किसी दिन ‘दूसरों के अख़बारों’ में पढ़ेंगे ‘रामबाग परिसर की जमीन बिक गई’, गगनचुम्बी अट्टालिका बनेगी वहां (भाग-14)

किसी दिन दूसरों के अख़बारों में पढ़ेंगे "रामबाग परिसर की जमीन बिक गई", अब आलीशान ईमारत बनेगी वहां, क्योंकि अब अपना अखबार तो रहा नहीं, और जहाँ महाराजाधिराज का ह्रदय बस्ता था, आज मॉल खड़ा है, वह भी दूसरों का 

दरभंगा / पटना : बिहार की राजधानी पटना में महाराजाधिराज ऑफ़ दरभंगा सर कामेश्वर सिंह की ह्रदय की अमानत आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर की जमीन जिस तरह बिकी और आपको कानो-कान खबर तक नहीं हुई; या हुई भी तो आप ‘निद्रा से जग नहीं पाए’ और ईमारत की एक-एक ईंट मिट्टी में मिल गई, कर्मचारी चिल्लाते रहे; एक दिन सुबह-सुबह दूसरों के स्वामित्व के अधीन प्रकाशित अख़बारों में पढ़ेंगे “रामबाग परिसर की जमीन बिक गई, इमारतें ढहेंगी और एक सुन्दर आलिशान गगन-चुम्बी ईमारत”मिथिलाञ्चल की “प्रस्तावित राजधानी” में बनेगी क्योंकि अब न तो आपका अपना अखबार है और ना ही आवाज। 
  
दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने जीते-जी अपनी वसीयत में लिखे थे: “शिड्यूल ‘A’ में वर्णित संपत्ति उनकी पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी को उनके जीवंत पर्यन्त रहने के लिए दिया जाता है। वे इस महल का रहने के अतिरिक्त किसी और ने उद्देश्य में नहीं करेंगी। वे इस भवन में रह सकती हैं, यहाँ के सभी फर्नीचरों और अन्य सुख-सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं। कोई भी व्यक्ति उनके इस कार्य में किसी भी तरह का व्यवधान नहीं कर सकता है। जब उनकी मृत्यु हो जाएगी तब यह संपत्ति हमारे सबसे छोटे भतीजे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को सम्पूर्णता के साथ चली जाएगी।” शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनकी मृत्यु आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों की अंतिम सांस लेने के कोई दो वर्ष बाद 2004 में हुयी। 

महाराजा के वसीयत में रामबाग फोर्ट के अंदर का किला और उसका स्वामित्व 

मई 4, 2015 को पटना उच्च न्यायालय दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के रामबाग पैलेस से सम्बंधित एक याचिका को रद्द कर देता है। याचिका में महाराजाधिराज के भतीजे दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – वादी होते हैं; जबकि प्रतिवादी में कला, संस्कृति और युवा विभाग, बिहार सरकार के सचिव, विभाग के उप-सचिव, पुरातत्व विभाग के निदेशक, अधीक्षक (पटना अंचल), दरभंगा के जिला मजिस्ट्रेट, सब-डिविजनल अधिकारी और अंचल अधिकारी होते हैं। विषय होता है “सरकार द्वारा बिहार के एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स के अधीन दरभंगा के रामबाग पैलेस को एन्सिएंट मोन्यूमेंट की श्रेणी में रखने से पूर्व लोगों से उनका विचार, ऑब्जेक्शन माँगना।लोगों से आपत्ति मांगने से संबंधित सूचना के प्रकाशन के साथ ही दरभंगा राज फोर्ट में रहने वाले लोगों में खलबली मच जाती है, खासकर वे जो इस फोर्ट के प्रवेश द्वार के ठीक कोने पर दाहिने तरफ स्थित एक कोठी में रहते हैं। इस कोठी में कुमार शुभेश्वर सिंह रहते थे। उनकी मृत्यु के बाद आज उनका छोटा पुत्र कपिलेश्वर सिंह दरभंगा प्रवास के दौरान  ‘सपरिवार’ रहते हैं – यदा-कदा। महाराजाधिराज के वसीयत के हिसाब से रामबाग फोर्ट का मालिक वे दोनों भाई ही है। कपिलेश्वर सिंह के बड़े भाई, भारत में बही, बल्कि विदेश में रहते हैं।   

उक्त सूचना के प्रसार के तुरंत बाद दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – पटना उच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि बिहार सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी, आर्ट, कल्चर और यूथ डिपार्टमेंट द्वारा दिनांक 17 अगस्त, 2010 को जारी एक अधिसूचना, जिसमें उपरोक्त अधिकारी ने ‘आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन लोगों से ‘ऑब्जेक्शन’ मांगे थे की दरभंगा स्थित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के दरभंगा राज फोर्ट को क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय, निरस्त कर दिया जाय। 

बहस होता है। वादी के तरफ से यह कहा जाता है कि उक्त विभाग द्वारा जारी इस सूचना और आमंत्रण का कोई महत्व नहीं है। यह भी कहा जाता है कि उक्त कानून के सेक्शन 2 (a) के आलोक में उक्त दरभंगा राज फोर्ट को ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है। वादी पक्ष यह भी तर्क दिए कि नियमानुसार उसी स्थान / भवनों को उक्त नियमों के तहत ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है जो न्यूनतम 100-वर्ष पूरे नहीं किये हों। और इस नियम के तहत, वादी के अनुसार, चूँकि दरभंगा राज फोर्ट 100 वर्ष की आयु के नहीं हैं, अतः नियमनुसार यह ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता। 

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दरभंगा राज फोर्ट को आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय

वादी की “घबराहट” को मद्दे नजर रखते प्रतिवादी के तरफ से यह कहा गया कि विभाग और सरकार के तरफ से अभी महज “ओब्जेक्शन’ आमंत्रित किये गए हैं की दरभंगा राज फोर्ट को आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय ? ऑब्जेक्शन मांगने के पीछे लोगों का विचार आमंत्रित करना था, ताकि विभाग और सरकार इस दिशा में समुचित कार्रवाई कर सके। यदि किसी को इस दिशा में आपत्ति होगी, स्वाभाविक है, उनके विचार को भी विभाग और सरकार बहुत ही प्राथमिकता से अध्ययन और जांच करेगी ताकि निर्णय लेने में सरकार के तरफ से कोई चूक या भूल नहीं हो जाय । 

नियमों के अनुसार, कोई भी ऐसी चीज जो 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। इस ऐतिहासिक निर्णय का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के एंटीक्वटीज एंड आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1972 को जाता है। यह कानून 1976 से लागू हुआ। इसका मकसद भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बहुमूल्य वस्तुओं की लूट और उन्हें गैर-कानूनी माध्यमों से देश से बाहर भेजने पर रोक लगाना था। वैसे, इसके सिर्फ नकारात्मक और अनपेक्षित परिणामों का अतिरेक ही सामने आया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह कानून इतने कड़े और अभावग्रस्त नियमों से भरा हुआ है कि बेईमान ‘कला के सौदागर’ सरकारी अधिकारियों और कस्टम अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर अपना रास्ता निकाल ही लेते है। 

अधिनियम के अनुच्छेद 2(1) (अ) के अनुसार कोई भी ऐसी चीज जो ‘ऐतिहासिक महत्व’ की हो या 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। और हर किसी को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास ऐसी प्रत्येक वस्तु का पंजीकरण कराना और उसके चित्र खिंचवाना अनिवार्य होता है फिर भले ही चाहे वह कोई व्यक्ति हो, कोई संगठन हो या कोई संस्थान (उदाहरण के तौर पर कोई मंदिर) । कानून का अनुच्छेद 11 पुरावशेषों और कलाकृतियों के आयात, निर्यात और देश के भीतर भी एक जगह से दूसरी जगह लाने-ले जाने को नियंत्रित करता है और किसी भी व्यक्ति के ऐसा करने पर प्रतिबंध लगाता है। ऐसा करने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार या उसकी किसी एजेंसी को होता है।  यदि कोई व्यक्ति ऐसा करना चाहे तो उसे (यदि वस्तु काे देश के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है) इसके लिए जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी. यदि उस वस्तु का आयात या निर्यात किया जाना है तो विदेश व्यापार के महानिदेशक एवं कस्टम विभाग से अनुमति लेनी होगी। बहरहाल, इस नियम में अनेकानेक खामियों के मद्दे नजर, पूर्व केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के समय में कानून मंत्रालय के एक सेवानिवृत्त सचिव को काम सौंपा कि वे इस कानून की सभी खामियों को दूर करने, सुधार के उपायाें और नए सिरे से कानून बनाने पर प्रस्ताव बनाये जाए। हालांकि, सेवानिवृत्त न्यायाधीश मुकुल मुदगल समिति ने इस कानून में सुधार के लिए अपनी रिपोर्ट के रूप में 2012 में प्रस्तावित उपायों का जो चिट्ठा सौंपा था। 

वादी-प्रतिवादी की बातों को बहुत ही तन्मयता के साथ अदालत सुनता है। अदालत का मानना था कि नियम के सेक्शन 3 (1) के तहत राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की सूचना जारी करें। इन बातों का कोई महत्व नहीं है की किस नियम के किस सेक्शन, सब-सेक्शन के तहत क्या लिखा है। यह महज लोगों से आपत्ति लेने सम्बन्धी सूचना है। अदालत का कहना था कि अगर वादी पक्ष यह मानता है कि दरभंगा राज फोर्ट की आयु 100 वर्ष नहीं हुई है, और इसे किसी भी कानून के तहत एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है तो उन्हें स्वतंत्रता है कि वे इस सम्बन्ध में अपना सम्पूर्ण विचार, आपत्ति, सम्बद्ध विभाग के अधिकारी के पास प्रस्तुत करें। अदालत यह भी स्वीकार किया कि उस समय इस मामले में अदालत का हस्तक्षेप ठीक नहीं होगा। और इस तरह वादी राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह द्वारा दायर याचिका निरस्त हो जाता है।  

दरभंगा राज फोर्ट को आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय

बहरहाल, कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। लोगों का कहना है कि वर्त्तमान स्थिति के मद्दी नजर, दरभंगा राज के सभी लोगों की निगाह दरभंगा राज फोर्ट यानी करीब 85 एकड़ भूमि के बीचोबीच स्थित रामबाग का विशाल भवन है। आज भवन की कीमत जो भी आँका जाय, इस सम्पूर्ण क्षेत्र यानी दरभंगा के ह्रदय में स्थित 85 एकड़ भूमि की व्यावसायिक कीमत क्या होगी, यह आम आदमी नहीं सोच सकता है। वजह भी है : सरकारी आंकड़े के अनुसार “दरभंगा के लोगों का प्रतिव्यक्ति आय 15, 870/- रूपया आँका गया है और इतनी आय वाले लोग लाख, करोड़, अरब, खरब रुपयों के बारे में सोच भी नहीं सकते। वह जीवन पर्यन्त उस राशि पर कितने “शून्य” होंगे, सोचते जीवन समाप्त कर लेगा। परन्तु सोच नहीं पायेगा। 

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दरभंगा राज फोर्ट / किले के निर्माण के लिए कलकत्ता की एक कम्पनी को ठेका दिया गया  किन्तु, जब तीन तरफ से किले का निर्माण पूर्ण हो चूका था और इसके पश्चिम हिस्से की दीवार का निर्माण चल रहा था कि भारत देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी मिल गयी  और देश में प्रिंसली स्टेट और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया। परिणाम यह हुआ कि अर्धनिर्मित दीवार जहाँ तक बनी थी , वहीँ तक रह गयी और किले का निर्माण बंद कर दिया गया |

लगता नहीं है कि दरभंगा राज का ऐतिहासिक रामबाग किला अपने अस्तित्व का सौ-साल देख पायेगा। क्योंकि दरभंगा के राजा, महाराजा, महाराजाधिराज सहित उन सबों का जीवन काल भी औसतन 60-वर्ष ही रहा। वे अपने जीवन में 60 वसंत ही देख पाए, उसी तरह, जिस तरह, महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित बिहार का अपना संतान-तुल्य दो समाचार पत्र आर्यावर्त – इण्डियन नेशन और पत्रिका मिथिला मिहिर, जो अपने यौवन काल में राष्ट्र की राजनीति की दशा और दिशा तय करता था, वह भी 60 वर्ष की अवस्था आते-आते पटना के फ़्रेज़र रोड पर अंतिम सांस लिया। पटना के लोगबाग ही नहीं, दरभंगा राज के, महाराजा के परिवार के लोग बाग़, जो सर कामेश्वर सिंह की संपत्ति को खरोंच-खरोंच कर नामोनिशान मिटा रहे हैं, आज भी चश्मदीद गवाह हैं। 

आज भारत के न्यायालयों में, चाहे जिला न्यायालय हो अथवा भारत का सर्वोच्च न्यायालय, महाराजाधिराज की पत्नी, भतीजे, पोते-पोतियों, दामादों का एक-दूसरे के विरुद्ध जितने मुक़दमे लंबित हैं, सिर्फ महाराजाधिराज की सम्पति पर अधिपत्य के खातिर, शायद लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में आने वाले समय में दर्ज हो जाय, कोई आश्चर्य नहीं है । परन्तु, न “वादी” और न ही “प्रतिवादी” के चेहरों पर कोई सिकन है – आखिर संपत्ति तो मुफ्त में मिली है। आज दरभंगा के नागरिक ही नहीं, मिथिला के लोग बाग़ ही नहीं, बिहार की जनता अगर उन “लाभार्थियों” से कहे कि क्या वे अपनी खून-पसीने की कमाई से रामबाग साम्राज्य जैसा एक लघु-साम्राज्य ही सही, रामबाग की दीवार से 95-फीसदी नीचे, छोटे कद वाला दीवार ही सही, रामबाग परिसर के क्षेत्रफल से 90 फीसदी कम जमीनी सतह पर एक लघु-किला बना सकते हैं? शायद नहीं। क्योंकि अगर कोई भी “लाभार्थी” बिना महाराजाधिराज की संपत्ति का प्रयोग किये ऐसा लघु किला खड़ा करते हैं तो वह सच्ची श्रद्धांजलि होगी महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह को, महाराजा रामेश्वर सिंह को और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को। लेकिन आज बहुत विस्वास के साथ यह लिख सकते हैं कि आज की तारीख में कोई भी “लाभार्थी” इस कार्य को करने में “सक्षम” नहीं हैं। 

बेचारा यह पेड़ भी उपेक्षा का शिकार है 

कभी दिल्ली के लाल किला के तर्ज पर बना रामबाग का लाल किला आज अपने अस्तित्व को अपनी लुढ़कती-ढुलकती ईंटों के माध्यम से अपना भविष्य आंक रहा है। आज महाराजा के इस ऐतिहासिक परिसर में कई लोगों ने अपने-अपने घरों के पते में “रामबाग परिसर” लिखकर डाकखाना, दूरभाष केंद्रों, निबंधन कार्यालयों में प्रस्तुत कर दिए हैं। यहाँ तक कि इस परिसर में रहने वाले लोगबाग, जिन्होंने रामबाग परिसर की जमीनों को अपने नाम लिखाकर, अपन-अपना आशियाना बनाये हैं, शायद उन्हें भी राज दरभंगा के इतिहास के बारे में, आकाश छूती इस किले के चाहर दीवारी के बारे में कुछ भी पता नहीं होगा । हो भी कैसे? आज तो महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के लाभार्थियों और उनके परिवार, परिजनों को भी अपने पुरखों के बारे में, भारत के निर्माण में उनकी भूमिका के बारे में, शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के बारे में, देश भक्ति के बारे में, दानशीलता के बारे में, मिथिलांचल की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के बारे में कुछ भी पता नहीं है। हो भी कैसे? कौन बताएगा? क्यों बताएगा? उन बच्चों को तो शायद यह भी मालूम नहीं होगा कि इस लाल दीवार को कहाँ के मिस्त्री ने बनाया था ? वे कहाँ से लाये गए थे ? कितने दिनों में इसका निर्माण हुआ था। खैर। 

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भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने 1977-78 में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था , तब , इसकी ऐतिहासिक महत्वता को स्वीकार करते हुए किले की तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी | किले के अन्दर रामबाग पैलेस स्थित होने के कारण इसे ‘ राम बाग़ का किला’ भी कहा जाता है | किले के निर्माण से काफी पूर्व यह इलाका इस्लामपुर नामक गाँव का एक हिस्सा था जो की मुर्शिमाबाद राज्य के नबाब , अलिबर्दी खान , के नियंत्रण में था | नबाब अलिबर्दी खान ने दरभंगा के आखिरी महाराजा श्री कामेश्वर सिंह के पूर्वजों यह गाँव दे दिया था | इसके उपरांत सन 1930 ई० में जब महाराजा कामेश्वर सिंह ने भारत के अन्य किलों की भांति यहाँ भी एक किला बनाने का निश्चय किया तो यहाँ की मुस्लिम बहुल जनसँख्या को जमीन के मुआवजे के साथ शिवधारा, अलीनगर, लहेरियासराय, चकदोहरा आदि जगहों पर बसाया। किले की दीवार काफी मोटी है। दीवार के उपरी भाग में वाच टावर और गार्ड हाउस बनाए गए थे। 

अनेकानेक लेख प्रकाशित हैं इस किले के बारे में । किले की दीवारों का निर्माण लाल ईंटों से हुई है | इसकी दीवार एक किलोमीटर लम्बी  है | किले के मुख्य द्वार जिसे सिंहद्वार कहा जाता है पर वास्तुकला से दुर्लभ दृश्य उकेड़े गयें है | किले के भीतर दीवार के चारों ओर खाई का भी निर्माण किया गया था। उस वक्त खाई में बराबर पानी भरा रहता था। कहा जाता है कि महाराजा महेश ठाकुर के द्वारा स्थापित एक दुर्लभ कंकाली मंदिर भी इसी किले के अंदर स्थित है। कहा जाय है कि महाराजा महेश ठाकुर को देवी कंकाली की मूर्ति यमुना में स्नान करते समय मिली थी | प्रतिमा को उन्होंने लाकर रामबाग के किले में स्थापित किया था। यह मंदिर राज परिवार की कुल देवी के मन्दिर से भिन्न है और आज भी लगातार श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। किले के अंदर दो महल भी स्थित हैं | सन 1970 के भूकम्प में किले की पश्चिमी दीवार क्षतिग्रस्त हो गयी , इसके साथ ही दो पैलेस में से एक पैलेस भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गयी | इसी महल में राज परिवार की कुल देवी भी स्थित हैं | यह महल आम लोगों के दर्शनार्थ हेतु नहीं खोले गए हैं|वैसे दुखद बात यह है की दरभंगा महाराज की यह स्मृति है अब रख – रखाव के अभाव में एक खंडहर में तब्दील हो रहा है | शहर की पहचान के रूप में जाने वाले इस किले की वास्तुकारी पर फ़तेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे की झलक मिलती है |

बेचारा यह पेड़ भी उपेक्षा का शिकार है 

बहरहाल, दरभंगा राज की अन्य धरोहरों की तरह दरभंगा राज किला का स्वास्थ भी अच्छा नहीं है। महाराजाधिराज की सम्प्पतियों के बंटबारे के बाद, कोई भी लाभार्थी, महाराजा के समानार्थ ही सही, कभी दरभंगा राज फोर्ट के तरफ ध्यान नहीं दिए। सम्पूर्ण फोर्ट का परिसर आवक-जावक रास्ता बन गया। संरक्षण के अभाव में किले की दीवारें क्षतिग्रस्त होने लगीं। ईंटों को मिट्टी खाने प्रारम्भ कर दिए। जल-जमाव किले के दीवार को और भी कमजोर बना दिया है, और इसके ढहने का भी खतरा बना हुआ है | अनेकानेक स्थानों पर दीवारों के उपरी हिस्से में पीपल के पौधे अपनी जड़ो से दीवारों को कमजोर करते जा रहें हैं। इतना ही नहीं, दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के समय इस दरभंगा फोर्ट में पैर रखना एक सम्मान की बात होती है; आज उनकी मृत्यु के बाद राज परिवार के लोगों ने रामबाग  परिसर की कीमती जमीन को बेचना शुरू कर दिया। आज सैकड़ों मकान इस परिसर के अंदर दीखते हैं। उस मिटटी की जिसे महाराजा के समय पूजी जाती थी, आज उनके परिवार के लोग बाग़ के साथ-साथ उस परिसर में रहने वाले नित्य रौंदते हैं – आवक-जावक रास्ता है। इतना ही नहीं, अब तो होटल और सिनेमा घर भी बन गए हैं। 

………………क्रमशः 

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