पटना / दरभंगा : “एंड व्हेरेऐज आई हैव नो इस्सू” इस छः शब्दों को अपने वसीयत के दूसरे पन्ने पर लिखते, लिखाते समय दरभंगा के अंतिम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की आत्मा “दो-फांक” में अवश्य विदीर्ण हो गया होगा। परन्तु, महाराजाधिराज अपनी उस वसीयत में जिस प्रकार बहुत ही प्रमुखता, सम्मान, अपनापन के साथ यह उद्धृत किये कि “मेरे सबसे करीबी, मेरी अपनी दो पत्नियां हैं – महारानी राज्यलक्ष्मी और महारानी कामसुंदरी और मेरे दिवंगत भाई राजा बहादुर बिशेश्वर सिंह के तीन पुत्र – राज कुमार जीवेश्वर सिंह, राज कुमार येणेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह, जिसमें पहला सबसे बड़ा है और शेष दो अभी नाबालिग है”; आज की स्थिति में शायद ही कोई लिखता होगा, अपने भतीजों को ‘अपना’ कहता होगा, अपने सगे-सम्बन्धियों को ‘अपना स्वीकारता’ होगा क्योंकि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद उसी परिवार के लोगों ने महाराजाधिराज की ही सम्पत्तियों पर अपना-अपना अधिपत्य ज़माने के लिए, उन सम्पत्तियों को नेश्तोनाबूद करने से सम्बंधित कितने मुक़दमे प्रदेश के, देश के न्यायालयों में लंबित हैं, यह तो वादी और प्रतिवादी अधिक जानते हैं।
बहरहाल, कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा को महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के इस वसीयतनामा को लागु करने का एकमात्र अधिकार दिया गया । मिथिलांचल के लोगों का मानना है कि अगर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का अपना कोई संतान होता, अथवा किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते, तो शायद दरभंगा राज की सम्पत्तियों का उनकी मृत्यु के पश्चात जो हश्र हुआ, वह नहीं होता। मिथिलाञ्चल की स्थिति गर्त में पहुंची, वह नहीं अग्रसर होती। वसीयतनामा के लागु होने के बाद, अनेकानेक ट्रस्टों के निर्माण के बाद, जो-जो महानुभाव उसके कर्ता-धर्ता बने, सदस्य बने, संरक्षक बने, कोई भी महाराजाधिराज की आर्थिक, मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक, मानवीय, सांस्कृतिक गरिमा को एक कदम भी आगे ले जाने में सफल नहीं हुए। वजह था – सोच की किल्लत और सम्पत्तियों पर एकाधिकार ज़माने का होड़ ।
महाराजाधिराज की मृत्यु पहली अक्टूबर, 1962 को हुई। कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा 27 जून, 1963 को न्यायमूर्ति श्री लक्ष्मीकांत झा को एकमात्र एस्क्यूटर घोषित किया गया। मिथिलांचल के बड़े-बुजुर्ग, जिन्होंने महाराजाधिराज के समय-काल का प्रथम दृष्टा रहे हैं, उनके क्रिया-कलापों को देखे हैं, भले स्वीकार करें अथवा नहीं; लेकिन आज की पीढ़ी इस बात को कतई मानने को तैयार नहीं होगी कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद राज परिवार के लोगों ने महाराजा द्वारा स्थापित विरासतों को आगे बढ़ाने की कोशिश किये।
हां, इस बात को सभी स्वीकृत अवश्य करेंगे की उन दिनों भी राग-दरबारियों का साम्राज्य था, आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र फैले हैं। अंतर सिर्फ यह है कि महाराजाधिराज में दूरगामी सोच थी, तभी तो उन्हें अपनी मृत्यु का भी एहसास हो गया था। आज की पीढ़ी में दूरगामी सोच की बात छोड़ें, लघु-गामी सोच का भी सुखाड़ है और अगर ऐसा नहीं होता तो दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड संस्था के तत्कालीन अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक श्री कन्हैया जी (अब दिवंगत), श्री शुभेश्वर सिंह (अब दिवंगत) के बाद संस्था के निदेशक मंडल में “वे लोग नहीं दीखते जिन्होंने दिवंगत शुभेश्वर सिंह के समय में भी, पटना के फ़्रेज़र रोड स्थित विशाल दफ्तर में उनकी अनुपस्थिति में भी, उनके कक्ष में जूते खोलकर, गर्दन को जमीन की ओर रखकर, मूक-बधिर बनकर प्रवेश करते थे। उनकी हिम्मत नहीं थी कि उनके कक्ष में प्रवेश करते समय वे दरवाजों को, दीवारों को भी देख सकें, कुर्सियों को देखने, उस पर बैठने की कल्पना करने की बात तो कर ही नहीं सकते थे।
लेकिन, अठारह वर्ष पूर्व, जब पटना की सड़कों पर महाराजाधिराज द्वारा स्थापित दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड संस्था के तहत प्रकाशित आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, मिथिला मिहिर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का बंद हो रहा था, विशालकाय भवनों पर हथौड़ों और मशीनों से प्रहार हो रहा था, सैकड़ों कर्मचारियों, उनके परिवारों को भुखमरी के द्वार पर घकेला जा रहा था, कर्मचारियों के ”भविष्य-निर्माता” के रूप में, दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के तरफ से पाटलिपुत्रा बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रेषित “मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट एंड सेटलमेंट” पर प्रबंधन के तरफ से वे सभी लोग हस्ताक्षर करने हेतु पंक्तिबद्ध थे, हस्ताक्षर किये जो “उसी काल-खंड में जूता-उतारकर अध्यक्ष-सह-प्रबंध-निदेशक के कमरे में प्रवेश लेते थे।” समय बदल गया था। संस्था का नया मालिक मानसिक रूप से निःसहाय, कमजोर हो गया था। परजीवियों, शरणार्थियों, अवसरवादियों से चतुर्दिक घिरा था। हस्ताक्षर कर्ताओं में जिनका नाम उल्लिखित था वे थे: श्री एस एन दास, जो उस दिन निदेशक थे कंपनी के, श्री दिनेश्वर झा, मैनेजर; एम एम आचार्य, एक्टिंग सेक्रेटरी; श्री सी एस झा, एकाउंट्स ऑफिसर। सब समय है।
जबकि क्रेता पाटलिपुत्रा बिल्डर्स के तरफ से कंपनी के निदेशक श्री अनिल कुमार (स्वयं) और उनके एक प्रतिनिधि श्री आनंद शर्मा। दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमटेड के कर्मचारी यूनियन के तरफ से थे श्री गिरीश चंद्र झा (अध्यक्ष), दिग्विजय कुमार सिन्हा (जेनेरल सेक्रेटरी), श्री एस एन विश्वकर्मा, जॉइंट सेक्रेटरी, श्री रमेश चंद्र झा, जॉइंट सेक्रेटरी और बिहार वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के तरफ से हस्ताक्षर करता थे श्री शिवेंद्र नारायण सिंह (प्रेसिडेंट), श्री मिथिलेश मिश्रा (एग्जीक्यूटिव) ।
इन कागजातों को देखकर, हस्ताक्षरकर्ताओं का नाम देखकर, पढ़कर एक सबसे बड़ा अमूल्य प्रश्न यह उठता है कि “आखिर दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड का उस कारनामे की तारीख को कोई मालिक था, अथवा नहीं? उस भूखंड का कोई स्वंय था अथवा नहीं? अगर था तो इस करारनामे में संस्थान के प्रबंधकों, कर्मचारियों, उनके परिवार और परिजनों के रक्षार्थ संस्था का मालिक, पाटलिपुत्रा बिल्डर्स के साथ करारनामे का हिस्सा क्यों नहीं बना?
प्रबंधन के तरफ से जिन लोगों ने हस्ताक्षर किये, क्या वे सभी दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड की उस भू-खण्ड में मालिक भी थे? भूखंड के मालिक के बिना, संस्था का अधिकारी किस ‘विश्वास’ से करारनामे पर हस्ताक्षर कर सकता है? अगर वे सभी अधिकारीगण, जिन्होंने उस चार पन्नों के करारनामे पर हस्ताक्षर किये, कर्मचारियों के उतने विश्वास के पात्र होते, संस्थान को सुचारु-रूप से चलाने में सामर्थवान होते, उनमें संस्थान को चलाने की दूरदृष्टि होती, तो फिर कंपनी का यह हाल कैसे होता? पटना के फ़्रेज़र रोड पर महाराजाधिराज का यह ऐतिहासिक स्थल कौड़ी के मोल में, मिट्टी के भाव में कैसे समाप्त हो जाता। बिक जाता ? कुछ तो “मिलीभगत” रही होगी उस भूखंड के स्वामी का, जिनके हिस्से दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड वसीयतनामे के हिसाब से मिला था।
यह कारनामा दिनांक 31 मार्च, 2002 को उपरोक्त हस्ताक्षरकर्ताओं के बीच संपन्न हुआ जिसमें संस्था और उस भूखंड का मालिक कहीं भी सामने हस्ताक्षर कर्ताओं में नहीं था। यानी “कुछ तो बात रही होगी” जिसके कारण उस भूखंड का मालिक सामने नहीं आया। करारनामा यह था कि दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के इस भूखंड पर एक व्यावसायिक-सह-आवासीय कम्प्लेस बनेगा, जो कंपनी के बैंक और कर्मचारियों के लायबिलिटी को समाप्त करेगा।
करारनामे के दूसरे पृष्ठ के दूसरे पैरा में लिखा है: “Whereas the management of the company has to pay ‘certain dues’ of the current as well as the ex-employees of the company,” इस ‘सर्टेन ड्यूज’ शब्द को पढ़कर बिल्डर-संस्थान के मालिक-प्रबंधन की “आपसी तालमेल” और “मिलीभगत” का अंदेशा होता है।
सवाल उठता है कि संस्था के मालिक और प्रबंधन इतने कमजोर हो गए, दूरदृष्टि की इतनी किल्लत हो गई कि कर्मचारियों के ‘सर्टेन ड्यूज’ के भुगतान के वास्ते राज दरभंगा, महाराजाधिराज के इस ऐतिहासिक संस्था को, भूमि को बेचने पर मजबूर हो गए। कुछ तो गलत हुआ था। भू-स्वामी, मालिक के अतिरिक्त प्रबंधन और कर्मचारियों का एक समूह जो इस भूखंड को बेचने के पक्षधर थे, लाभान्वित हुए होंगे। बिल्डर तो ‘व्यवसायी’ है और व्यवसाय में उसे मुनाफा अधिक आकर्षित करेगा; यह सर्वविदित है, लेकिन कर्मचारियों के नेता, प्रबंधन के लोग और संस्था/भूस्वामी स्वहित में कमजोर, निरीह कर्मचारियों का अहित तो जरूर किये, अन्यथा आज 18 वर्ष बाद भी इसके निष्पादन से सम्बंधित मुकदमा प्रदेश प्रदेश के न्यायालय में लंबित नहीं होता। प्रदेश की सरकार, स्थानीय प्रशासन इतनी शिथिल तो नहीं होती।
करारनामे के अनुसार, 15 सितम्बर, 2002 को “कट-ऑफ” तारीख माना गया, यानी 15 सितम्बर, 2002 से दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड अपना क्रिया-कलाप स्थगित कर देगी, अख़बारों और पत्रिका का प्रकाशन बंद हो जायेगा। उक्त तारीख से और उसके बाद, इस संस्थान के पत्रकार और गैर-पत्रकार एक कर्मचारी के रूप में अपनी सैलरी अथवा अन्य मौद्रिक भुगतान के लिए दावा नहीं करेंगे। तथापि, अपने तीन-माह के सैलेरी के बराबर छुट्टी-अवकास भुगतान के लिए कर्मचारी इंटाइटिल्ड होंगे। कारनामे में यह भी उद्धृत किया गया कि कंपनी के कर्मचारियों को, जो 10 वर्ष से अधिक सेवा कर चुके हैं, उन्हें दो माह का वेतन और जो 10 वर्ष की सेवा नहीं पूरा कर पाए हैं, उन्हें एक माह के वेतन का भुगतान किया जायेगा। साथ ही, यह भी स्वीकार किया गया कि कंपनी का प्रबंधन अपने वर्तमान सभी कर्मचारियों को, साथ ही जो 01-01 -2002 को या उसके बाद सेवा निवृत हुए हैं, उन्हें भी डी ए के रूप में एक माह माँ वेतन के बराबर राशि का भुगतान किया जायेगा।
इस करारनामे के तहत डेवेलपर्स / बिल्डर यानी मेसर्स पाटलिपुत्रा बिल्डर्स यह स्वीकार किये कि वे ‘प्रथम इन्स्टालमेन्ट’ के रूप में एक करोड़ पांच लाख रुपये का भुगतान आगामी 06-10-2002 तक कर देंगे जिसे कर्मचारी यूनियन द्वारा दिए गए ‘फार्मूला’ के अनुरूप कर्मचारियों को भुगतान कर दिया जायेगा। लेकिन बिल्डर ने करारनामे के सातवें पैरा में यह भी उद्धृत कर दिया कि “प्रथम इन्स्टालमेन्ट का भुगतान तभी किया जायेगा जब इस भूखंड में निर्मित कंपनी के किसी एक भवन का डिमोलिशन किया जायेगा। ” और इसके लिए कंपनी का प्रबंधन अधिकृत हैं कि वे या तो स्वयं या फिर एजेंसी द्वारा यह कार्य करा लें।
करारनामे के अनुसार वार्तालाप के दौरान यह सामने आया कि कर्मचारियों की कुल बकाया राशि लगभग 8 . 50 करोड़ के आस-पास होगा। इसके बाद, करारनामे के अनुसार, बिल्डर शेष राशि को दो साल के अंदर चार-बराबर इंस्टॉलमेंट्स में पोस्ट-डेटेड चेक के रूप में भुगतान करेगा। यहाँ भी एक बातें लिखा गया कि “The actual amount would vary subject to audit report”, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि “आखिर यह राशि किसके ऑडिट रिपोर्ट द्वारा तय किया जायेगा – क्रेता द्वारा या विक्रेता द्वारा ?
करारनामे में आगे यह भी उद्धृत है: “The payment from the Builder would be controlled by and further development or new circumstances arises suo-mutto or created by management, karmchari Union, Journalist Union or any Institution. In that condition the Builder would be entitled to stop payment or withdraw paid amount.” यानी, सहस्त्र नहीं तो सिर्फ एक छिद्र लायक स्थान छोड़ दिया गया कि किसी तरह से उपरोक्त लोगों में से किसी एक के द्वारा भी, चाहे प्रबंधन हो, कर्मचारी यूनियन होम, पत्रकार युयों हो या कोई भी हो, एक भी ‘असुगम्य परिस्थिति’ उत्पन्न होने पर भुगतान में पूर्णविराम। अब करोड़ो रुपये को बचने के लिए लाखों रुपये या अन्य तरीके तो अपनाये ही जा सकते हैं? इस करारनामे के बनने के बाद किसने, किसके कही पर, किसलिए, किस परिस्थिति में, कौन सा कदम उठाया, जिससे करारनामे पर असर पड़ा, यह कोई जाने अथवा नहीं, प्रबंधन और भूस्वामी तो जरूर जानते होंगे। करारनामे में यह भी लिखा गया कि कर्मचारीगण अपने-अपने भुगतान का प्रथम इन्स्टालमेन्ट प्राप्त करने के बाद अपना-अपना त्यागपत्र संस्थान के प्रबंधन को दे देंगे। वैसे, कर्मचारियों के “रक्षार्थ” इस बात को भी उद्धृत किया गया कि करारनामे के अनुसार अगर किसी कर्मचारी का अंतिम भुगतान नहीं हो पता है तो उसका त्यागपत्र “इनएफेक्टिव” माना जायेगा…………. (क्रमशः )