हुआ। यह भी दुःर्भाग्य ही था कि जिस दिन महाराज की मृत्यु हुई, बड़ी महारानी उनके बगल में खड़ी नहीं थी। दोनों एक दूसरे को शमशान में ही देखे। एक का शरीर पार्थिव था, आत्मा निकल चुकी थी; जबकि महारानी शरीर से जीवित होते हुए भी आत्मा से पार्थिव ही थी विगत कई दशकों से।  

सं 1934 में ही महाराजा दूसरी शादी किये और मझली महारानी का आगमन हुआ। ये कुछ समय के अंदर ही महाराज के बहुत करीब आ गयी।  इनका दरभंगा राज के क्रियाकलापों, कामकाजों में बहुत दिलचश्पी थी । वे महाराज के साथ रहकर सीखना चाहती थी, सीखी भी । यही कारण है कि महाराज उस समय महाराष्ट्र की एक महिला गंगा बाई को राज दरभंगा लाये जो न केवल महारानी को समय के अनुसार शिक्षा का ज्ञान देती थी, बल्कि उन्हें उन सभी आधुनिक चीजों को, व्यवहारों को, वर्तावों को सीखने-सिखाने की कोशिश करती थी, जो न केवल महाराज को पसंद हो, बल्कि समय की मांग भी हो। महाराज का उन दिनों राजनीतिक लोगों से, संभ्रांतों से, अन्य राजाओं से मिलना-जुलना अधिक होता था। वे भरसक प्रयास करती थी की वे भी महाराज के साथ उनके कार्यों में, भ्रमण-सम्मेलन में हिस्सा लें। महाराज को अच्छा लगता था। लेकिन विधि का विधान कुछ और था। महज सात-आठ वर्षों का वैवाहिक जीवन के बाद ही सं 1941 में मझली महारानी की मृत्यु को प्राप्त कर लीं।  जिस सामाजिक, शारीरिक और मानसिक स्थिति में महाराज की यह पत्नी मृत्यु को प्राप्त की, वह परिस्थिति न केवल महाराजा के ह्रदय को चकनाचूर किया, बल्कि दरभंगा राज की तत्कालीन महिलाओं के सामने अनेक अनेक प्रश्न भी उपस्थित कर दिया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? महारानी की मृत्यु कैसे हुई ? किसकी भागीदारी थी? यह बात भी डायरी खोलेगा।  

बहरहाल, देश में आज़ादी के लिए अनेकानेक कोशिशें हो रही थी। महाराज आने वाले समय को भांप रहे थे। उनका अंग्रेजी-भारतीय अधिकारियों, राज नेताओं से अधिक मिलना जुलना हो रहा था – देश को भी महाराजा की जरुरत थी। इस क्षण वे पुनः विवाह करने के पक्षधर नहीं थे। दूसरी महारानी की मृत्यु के बाद महाराज अन्तःमन से टूट गए थे। और इसलिए वे स्वयं को अधिकाधिक काम काजों में व्यस्त रखना चाहते थे। आखिर माँ, वह भी “राजमाता”, अपने पुत्र के ह्रदय के तूफ़ान को कैसे नहीं समझती। लोगों का यह भी मानना था कि महाराज अपनी माता को बहुत अधिक सम्मान करते थे। उनका कथन ब्रह्मवाक्य के रूप में उन पर असर होता था। राज माता के कथन को महाराज टाल नहीं सके और “सुश्री कल्याणी जी” के साथ सं 1943 में तीसरी शादी किये और “सुश्री कल्याणी बन गईं महारानी अधिरानी काम सुंदरी।” 

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देश का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षिक वातावरण बहुत तेजी से बदल रहा था। देश में स्वाधीनता संग्राम भी उत्कर्ष की ओर उन्मुख था। क्या महिला, क्या पुरुष, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या बलवान, क्या कमजोर, क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित, क्या मजदूर, क्या अधिकारी, क्या बच्चे, क्या युवक – देश के कोने-कोने से लोग हाथों में तिरंगा लिए बाहर निकल रहे थे। देश के क्रांतिकारियों ने आज़ादी का बिगुल बजा दिया था। महाराज के मन से अपनी दूसरी पत्नी की प्रतिमा और प्रतिभा निकल नहीं रहा था। और इसीलिए वे चाहते थे कि बदलते समय में महारानी अधिरानी कामसुन्दरी भी ‘शिक्षित’ हों, ‘आधुनिक रिवाज’ का रियाज़ कर वे दक्ष हों, स्वयं को सज्ज करें; ताकि फक्र के साथ महाराज के बगल में खड़ी हो सकें। महाराज अधिराज कोई कसर नहीं छोड़े। यह भी कहा जाता है कि इन्हे आधुनिक जीवन शैली से दक्ष और सज्ज करने के लिए उन्हें देश के अन्य राजाओं के परिवारों के साथ उठने-बैठने, मिलने-जुलने, घूमने-फिरने का पर्त्याप्त अवसर दिए। ग्वालियर, जयपुर, डुमराव, पन्ना, वर्द्धमान आदि राजा-महाराजों के परिवारों के साथ इनका बहुत बेहतर सम्बन्ध बना। सीखने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध हुआ, परन्तु वह हो नहीं सका जो महाराजा चाहते थे –  आधुनिकता से सज्ज और शिक्षित । यह सर्वविदित हैं कि महारानी अधिरानी कामसुन्दरी बहुत बेहतरीन फोटोग्राफर थी। वर्तमान कल्याणी निवास या फॉउंडेशन या पैलेस की दीवारों पर टंगी सैकड़ों तस्वीरें गवाह हैं। 

महाराजाधिराज दुर्गा पूजा के अवसर पर अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगौना (दरभंगा) स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। आज नरगौना पैलेस का वह रेलवे पटरी कहीं नहीं दिखेगी जहाँ कोई डेढ़-शताब्दी पूर्व दरभंगा के राजा लक्ष्मेश्वर सिंह ट्रेन का चलन-प्रचलन प्रारम्भ किये थे और जहाँ उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह अपनी मृत्यु से पहले उसी ट्रेन से नरगौना पैलेस के परिसर में उतरे थे। फिर कभी वे वापस नहीं जा सके कलकत्ता और उनका पार्थिव शरीर अपने पूर्वजों के पास पहुँचने के लिए माधवेश्वर में अग्नि को सुपुर्द किया गया। महाराजाधिराज को यहाँ आने के बाद यहाँ की स्थितियां ”सामान्य” दिखी थी अथवा नहीं, यह तो महाराजाधिराज ही जानते थे अथवा उनकी दोनों ‘जीवित’ महारानियाँ – महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुन्दरी। महारानी राज लक्ष्मी जी की मृत्यु महाराजाधिराज की मृत्यु से 14 वर्ष बाद सन 1976 में हुई, जबकि महारानी कामेश्वरी प्रिया की मृत्यु महाराजाधिराज के जीवन काल में सन 1941 में ही हो गयी। सबसे छोटी और तीसरी महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं । महाराजाधिराज का हँसता, मुस्कुराता, मानवीय, दार्शनिक स्वरुप जीवित शरीर पहली अक्टूबर 1962 को आश्विन शुक्ल तृतीया 2019 को नरगौना पैलेस के अपने सूट के शौचालय-स्नानागार के नहाने के इसी बाथटब में मृत पाया गया था।

महाराज का मिथिला विश्वविद्यालय -फोटो: सुधांशु झा

वह “बाथ-टब” विगत उनसठ वर्षों से नित्य सुबह-शाम, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक, दरभंगा राज के कुलदेवता से, राज-परिसर में स्थित देवी-देवताओं से, प्रदेश में आने-जाने वाले शीर्षस्थ राजनेताओं से, दर्जनों मुख्यमंत्रियों से, आला-अधिकारियों से, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे प्रधानमंत्रियों से करबद्ध प्रार्थना करते आ रहा है, कहता आ रहा है “मैं अपनी मृत्यु के बाद अपने पार्थिव शरीर के साथ वह कलंक नहीं ले जाना चाहता हूँ कि मैंने मिथिला नरेश, दरभंगा के अंतिम ‘संतानहीन’ राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को मारा है। वे अपने जीवन की अंतिम सांस हमारे इस प्रांगण (बाथटब) में लिए। दया करो हे भगवान्,” यह रोता-बिलखता आवाज इस ‘निर्जीव बाथटब’ का है। इस बाथटब के ऊपर ‘क़त्ल’ का आरोप है। 

अपनी मृत्यु से पूर्व 5 जुलाई 1961 को कोलकाता में महाराज अधिराज ने अपनी अंतिम वसीयत की थी। वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। 

महाराजाधिराज अपनी मृत्यु से पहले अपनी पत्नियों, परिवार के लोगों के लिए “अपेक्षित” धन-दौलत बाँट दिए। शेष दरभंगा के लोगों के लिए दे दिए ट्रस्ट के अधीन जो मानव कल्याण के लिए निमित्त बनाये। कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा, अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवास होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सों में बांटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवासी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह , राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था । 

महाराजाधिराज द्वारा बनाये गए दस्तावेज के अनुसार : “I bequeath the property mentioned in Schedule ‘A’ to my wife Maharani Rajlakshmi for her life for her residence only. She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings solely without let or hindrance by anybody. After her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwara Singh absolutely.” और क्या चाहिए ? महारानी राज्यलक्ष्मी जी का देहावसान हो गया। दस्तावेज के अनुसार उक्त संपत्ति महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का हो गया “अब्सॉल्युटली” – आगे कुमार शुभेश्वर सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। स्वाभाविक है यह संपत्ति उनके दो पुत्रों को हस्तगत हुआ होगा। 

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उसी तरह, दस्तावेज में आगे लिखा है: “Similarly, I bequeath the property mentioned in Schedule ‘B’ to my wife maharani Kamsundari for her life for her residence only (and for no other purpose) and at her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwar Singh absolutely.” यहाँ, महारानी कामसुंदरी जी, अपने जीवन का करीब 90-बसंत देखी हैं, स्वस्थ हैं और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना मिथिलांचल का लोग करते हैं। लेकिन, महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का देहांत हो गया। स्वाभाविक है, महारानी कामसुंदरी जी के नाम की संपत्ति उनके जीते-जी अभी दूसरों को हस्तगत नहीं हो सकती है। महाराजा साहेब अपने वसीयत में अपनी दोनों पत्नियों के नाम संपत्ति तो कर दिए, लेकिन वसीयत में आगे यह भी लिख दिए कि: “Subject to the disposition and bequeath mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees, consisting of persons named and described in Schedule ‘C’ who will hold the property in trust for my two wives and the children of my aforesaid three nephews.” यानी महाराजाधिराज अपनी दोनों पत्नियों को जो भी सम्पत्तियाँ दिए, उसकी सम्पूर्ण देखरेख के लिए “ट्रस्ट” बना दिए।  यानी महारानियों को उनके जीते-जी उन संपत्तियों पर प्रत्यक्ष रूप से कोई “अधिकार” नहीं रहा। ट्रस्ट को अधिकृत किया गया कि वह “कैपिटल एसेट्स” से महारानी राजलक्ष्मी को आठ लाख रुपये और छोटी महारानी कामसुन्दरी को 12 लाख रुपये देगा, साथ ही, यह भी अधिकृत किया की “भवनों से सम्बंधित जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं उसका सम्पूर्णता के साथ मरम्मत, रखरखाव हो। 

दस्तावेज में आगे लिखा है: “Subject to the dispositions and bequeath mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees consisting of persons named and described in Schedule “C” who hold the property in trust for my two wives and the children of my aforesaid three nephews (sons of my deceased brother). The Trustees shall pay out capital assets Rs. 8 (eight) lacs to Maharani Rajyalakshmi and Rs. 12(twelve) lacs to Maharani Kamsundari, and keep the properties, particularly the house properties in proper repairs. On the demise of my two wives, one-third of the properties shall vest in the children of my youngest nephew Rajkumar Subheshwara Singh born of a wife of his own Brahman Community, and one-third will be divided between the children of my other two nephews, Rajkumar Jeeveshwara Singh and Rajkumar Yajneshwara Singh and one-third will remain in Trust for public charitable purposes. और फिर प्रारम्भ होता है “पारिवारिक जंग” – लेकिन एक छः पन्ने के दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एक मात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया। 

महाराज के नरगौना पैलेस में रखी ऐतिहासिक तस्वीरें

बहरहाल, महाराज अधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के 26 वर्ष बाद महाराज के सम्मानार्थ, उनके कार्यों को आगे ले जाने के इरादे से, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा को बरकरार रखने के लिए एक फॉउंडेशन बनाया गया। इस फाउंडेशन के नाम में महाराज अधिराज का नाम तो था ही, जो अगला नाम जुड़ा, वह ‘काम सुंदरी’ नाम नहीं था, बल्कि ‘कल्याणी’ हो गया और फॉउंडेशन का पूरा नाम हुआ – महाराज अधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन। गजब है न। 

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के “डोनर ट्रस्टी” हैं महारानी अधिरानी ‘काम सुंदरी’ यानी “कल्याणी” और संस्थापक तथा लाईफ-टाईम ट्रस्टी के साथ साथ मैनेजिंग ट्रस्टी थे प्रोफेसर हेतुकर झा। प्रोफ़ेसर झा की मृत्यु 19 अगस्त, 2017 को हो गयी। दो अन्य “इन्वाइटेड ट्रस्टीगण अपने-अपने कार्य काल को दो-बार पूरा कर अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। फॉउंडेशन के को-ट्रस्टी हैं महारानी को विगत दशकों से देखभाल करने वाले उदय नाथ झा। कहा जाता है कि महारानी कल्याणी जी संस्था के निर्माण के बाद कुछ समय के लिए थोड़ी “एक्टिव” अवश्य हुई थी, लोगों से मिलना-जुलना भी प्रारम्भ हुआ था; परन्तु कुछ समय बाद पुनः “पैसिव” हो गयी। महाराजी अपने जीवन के 90 वसंत पार कर चुकी हैं और वृद्धावस्था के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गयी हैं। लोगों का यह भी कहना है कि “खुदा-न-खास्ते अगर महारानी साहिबा की मृत्यु हो जाती है, तो वैसी स्थिति में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन की सम्पूर्ण सम्पत्तियों पर एकाधिकार “को-ट्रस्टी” का हो जायेगा।” मिथिला में आम तौर पर विवाहोपरांत ससुराल आने पर लड़कियों के नाम में ‘कुछ-न-कुछ’ परिवर्तन अवश्य होता है, जैसे कुछ हो अथवा नहीं ‘उपनाम’ बदल जाता है । दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह के साथ विवाह होने के बाद सुश्री कल्याणी, महारानी अधिरानी “काम सुंदरी” हो गयी और महाराजा की मृत्यु के 26-साल बाद सरकारी कागजात पर, यानि “महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह {कल्याणी} फॉउंडेशन” के “डोनर ट्रस्टी” के रूप में “काम सुंदरी” से पुनः “कल्याणी” हो गई। 

बहरहाल, दरभंगा के कल्याणी निवास सूत्रों के अनुसार महारानी के जीवन काल में जहाँ कई दर्जन सेवक-सेविकाएं थी, नौकर-चाकरों का जीवन, उसके परिवार, बाल-बच्चों का जीवन यापन होता था, पिछले वर्ष तक “जगदम्बा दाई के रूप में एक वृद्ध सेविका” बची थी, जो अब उनके साथ नहीं हैं। लोग-बाग़ यह भी कहते हैं कि महारानी कल्याणी जी को “भूलने” की आदत हो गई है। यह भी लोग कहते हैं कि वे एक बात के साथ दूसरी बातों को जोड़ देती हैं। लोगों से मिलना-जुलना नहीं चाहती। लोगों से, बच्चों से भी बात नहीं करती अधिक।” लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि “संतानहीन होने के बाद भी उनके पति के भाइयों के परिवार और उनकी पीढ़ियों के लोगों का इनसे कितना भावनात्मक, संवेदनात्मक सम्बन्ध बरकरार है। आज की पीढ़ियां जीवन के इस पड़ाव पर उनके साथ समय बिताते है? वे सभी महिला-पुरुष-बच्चे उनसे पूछते हैं कि दादी तुम्हें कौन सी चाय अच्छी लगती है? कहाँ की चाय अच्छी लगती है? बताओ यह किस बागान की चाय है ? काश !!! ऐसा हो पाता………क्रमशः

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