भईय्या यौ !! राजा के घरक लोक सभ एहेन कियाक होयत छै ? गरीबक रोटी छीन के  क्रिकेट मैच करबै छै ? हे भगवान्  !!

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मधुबनी में पुलिस अधीक्षक के कई-तल्लों वाला मकान के बाहर खड़ा था। सामने दर्जनों गाड़ियाँ जिसे “निरीह” समझकर दबंगों ने सड़क पर ठोकी थीं, किसी को रौंदी थी, पुलिस के कब्जे में जमीन पर अर्धमृत, मृत पड़ी थी। समयांतराल गाड़ियों की  जो भी अस्थि-पंजर-लोहे, अल्युमिनियम बचे थे, उनमें जंग लग गए थे। कई एक के कल-पुर्जे रात के अँधेरे में इस सुरक्षित जगह से भी बिना-पैर चलकर कहीं और चली गयी थी। अधिक सुरक्षित स्थानों में “बहुत कुछ होता है”, यह सभी जानते हैं – चाहे “राज-महल” हो या “पुलिस थाना” – यही सोच रहा था  ।

आवाक-जावक लोगों के कपाल के चमड़े का सिकुड़न भी अद्भुत, असामान्य कहानियाँ कह रही थी। सिकुड़न का ऊपर-नीचे, एक-दूसरे को काटकर निकलने को देखकर ऐसा लग रहा था की वे सभी भी समय का मारे हैं। इसे भी समय दुत्कार दी है। समय भी उसी के साथ हो निकली है, जो समाज के संभ्रांत होते हैं। इन हताश लोगों के मानस -पटल की रेखाओं को पढ़ते, मकान के दाहिने तरफ तार-खजूर के झुके पेड़ की ओर बढ़ रहा था। उन पेड़ो के जड़ों के पास एक पोखर था। पोखर का पानी और इन पेड़ों के झुकाव को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे विगत वर्षों में समाज के संभ्रातों ने बृक्षों को भी छला है, ठगा है। 

आखिर यह इलाका भी तो मिथिलाञ्चल ही है, और मिथिला के अंतिम राजा की अंतिम सांस के बाद क्या हश्र हुआ, हो रहा है, सभी चश्मदीद गवाह है। लेकिन मूक-वधिर बना हैं।  

तार-खजूर के पेड़ों की बुनियाद तो जमीन से सीधी निकली थी। लेकिन कहते हैं “भूखा क्या नहीं करता” ? समाज के अमीर लोग, संभ्रांत लोग तो अमीर और सम्भ्रान्त होने का “ठप्पा” लेकर तो नहीं जन्म लिए होते।  जन्म लेने के बाद समाज के गरीबों को इतना शोषण करते की मनुष्य रूपी जीव क्या, तार-खजूर जैसे जीवों का, बृक्षों की भी कमर भरी जवानी में ही नहीं, बाल्यावस्था में ही झुका दिया जाता है, विभिन्न कार्यों के लिए । इन बृक्षों को देखकर तो ऐसा ही लग रहा था कि जब इस बृक्ष को लगाया गया होगा, इस अंचल के राजा इसके भोजन-पानी का बंदोबस्त करने हेतु बगल में एक पोखर  खुदवा दिया। लेकिन शायद राजा को मालूम नहीं था की उनके जाने के बाद इसकी कमर को टेढ़ी कर दी जाएगी – इस पर चढ़-चढ़कर, इसके फलों को तोड़-तोड़कर, इसके टहनियों को काट-काटकर। 

अब यह तो ठहरा निःसहाय, बोल भी नहीं सकता। और आज के परिपेक्ष में जो बोल सकता भी है वह स्वहित में, लोभ-वश बोलता ही नहीं, मूक-बधिर बनना पसंद करता हैं। मिथिलाञ्चल में तो ऐसे लोग एक नहीं लाखों मिलेंगे। उदास मन से आगे लाल रंग के मंदिर के तरफ बढ़ रहा था। आराध्य से कुछ कहने-सुनने। लोग-बाग़ कह रहे थे की पुलिस अधीक्षक वाला भवन ही नहीं, मंदिर भी, जमीन भी जो आज कई हज़ार करोड़ कीमत की है;  मिथिला के तत्कालीन राजा द्वारा ही निर्मित है, उन्हीं की है – लोगों के कल्याणार्थ। 

लेकिन लोग बाग़ यह भी कहते सुने गए की अंतिम राजा की अंतिम सांस के बाद उनके परिवार और परिजनों ने राजा का नामोनिशान मिटा दिया – स्वहित में। अब तो राजा का नाम दिव्यांगों की साइकिलों के पीछे लिखा दीखता हैं। वर्तमान आवो-हवा को देखकर किसी कोने से ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था की “कल्याण” शब्द भी कहीं निहित है। बेचारा तार-खजूर का पेड़। 

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यही सब सोचते-सोचते आगे बढ़ रहे थे कि एक पान की दूकान से सामने के तालाब के पानी से टकराते हुए कानों में शतरंज के खिलाड़ी फिल्म का एक गीत “बजाए बाँसुरिया श्याम” सुनाई दी। गजब का गीत था और गजब का फिल्म और गजब का अदाकारी कलाकारों का – मिर्जा सज्जाद अली (संजीव कुमार), मीर रोशन अली (सईद जाफ़री), मिर्ज़ा की बीवी (शबाना आज़मी),  रोशन अली की बीवी (फरीदा जलाल), वाजिद अली शाह (अमजद ख़ान), जनरल जेम्स ऑउटरेम (रिचर्ड अचेनबॉरो) और अकील (फ़ारुख़ शेख़)  – कहाँ हैं अब ये सभी। कुछेक को छोड़कर, शेष सभी अल्लाह के प्यारे हो गए, दरभंगा के महाराजा के तरह। 

यह गीत सत्यजीत रे की फिल्म “शतरंज के खिलाड़ी” की थी। जब शतरंज के खिलाडी की बात होगी बनारस वाले मुंशी प्रेमचंद को कोई कैसे भूल सकता है।  मैं तो नहीं भूल सकता, क्योंकि मैंने “रीविजिटिंग बनारस” कॉफी टेबुल किताब में मुंशीजी को सर्वोच्च स्थान दिया है। यह बात अलग है की गंगा किनारे दरभंगा घाट के नाम को लेकर विगत कुछ वर्षों से अनेकानेक बातें चल रही हैं – कोई कह रहा है “मिटा दो”, तो कोई “झंडा लेकर” खड़े हो जाते हैं – दरभंगा का नाम मिटाया नहीं जा सकता है। झंडा उठाने वालों में भी कुछेक “स्वहित वाले” होते हैं, लेकिन अधिकांश वैसे लोग होते हैं जिनके हरिद्वार में आज भी राजा सहेड बास्ते हैं। अब राजा साहेब के परिवार वालों को तो कोई मतलब है नहीं, ये मैं नहीं, बनारस के लोग घाटों पर बतियाते हैं।  मुंशीजी को उस किताब में बनारस में जन्में “मानवीय-धरोहरों” में पण्डित रवि शंकर जी से एक नहीं, पांच सीढ़ी ऊपर, स्थान दिया गया है। इसका वजह है, चर्चा आगे करेंगे कभी। क्यों भारत से जाने के बाद, भारत के लोगों को ही, भारत पसंद नहीं होता। खैर। 

शतरंज के खिलाड़ी किसी को भी याद आएगा तो याद आये बिना नहीं रह पाएंगे अवध नबाब वाजिद अली शाह। वैसे इस फिल्म में संगीत सत्यजीत रे साहेब खुद दिए थे, लेकिन इस गीत को बिरजू महाराज साहेब स्वयं गाये थे और नृत्य का निर्देशन भी किये थे । श्री बिरजू महाराज साहेब दरभंगा घराना के तो थे ही, महाराजा साहेब के अत्यंत प्रिय पात्र भी थे। लेकिन आज दरभंगा राज के अहाते में “न वह लहँगा-न वह चूड़ी” वाली बात है। बिरजू महाराज, बिस्मिल्लाह खान की बात छोड़िये, लाल-बाग़ में भी कोई बालिका सुन्दर गीत गाए तो उसका भी कोई संरक्षण और मदद नहीं है। यूट्यूब वाला ‘कभी नहीं समझ आने वाला अंग्रेजी गीत ही ड्राम – ड्रम – ड्रूम – भृंग – भ्रान्ग सुनाई देता है बड़का-बड़का लाउडस्पीकर पर।

शतरंज के खिलाड़ी – एक पतनशील सामंतवाद का जीवंत गाथा था । बनारस वाले  मुंशी प्रेमचंद शतरंज के खिलाड़ी की रचना अक्टूबर, सन 1924 में किये थे और सत्यजीत रे इस कहानी के आधार पर एक फिल्म भी बनाये थे सन 1977 में। समय का तकाजा देखिये की जिस माह मुंशी प्रेमचंद शतरंज के खिलाड़ी रचना को शब्दों में बाँध रहे थे, उसी माह अवध नहीं, बल्कि दरभंगा के राजा भी अंतिम सांस लिए – अक्टूबर माह । सिर्फ फर्क था साल का, यह घटना सं 1962 में हुई।  

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वाजिद अलीशाह का शाशनकाल 1847 -1856 का था। इसकी कहानी 1856 के अवध नवाब के दो अमीरों के इर्द-गिर्द घूमती है। ये दोनों खिलाड़ी शतरंज खेलने में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने शासन तथा परिवार की भी फ़िक्र नहीं रहती। इसी की पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों की सेना अवध पर चढ़ाई करती है। फिल्म 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से एक साल पहले की प्रष्ठभूमि पर थी ! जब ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी उपनिवेशवाद नीति के तहत विभिन्न भारतीय साम्राज्य और राजाओं को सीधे अपने अधीन कर रही थी ! अवध (लखनऊ) का साम्राज्य सबसे आखिर में कंपनी के अधीन आने वाले राज्यों में से एक था, और अंग्रेजो की सेना जो उस वक्त अफगानिस्तान और नेपाल में युद्ध लड़ रही थी उसके लिए धन का स्रोत था !

तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल के बीच नवाब के अधीन बैठे दो जागीरदार मिर्ज़ा सज्जाद अली और मिर्ज़ा रोशन अली जिनके ऊपर अवध की रक्षा का जिम्मा भी है, अपने अंतहीन शतरंज के खेल में लगे हुए हैं| यहाँ तक की खेल की वजह से जहाँ मिर्ज़ा सज्जाद अली अपनी पत्नी खुर्शीद से बेपरवाह हैं वही मिर्ज़ा रोशन अली अपनी पत्नी नफीसा के अपने ही दूर के रिश्तेदार अकील के प्रति आकर्षित होने को नज़र अंदाज़ किये हुए हैं ! दोनों ही खिलाड़ी इस बात से अनजान है की अंग्रेज न सिर्फ शतरंज भी दूसरे तरीके से खेलते हैं बल्कि उनकी राजनीति चालें भी अलग अलग हैं| अंग्रेज रेसिडेंट जेम्स ओउट्राम (रिचर्ड एटनबरो) बड़ी चतुराई से बादशाह के कला प्रेम को विलासता का रूप देकर उसे अयोग्य साबित करता है और उसे हटाये जाने के लिए एक नयी संधि बनाता है ! दूसरी तरफ अहंकार से भरे हुए दोनों शतरंज के खिलाड़ी घरवालों की वजह से अपने खेल में आ रहे व्यवधान से तंग आकर और अवध की रक्षा के लिए कदम उठाने की संभावना से भाग कर लखनऊ से दूर एक गाँव में जाकर खेलने की योजना बनाते है इस सच को नज़रंदाज़ करके कि अंग्रेजी सेना कभी अवध पर अपनी सत्ता जमा सकती है !

सत्यजीत रे साहेब ने उस वक्त के उत्तरदायी व्यक्तियों के उदासीन और विलासी होना दोनों खिलाड़ियों के माध्यम से ही दिखाया है ! दोनों ही जागीरदारों के बीच के संवाद आप को तात्कालीन राजनैतिक स्थिति से अवगत कराते हैं ! रे साहेब इस बात को भी स्पष्ट किये थे की भोग-विलास में डूबा हुआ वाजिद अली शाह का शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य थी । पूरा समाज इस भोग-लिप्सा में शामिल थी ।  जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोई चिन्ता नहीं थी ।  । समाज का उपरी तबका घोर आत्मकेंद्रित था । देश और दुनिया में क्या हो रहा है इसके प्रति वे लोग बेखबर थे । परिणाम यह हुआ कि लखनऊ पर अंग्रेजी सेना का कब्जा हो गया। वाजिद अली शाह बंदी बना लिए गये और आगे क्या हुआ वह आप जानते ही है।

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तभी कुछ युवकों को एक साथ मोबाईल पर देखा। सभी मसगुल थे। शरीर का कद -काठी, बनाबट, पहनावा, बोलचाल, भाषा इन तमाम बातों को एक साथ देखने से निष्कर्ष यही था की वे सभी बच्चे गरीबी रेखा से कोई तीन कोस नीचे हैं। चुकी पुरुष योनि के हैं, तो स्वाभाविक है कि माता-पिता-अन्य भाई-बहनों को उनसे यह अपेक्षा जरूर होगी की वह विद्यालय जाय, शिक्षा ग्रहण करें, पढ़े – लिखे और वुजूर्ग माता-पिता को सहारा दे। लेकिन परिवेश को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि उन बातों में उन्हें कोई दिलचस्पी थी । हो भी तो कैसे ? मिथिलाञ्चल की आवो-हवा में स्वाधीनता से पूर्व और उसके कुछ दिन बात तक भी, जब तक दरभंगा के अंतिम राजा अंतिम सांस नहीं लिए थे, आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक विकास के लिए हरेक प्रकार का यत्न किये, प्रयत्न किये। लोगों को भरपूर अवसर के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण किये। हाँ, इन सब बातों के बाद, खेल को भी महत्व दिए – लेकिन खेल बिहार में नहीं, बल्कि बंगालियों के शहर कलकत्ता में था – दरभंगा कप के नाम से।

सभी बच्चे बात कर रहे थे की आने वाले दिनों में क्रिकेट मैच होने वाला है जिसमें महाराजा साहेब के चैरिटी कोष से खर्च किया जायेगा। किसी ने पूछा: टीवी पर भी दिखाया जायेगा क्या? किसी ने पूछा: सचिन भी आएगा क्या? किसी ने कहा: विराट भी आएगा क्या? किनारे बैठा गोल-मटोल बच्चा कहता है: “हमलोग तो गरीब के घर पैदा हुए, लेकिन मन में एक बात जरूर है की जब पढ़-लिखकर, मेहनतकर बड़ा होऊंगा तो अपने गाँव में सुन्दर, सुसज्जित, आधुनिक सुविधाओं से सज्ज, प्रतिभावान, जानकार, ज्ञानी शिक्षकों के माध्यम से अपने बच्चों को, गाँव के बच्चों को खूब पढ़ाएंगे – लिखाएँगे – उसे मानवीय सोच के विभिन्न तरकीब भी सिखाएंगे, ताकि उसी अगली पीढ़ी को बेहतर शिक्षा मिले, अवसर मिले। इस गाँव में वही रहेगा तो गाँव का, हमारा, सबका भलाई सोचेगा । चाटुकारों को गाँव से बाहर का रास्ता दिखायेगा। इस गाँव को चाटुकारों से मुक्त रखेंगे – नयी सोच होगी, नया अवसर होगा।” उसकी बातों को सुनकर आँखें भर आई। सोचा यह जीव महाराजा के समय में क्यों नहीं पैदा हुआ। अगर पैदा हुआ होता तो आज इसकी तीसरी पीढ़ी बनकर तैयार हो गयी होती तो “चाटुकार” नहीं होता। ओह !!!!

दूसरे कोने में बैठी एक बालिका कहती है: भईय्या यौ !!! राजा के घरक लोक सभ एहेन कियाक होयत छै ? गरीबक पेटक रोटी छीन के, ओकर लेल पढ़ाई क सुविधाक बंदोबस्त नै क के, गरीब – बीमार लोकक दवाई-दारुक इंतज़ाम नै क के – क्रिकेट मैच करबै छै . छी छी केहेन गन्दा सोच छै .हे भगवान्  !!!!!!!!

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