लोग हँसते हैं जब पढ़ते-सुनते हैं कि खेलों में दरभंगा के पुराने गौरव को वापस लाने की बात कर रहे हैं (भाग-25)

आई एफ ए शील्ड - दि हिन्दू के सौजन्य से 

दरभंगा / पटना : सन 1970 के दशक के मध्य से सन 1990 के दशक के मध्य तक दरभंगा के राज मैदान या फिर राम बाग मैदान में बाउण्ड्री-लाईन पर बैठे लोग जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर समाचार पत्र/पत्रिका प्रकाशन करने वाली कंपनी ‘दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड’ के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह का मैदान में खेले जा रहे ‘क्रिकेट’ मैच में गेंद को कैच करता था, अगली बस से अथवा कंपनी के पैसे से टैक्सी से वह ‘महामानव’ तक्षण पटना पहुंचकर एन एण्ड पी लिमिटेड में किसी महत्वपूर्ण पद पर आसीन हो जाता था। उसे बैठाने के लिए कंपनी के आला-अधिकारी पंक्तिबद्ध खड़े होते थे। उस महान खिलाड़ी की शैक्षिक योग्यता भले ही माध्यमिक भी नहीं हो, परन्तु पदनाम में ‘मैनेजर’ शब्द ‘लाभांश’ में मिलता था और उनकी कुल पूंजी ‘गोलाकार गेंद को हवा में” पकड़ना । 

मैदान में अगर अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक द्वारा ‘गली में खेले गए बॉल’ पर वहां दर्शक-दीर्घा में उपस्थित ‘दी एन एण्ड पी लिमिटेड के अधिकारियों से त्रस्त कर्मचारी (यदि अधिकारी उन्हें कार्य करने को कहते थे जिनके लिए उनकी नियुक्ति हुई थी, तो वे इसे अत्याचार समझते थे) अगर चार बार ”वाह सरकार – वाह सरकार” कर उनकी ओर अपने दोनों हाथों को पीटते ताली बजाता था, तो अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक तत्काल प्रभाव से उस अधिकारी को संस्थान में दरकिनार कर देते थे। फोन पर ही प्रशासनिक-दंड मिल जाता था। 

परिणाम – नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के दोनों प्रकाशन – आर्यावर्त और इण्डियन नेशन – की प्रकाशन-गति जो कभी राजधानी एक्सप्रेस की तरह चलती थी, बिहार में जिसकी कभी तूती बोलती थी; प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर डाकबंगला चौराहे पर खड़े सरकारी अधिकारी थर-थर कापते थे; पटना-गया अथवा पटना-दरभंगा पैसेंजर ट्रेन की तरह चलते-चलते एक दिन हमेशा के लिए बंद हो गयी। सन 2000 की शुरुआती वर्षों में संस्थान की एक-एक ईंट बिक गई। कभी बिहार का आवाज कहने वाला अखबार अंतिम सांस लेकर मृत्यु को प्राप्त किया। प्रदेश व्यावसायिक घरानों के अख़बारों के गिरफ्त में आ गया। खैर यह बात उस अखबार के प्रति संवेदना नहीं रखने वाले लोग नहीं समझेंगे, चाहे मालिक की ही पीढ़ियां क्यों न हो !!

विगत दिनों दरंभगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की 113वें जन्मदिन पर पटना से प्रकाशित (दरभंगा संस्करण सहित) विभिन्न अख़बारों में महाराजाधिराज की तस्वीर छपी। यह भी छापा की फलाने दिन उनका जन्म-दिन है और विशेष कार्यक्रम का आयोजन भी है। यह देखकर ह्रदय बिह्वल हो गया। आत्मा कलपने लगा। महाराजाधिराज के अपने दोनों अखबार “आर्यावर्त और दि इण्डियन नेशन” पटना के फ़्रेज़र रोड पर मांस-हीन हड्डी के रूप में कुछ इधर, कुछ उधर, यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखा। जैसे किसी ‘हाथी’ को, ‘बाघ’ को, ‘शेर’ को मृत्युपरांत दफनाने के क्रम में मिट्टी के अंदर प्रचुर मात्रा में नमक देकर सुपुर्दे-ख़ाक कर दिया जाता है, आर्यावर्त, इण्डियन नेशन अख़बारों की दशा ऐसी ही दिखी । समयांतराल उस जीव का हार-मांस मिट्टी में मिल जाता है। आवक-जावक लोग उसके अस्तित्व को तब तक भूल गए होते हैं। नई पीढ़ी आ गयी होती है। आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। 

उस दिन महाराजाधिराज के सबसे चहेते और छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह (अब दिवंगत) के छोटे बेटे कपिलेश्वर सिंह दरभंगा में आयोजित एक कार्यक्रम में कहते हैं कि “वे खेल के क्षेत्र में दरभंगा राज के पुराने गौरव को वापस लाना चाहते हैं।” सुनकर, पढ़कर मैं ही नहीं, दरभंगा के लोग ही नहीं, मिथिलांचल के लोग ही नहीं, सम्पूर्ण प्रदेश के लोग अपनी हंसी छिपा नहीं सके। मैं भी खुद को नहीं रोक रखा। बात ही कुछ ऐसी थी हंसी का आगमन भी स्वाभाविक था। कपिलेश्वर सिंह की उक्ति एक अखबार में प्रकाशित था। काश महाराजाधिराज द्वारा स्थापित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार आज जीवित होता तो शायद उनकी बातों को बहुत ही तवज्जो के साथ प्रकाशित करता।  लेकिन दुर्भाग्य दरभंगा राज का भी और महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के लाभार्थियों का भी – अखबार का नामोनिशान तक मिट गया। अब उनकी बात दूसरों की मर्जी से प्रकाशित होता है, वह भी अगर समाचार पत्र में प्रचुर मात्रा में विज्ञापन दिए हों। 

खैर, किसी दूसरे अखबार में लिखा था : मैं खेलों में दरभंगा राज के पुराने गौरव को वापस लौटाना चाहता हूँ। मेरे दादा राजा बहादुर विशेश्वर सिंह ने दरभंगा में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए काफी काम किया था। यहां मोहम्मडन स्पोर्टिंग, ईस्ट बंगाल और मोहन बागान जैसे क्लबों के खिलाड़ी खेलने आया करते थे। पिता राजकुमार शुभेश्वर सिंह ने दरभंगा में क्रिकेट की शुरुआत की थी और खिलाड़ियों को काफी मदद की थी। अब दरभंगा में खिलाड़ियों को सुविधाएं नहीं मिलती हैं और न ही अच्छे मैदान बचे हैं। खेलों में दरभंगा के पुराने गौरव को वापस लौटाने के लिए मैंने यहां अपनी जमीन पर एक स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स और एक शूटिंग रेंज बनाने का निर्णय लिया है. इसमें सरकार की भी मदद लेंगे।” बहरहाल, महाराजाधिराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को हुई और उनके भ्राता महाराजकुमार विशेश्वर सिंह की मृत्यु महाराजाधिराज के जीवन काल में ही हुई। कुमार शुभेश्वर सिंह भी कोई दो दशक पूर्व मृत्यु को प्राप्त किये। इन विगत समय के बीच गंगा से लेकर कमला-बालान, गंडक, कोशी आदि नदियों में न्यूनतन 20 और अधिकतम 60 वर्ष बाढ़ आई। मिट्टी समेत जान-जीवन को तहस-नहस कर दी उस बाढ़ ने। लेकिन आज मुद्दत बाद खेल की बात याद आयी। 

तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह दरभंगा के मैदान में क्रिकेट खेलते हुए। सिंह साहेब ‘गेंद फेंक रहे हैं’ 

बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार पंकज प्रसून कहते हैं: “अपने समृद्ध विरासत को संभाले रखना नई पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है। देश आजाद हुआ और उसके बाद लोकतंत्र कायम हुआ, राजशाही का दौर बीते दिनों की बातें हो गई और फिर कई राजे-रजवाड़ों ने लोकशाही में मजबूती के साथ अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए। राज परिवारों को आम जनता के साथ संपर्क और संबंध स्थापित करने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लेकिन लोकतंत्र का पहला उसूल यही है कि इसमें प्रजा के साथ आपका सीधा संपर्क होना चाहिए। बात अगर दरभंगा राजवंश की करें तो पिछले कई दशकों में इस परिवार के किसी व्यक्ति ने जनता के साथ सहज भाव से घुलने मिलने का प्रयास तक नहीं किया। कुछ खास तबके के लोगों के साथ ही राजवंश का संबंध कायम रहा, अगर आप आज भी दरभंगा के किसी आम आदमी से महाराज के परिवार के बारे में पूछें तो वे बहुत ज्यादा नहीं बता सकते हैं। हाल-फिलहाल में दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के पोते कुमार कपिलेश्वर सिंह ने जरूर कुछ हद तक प्रयास किया है। सोशल मीडिया व अखबारों के माध्यम से जानकारी मिलती रही है कि कपिलेश्वर सिंह ने अपनी सक्रियता दिखाई है। 

ये भी पढ़े   किसी दिन 'दूसरों के अख़बारों' में पढ़ेंगे 'रामबाग परिसर की जमीन बिक गई', गगनचुम्बी अट्टालिका बनेगी वहां (भाग-14)

प्रसून का कहना है कि “दरअसल दरभंगा एयरपोर्ट के नामकरण को लेकर राजनीति जोर-शोर से चल रही है। महाकवि विद्यापति के नाम पर दरभंगा एयरपोर्ट का नामकरण को लेकर कपिलेश्वर सिंह ने विरोध प्रकट किया। दरभंगा के राजघराने के समर्थकों की दलील ये है कि चूंकि दरभंगा एयरपोर्ट का निर्माण जिस जमीन पर किया गया है उसको महाराज ने ही दान स्वरूप भेंट किया था और इसलिए उनके सम्मान में दरभंगा एयरपोर्ट का नामकरण महाराज साहेब के नाम पर किया जाना चाहिए। इस मुद्दे पर कपिलेश्वर सिंह के नेतृत्व में सोशल मीडिया पर भी जोर-शोर से अभियान चलाया गया। इसके बाद कपिलेश्वर सिंह का रुझान दरभंगा के प्रति और बढ़ने लगा। कपिलेश्वर सिंह ने आनन-फानन में ये भी ऐलान किया कि दरभंगा में खेल-कूद के क्षेत्र में भी राजघराने की तरफ से सार्थक प्रयास किए जाएंगे।”

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम पंकज प्रसून को कहना चाहता है कि “महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्तियों के लाभार्थी आजतक यह नहीं बताए कि महाराजा की मृत्यु के तुरंत बाद दरभंगा एविएशन का अस्तित्व कलकत्ता के चौरंगी और दरभंगा में नेश्तोनाबूद हो गया – कुल रकम 28,14,194/- रुपये –  लेकिन कोई “चूं” तक नहीं किये। सम्पूर्ण दरभंगा राज में “चुप-चुप” का वातावरण बरकरार रहा, आज भी । यानी आप जो मर्जी लोगों को बताते रहें, बावजूद इसके कि महाराजाधिराज की मृत्यु के चौदह महीने भी नहीं बीते थे कि दरभंगा एविएशन का नामोनिशान मिट जाता है, दफ्तर बिक गया, हवाई पट्टी और हवाई जहाज के बदले “मूल्य” प्राप्त कर लिया गया  – और जिला के, प्रदेश के और देश के लोगों को बताते रहे कि दरभंगा हवाई अड्डा का नाम दरभंगा के अंतिम राजा के नाम पर क्यों नहीं किया जाए ? इसके लिए आंदोलन क्यों नहीं हो? क्यों भैया? अगर इतना ही है तो “दि 42 कलकत्ता” का नाम दरभंगा के महाराजा पर करा कर उन्हें सम्मानित करें। कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी की संपत्ति रुपये 10,40,00,000 /- में बेचा गया था और यहीं दरभंगा एविएशन भी था।

दस्तावेज के अनुसार, Estate of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh Bahadur of Darbhanga, Bihar (deceased) – Accountable person: Sole Executor Pandit Lakshmi Kant Jha, Ex-Chief Justice, Patna High Court” जो मूलतः दरभंगा राज की ‘चल-अचल सम्पत्तियों’ का एक सम्पूर्ण दस्तावेज है, के पृष्ठ 21 एनेक्चर – एल Business: The Deceased’s share in movable and immovable property as Sole proprietor of M/s Darbhanga Aviation में संस्थान का पता 42, चौरंगी रोड, कलकत्ता लिखा है और यह नन-सिड्यूल चार्टर एयरलाइन्स चलता है। इस दस्तावेज ke “नोट्स” men उद्धृत हैं जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि दरभंगा एविएशन नमक संस्था को आज से 58-साल पहले बेच दिया गया था और उसके एवज में विक्रेता को निर्धारित मूल्य प्राप्त हो गए थे। दस्तावेज में लिखा है:

2. Out of the assets of M/s Darbhanga Aviation a building (3, Middleton Street, Calcutta) has been sold in January 1964 for the gross sum of Rs. 21,25,000/- (including the cost of furniture and approximately 4 kathas of land, holding No. 42/1 Chowringhee Road, belonging to the deceased).

3. Out of the assets of M/s Darbhanga Aviation, the aerodrome together with land, building etc. etc has been acquired by the Government of India for which a total sum of Rs. 3.86,965/66 has been awarded as the value of the acquired properties.

4. The two aircrafts belonging to M/s Darbhanga Aviation have been requisitioned under Section 108 of the Defence of India Rules and price has been determined at Rs. 3,02,229/- by the Central Government so far, which has not yet been received. इन तीनों “नोट्स” को पढ़ने के बाद आप क्या कहेंगे? यह जमीन भी उन्ही की थी। हवाई पट्टी भी उन्ही का थी। परन्तु सबसे बड़ी बात यह है कि दरभंगा एविएशन को तो 28,14,194/- रुपये में बेच दिया गया था और यह बात दरभंगा राज के लोग बाग़ लोगों को बताये नहीं।

बहरहाल, प्रसून आगे कहते हैं: “ये सब तो ठीक है और इन प्रयासों की सराहना भी की जाए लेकिन सबसे महत्वपूर्ण विषय ये है कि क्या ये सब कवायद बस जोश में किए गए या फिर इसको लेकर कपिलेश्वर सिंह के मन में कोई ठोस योजना या विजन भी है? क्या ये किसी राजनीतिक एजेंडे को बढ़ाने की चाल है? कपिलेश्वर सिंह को ये पूरा अधिकार हैं कि वे राजनीति में आएं और उनके इस फैसले का स्वागत भी किया जाना चाहिए लेकिन सबसे पहले उनको अपना विजन क्लीयर करना चाहिए। दरभंगा या मिथिला को इस राजपरिवार ने बहुत कुछ दिया है और इस परिवार से दरभंगा को भी काफी उम्मीदें हैं। अगर कपिलेश्वर सिंह किसी साफ सुथरे विजन के साथ, दरभंगा को विकास के नए मापदंड पर ले जाने के निश्चय के साथ सक्रियता दिखा रहे हैं तो उनका स्वागत है लेकिन ये एक निरंतर प्रक्रिया है और इसमें काफी धैर्य की आवश्यकता है। इसके साथ ही कपिलेश्वर सिंह को एक बेहतरीन टीम भी बनाने की आवश्यकता है। मिथिला में चाटुकारों की कमी नहीं और अगर वे अपनी टीम में राजे-रजवाड़ों की तरह चाटुकारों को भरकर रखते हैं तब तो व्यक्तिगत तौर पर मुझे संशय ही नजर आ रहा है। योग्य व्यक्तियों के साथ अगर दरभंगा में नए बदलाव लाने के निश्चय की शुरुआत की जाए तो प्रयास जरूर सार्थक सिद्ध हो सकते हैं।”

ये भी पढ़े   दिवंगत युवराज जीवेश्वर की पुत्री कहती हैं: "शुभेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे खूंखार लुटेरे हो गए" (भाग-38 क्रमशः)

खैर, कपिलेश्वर सिंह द्वारा आयोजित उस समारोह में कोई उनसे पूछता कि जिस कालखंड में दरभंगा के राजा-महाराजाओं द्वारा जिला और प्रदेश में खेल-कूद की बात करते हैं वह महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह और राजा बहादुर विशेश्वर सिंह का समय था। यदि देखा जाय तो महाराजा महेश्वर सिंह बहादुर जिन्होंने 1850 से 1860 तक दरभंगा के महाराजा थे, उनकी मृत्यु (1860) के बाद महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह  पहले सं 1860 से 1898 तक दरभंगा राज का गद्दी संभाले और फिर उनकी मृत्यु (1898) के बाद रामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा बने, साल था 1898 जो अपनी अंतिम सांस 3 जुलाई, 1929 तक दरभंगा राज के महाराजा बने रहे। इस समय तक दरभंगा राज कोई 6200 किलोमीटर के दायरे में पहुँच गया था और कोई 7500 कर्मचारी राज दरभंगा की देखरेख करते थे। यह नहीं कहा जा सकता है कि उन दिनों में राज परिसर में ‘अवसरवादी’, ‘चाटुकार’, ‘लोभी’, ‘चमचे’ नहीं होंगे; क्योंकि जहाँ “चीनी है, वहां चींटी भी होगी ही। लेकिन महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ‘संतान-विहीन’ थे, स्वाभाविक है उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुज का गद्दी पर अधिकार होगा। महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु (3 जुलाई, 1929) के बाद सं 1929 से भारत को स्वतंत्र होने तक दरभंगा की राजगद्दी पर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह का अधिपत्य रहा। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को हुई यानी आज़ाद भारत में कोई 16-वर्ष सांस लिए। उनके जीते-जी ही उनके अनुज महाराजकुमार विशेश्वर सिंह का निधन हो गया और साथ ही, दरभंगा राज की जमीन्दारी भी चली गयी। ब्रितानिया सरकार सन 1947 के अगस्त महीने में गई, जमींदारी प्रथा सन 1951 में अंतिम सांस लिया और दसवें साल आते-आते महाराजाधिराज भी मृत्यु को प्राप्त किये। 

बड़े-बड़े बालों में तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह दरभंगा में अपने खेल प्रेमियों के साथ 

कहते हैं पहली अक्टूबर, 1962 तक, यानी महाराजाधिराज की अंतिम सांस तक ही दरभंगा, मिथिलांचल अथवा देश के अन्य भागों में दरभंगा के राजाओं-महाराजाओं द्वारा संरक्षित और पोषित खेलकूद के अवसर उपलब्ध थे। उन खेलों में कोई भी खेल “भारतीय” नहीं था। राजकुमार शुभेश्वर सिंह मेमोरियल क्रिकेट टूर्नामेंट, 2021 के अवसर पर प्रकाशित एक पत्रिका में बिहार विधान परिषद् के पूर्व पदाधिकारी रमन दत्त झा लिखते हैं: दरभंगा में टेनिस, बिलियर्ड्स, पोलो, स्क्वैश जैसे ”आधुनिक खेलों” का प्रादुर्भाव महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह और उनके छोटे भाई महाराज रामेश्वर सिंह के समय हुआ जो कालांतर में महाराज कामेश्वर सिंह और महाराजकुमार विशेश्वर सिंह के समय शीर्ष पर रहा। दरभंगा के लिए यह ऐतिहासिक दिन था जब खेलों का राजा पोलो में 1933 में दरभंगा कप की शुरुआत की गयी जो अभी भी कलकत्ता पोलो क्लब के द्वारा संचालित हो रही है, जिसमे देश विदेश के प्रतिष्ठित टीमें भाग ले रही ही। 

दत्त जी आगे लिखते हैं कि “इसी तरह भारत के लोकप्रिय खेल फुलबॉल में दरभंगा शील्ड और महाराज कुमार विशेश्वर सिंह फुलबॉल चैलेन्ज कप  देश की नामी फुलबॉल टूर्नामेंट थी, जिसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। दरभंगा शील्ड को मोहन बागान ने 1933 – 34 में जीता था। दरभंगा शील्ड भारतीय फुलबॉल एसोसिएशन से सम्बद्ध प्रतिष्ठित टूर्नामेंट के तहत जिसमें मोहन बागान और ईस्ट बंगाल का अक्सर फाइनल में सामना होता था। 1930-40 दशक के मशहूर फुलबॉल और क्रिकेट खिलाडी आमिया कुमार देब ने 1933-34 में  मोहन बागान की तरफ से इस कठिन टूर्नामेंट के दरभंगा शील्ड में खेलते हुए सेमी-फ़ाइनल और फ़ाइनल में  चार गोल किये थे जिसकी चर्चा फुलफाल में आज भी होती है। आमियो देब पहले फुलबॉल खिलाड़ी हैं जो 5 सितम्बर 1934 को दरभंगा शील्ड के लिए खेलते हुए हैट्रिक सहित 4 गोल किये और मोहन बागान 4-1 से जित दर्ज की। घुड़सवारी में तरफ क्लब के अधीन दरभंगा रेस 1400 भी है (जो घुड़दौड़ का नामी रेस है) जो अभी भी चल रहा है। 

इसी तरह, इंडियन फुलबॉल एसोसिएशन की स्थापना 20 सितम्बर 1935  में दरभंगा में हुई थी जिसके संरक्षक महाराज कामेश्वर सिंह और सचिव महाराज कुमार विशेश्वर सिंह मनोनीत हुए थे। दरभंगा राज के गेस्ट हॉउस में बैठक हुई जैसी अध्यक्षता मोइनक हक़ ने की। दरभंगा के पोलो टीम पोलो के प्रतिष्ठित कप “एजरा कप” और “कारमाईकल कप” में भाग लेती थी जिसमे राजा विशेश्वर सिंह  और महाराज कामेश्वर सिंह के अतिरिक्त जी पी डैनवी, कैप्टन माल सिंह जैसे खिलाडी थे और उन्होंने “कारमाईकल कप”जीती थी। जिसकी चर्चा देश विदेश की पत्रिका में होती थी। राजबहादुर विशेश्वर सिंह पोलो, फुलबॉल टेनिस घुड़सवारी, निशाने वाजी, कुस्ती के उच्च कोटि के खिलाड़ी के साथ उसके संरक्षक थे। खेल के प्रोत्साहन हेतु दरभंगा में खिलाड़ियों को सभी तरह की सुविधा दी जाती थी। दरभंगा में खेल के कई मैदान उस ज़माने में थे जिसमें राज मैदान, विशेश्वर मैदान, पोलो मैदान, कैडरबाद, दरभंगा मेडिकल कॉलेज ग्राऊंड आदि प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त नरगौना-रामबाग-बेला पैलेस में टेनिस कोर्ट, इंन्दोर गेम, और अन्य खेलों की व्यवस्था थी जहाँ खिलाडी अभ्यास करते थे और मैच खेला करते थे। 

दरभंगा राज की लोहट, सकरी चीनी मिल तथा अशोक पेपर मिल तलवाड़ा में भी खेल के सुन्दर प्रांगण और खेल को प्रोत्साहन करने के लिए क्लब थे। कुश्ती में भी दरभंगा का दबदबा था। पहलवान दुखहरन झा, फुचुर पहलवान, फूलो नामी पहलमान थे जिन्होंने दंगल में दरभंगा का नाम रोशन किया। दुखहरन झा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उन्होंने दारा सिंह को कुछ ही मिनटों में पछाड़ दिया। बाद के दिनों में राजा बहादुर के पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह जो खुद बिल्यर्डस, स्क्वाश टेनिस क्रिकेट बॉलीबॉल के उच्च कोटि के खिलाड़ी थे, अपने रामबाग किला के अंदर  खेल और खिलाड़ी को काफी प्रोत्साहित करते थे। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के क्रिकेट टीम में प्रथम कैप्टन कुमार शुभेश्वर सिंह के ही टीम के खिलाडी थे। 

लेकिन जब भारतीय खेलों की नजर से देखा जाय तो महारजा लक्ष्मेश्वर सिंह से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक उन्हीं खेलों को संरक्षण और पोषण मिला जो ‘मूलतः’ भारत का नहीं था और ब्रितानिया सरकार और उसके आला-अधिकारियों, उनकी पत्नियों के लिए था – मसलन टेनिस, बिलियर्ड्स, पोलो और स्कवाईस  । इसका संरक्षण, पोषण, बढ़ावा ब्रितानिया सरकार के समय में दरभंगा में प्रारम्भ हुआ और तत्कालीन सरकार की सहायता के बिना राजा-महाराजाओं की जमींदारी चलना मुश्किल था। 

ये भी पढ़े   “किताब” पढ़ना और “ई-किताब” पढ़ना: वैसे ही जैसे प्रेयषी को स्पर्श कर अन्तःमन से गपशप करना और पर्स में रखे उनकी तस्वीर को अपनी बात बताना
महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने भाई महाराज कुमार विशेश्वर सिंह के साथ 

अब सवाल यह है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद दरभंगा राज के चारदीवारी के अंदर जब महाराजाधिराज द्वारा इस पृथ्वी पर छोड़ी गयी सम्पत्तियों के लिए, उनके द्वारा निष्पादित अंतिम वसीयत को कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेशानुसार महाराजा की दोनों पत्नियों, उनके भाई के तीनो बच्चों और आने वाली पीढ़ियों में संपत्तियों का बंदरबाट हो रहा था, तब किसी को भी महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह और महाराजकुमार विशेश्वर सिंह द्वारा पोषित, संरक्षित खेल-कूद-क्रीड़ा की बात याद नहीं आई। उनके द्वारा अर्जित  सम्पत्तियों को जब कौड़ी के भाव में लुटाते गए, बेचते गए, खजाना खाली करते गए, समाज में पहचान की किल्लत होने लगी, घुटने-कद के नेता से ठेंघुने कद के नेता दरभंगा राज के लाल-किला जैसी दीवार के अंदर खुलेआम भ्रमण-सम्मलेन करने लगे – तो याद आया पुरखों का गौरव और गौरव गाथा। काश !! उस आयोजन में उपस्थित लोगों को यह भी बताते कि दरभंगा राज के महाराजाओं ने जितनी सम्पत्तियाँ छोड़ गए थे, उनकी मृत्यु के बाद हम लोगों ने उसे जमकर लुटाया और विगत छः दशकों में हमने महज सम्पत्तियों के लिए भारत के न्यायालयों में अपने सगे-सम्बन्धियों को खींचा।  काश, महाराजाधिराज या महाराज कुमार की कीर्तियों को, उनके गौरव गाथाओं को, दरभंगा राज की ऐतिहासिक गरिमा को आगे ले जाते – ऐसा नहीं हुआ। यह अत्यंत दुखद ही नहीं, मिथिलांचल के लिए कष्टकारक भी है। 
 
आज मुद्दत बाद अपने पुरखों को उद्धृत करते कहते हैं कि दरभंगा राज ने विभिन्न खेल गतिविधियों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। लहेरियासराय में पोलो ग्राउंड बिहार में स्वतंत्रता-पूर्व समय में पोलो का एक प्रमुख केंद्र था। कलकत्ता में एक प्रमुख पोलो टूर्नामेंट के विजेता को दरभंगा कप से सम्मानित किया जाता है। राजा बिशेश्वर सिंह अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। राजा बहादुर, हरिहरपुर एस्टेट के राय बहादुर ज्योति सिंह के साथ, 1935 में इसकी स्थापना के बाद महासंघ के मानद सचिव थे। माउन्ट एवेरेस्ट पर पहली उड़ान 1933 में हुई थी। इस अभियान का आयोजन सैन्य अधिकारियों द्वारा किया गया था, सार्वजनिक कंपनियों द्वारा समर्थित, और दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह बहादुर द्वारा बनैली राज के राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह के साथ मेजबानी की गई थी। एक जमाना था जब दरभंगा देश-विदेश में खेलों के लिए चर्चित था। यहां इंग्लैंड एवं अफगानिस्तान के अलावा पेशावर की टीमें पोलो, फुटबॉल, बिलियर्ड्स खेलने पहुंचती थीं। उस जमाने की कई खेल सामग्री आज भी याद दिलाती हैं। खिलाड़ी ट्रेन से नरगौना टर्मिनल स्टेशन पहुंचते थे। कई हवाई जहाज से पहुंचते थे। बिलियर्ड्स व अन्य इनडोर गेम के लिए दरभंगा क्लब चर्चित था। वर्ष 1925 से लेकर 1956 तक यहां खेल की गतिविधियां होती रहीं। वर्ष 1935 में अखिल भारतीय फुटबॉल फेडरेशन की नींव यहीं पड़ी थी। इसके संरक्षक तत्कालीन महाराज कामेश्वर सिंह बने थे। ख्याति प्राप्त खिलाड़ी विशेश्वर सिंह उर्फ राजा बहादुर संस्थापक बनाए गए थे। उन्हें फेडरेशन का मानद सचिव भी बनाया गया था।दरभंगा कप के नाम से कलकत्ता (कोलकाता) के खेल मैदान में प्रतियोगिता होती थी। लाहौर, पेशावर, चेन्नई (मद्रास), कलकत्ता (कोलकाता), दिल्ली, जयपुर और बंबई (मुंबई) के अलावा अफगानिस्तान, इंग्लैंड की टीमें भाग लेती थीं। इंग्लैंड से प्रकाशित तत्कालीन टेलीग्राफ में इसकी खबरें छपती थीं।

आज समय बदल गया है। आज चारों खेल मैदानों का स्वरूप बदल गया है। फुटबॉल के लिए बने इंद्र भवन स्थित खेल मैदान के बीच हेलीकॉप्टरों के उतरने के लिए हेलीपैड बना दिया गया है। लहेरियासराय का पोलो मैदान उस समय खेल गतिविधियों का मुख्य केंद्र था। आज  यहां पॉलीटेक्निक और उद्योग विभाग समेत अन्य भवन हैं। इस मैदान की देखरेख के लिए जलमीनार बनी थी। पश्चिम छोर पर पवेलियन और इसके पीछे पोलो प्रशिक्षण केंद्र। ये सभी खत्म हो चुके हैं। अस्तबल होमगार्ड भवन हो गया है। लहेरियासराय पोलो मैदान में नेहरू स्टेडियम, इंडोर स्टेडियम और टेनिस कोर्ट बन गया है। इसकी भी स्थिति जर्जर है। इनडोर गेम के लिए बना दरभंगा क्लब जर्जर है।  लेकिन आज न सिर्फ दरभंगा बल्कि पूरे बिहार की खेलों के मामले में स्थिति खस्ताहाल है।  जो था अब वह सब अतीत हो गया धीरे धीरे खेल के मैदान वीरान हो गए मैदान का उपयोग जान सभा प्रदर्शनी में होने लगा। 

अब एक नहीं कई करोड़ का प्रश्न है और वह यह कि “महाराजाधिराज को तो कोई संतान नहीं था। उनके भहै के तीन संतान थे, वह भी पुत्र। उन तीनों संतानों में सबसे बड़े जीवेशवर सिंह को पुत्र नहीं था, बल्कि सात बेटियां थीं। राजकुमार जीवशर सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं। मझले पुत्र राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह आज जीवित तो हैं, परन्तु एक कमरे में सिमित हैं। उनके तीन पुत्र हुए। पहला पुत्र रत्नेश्वर सिंह हैं। ये आज की पीढ़ी में सबसे बड़े युवराज है। इनसे छोटे भाई रश्मेश्वर सिंह अब इस दुनिया में नहीं है। उसे छोटे भाई अपने परिवार, भाई-भौजाई, बच्चे, माता-पिता सबों के साथ दरभंगा के 9-जी एम रोड आवास में रहते हैं। इस दृष्टि से महाराजा के भाई विशेश्वर सिंह के मझले बेटे के ये दोनों संतान हैं। जो तीसरे थे कुमार शुभेश्वर सिंह, अब इस दुनिया में नहीं है। उनके दो बेटे हैं। बड़ा अमेरिका में रहते हैं और छोटा दरभंगा और दिल्ली में। सवाल यह है कि क्या कपिलेश्वर सिंह बिहार के वरिष्ठ पत्रकार पंकज प्रसून के प्रश्नों का जबाब अपने कार्यों से दे पाने के लायक हैं? आखिर वे भी तो महाराजा के वंशज ही है और ‘अवसरवादी’, ‘चाटुकार’ ‘चतुर’ लोगों की किल्लत न उस ज़माने में दरभंगा राज में थी और आज तो आधुनिकता के रंग में रंगे होने से पहचानना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

……..क्रमशः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here