भारत के 65+ करोड़ पुरुष ‘पण्डित नेहरू’ और ‘चार्ली चैपलिन’ जैसा ‘गुरु-स्वरुप पिता’ नहीं बन पाए 93 वर्षों में भी …

चार्ली  चैपलिन अपनी बेटी के साथ 

प्रत्येक वर्ष 10 मई को विश्व के लोग “मातृ-दिवस” मनाते हैं। उसके एक महीने बाद, यानि, 21 जून को पिता-दिवस के रूप में मनाया जाता है । अगस्त के महीने में 11 तारीखको “पुत्र-दिवस” मनाया जाता है और सितम्बर महीने के 27 तारीख को”बेटी-दिवस” मानते हैं। इतना ही नहीं, 13 सितम्बर को दादा-दादी दिवस भी मानते हैं। यानि सम्पूर्णता के साथ एक वर्ष में परिवार के सभी सदस्यों के लिए एक-एक दिवस मानते हैं। लेकिन पिछले 93 वर्षों में भारत ही नहीं, विश्व के मानचित्र पर न तो कोई सक्षम पिता हो उभरे और ना ही अद्वितीय पुत्री जो पिता-पुत्री सम्वाद के लिए जाने जा सकें, इतिहास रचे हों। 

दो पिताओं को छोड़कर, राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर तक ऐसे कोई भी तीसरे पिता नहीं हो सके जिनका अपनी बेटी के नाम पत्र एक इतिहास गढ़ सके  – बिडम्बना है। 

यह अक्षरसः सत्य है। भारत के पिता ही नहीं, विश्व के पिता भी अपनी बेटियों को अगली पीढ़ी के लिए अपने शब्दों से उसे मानसिक रूप से इतना सशक्त नहीं बना पाए, इतिहास नहीं रच पाए कि वह और उनकी बेटी आने वालेसमय में न केवल वैश्विक स्तर पर अपना नाम हस्ताक्षरित करे, बल्कि पिता के को भी गौरवान्वित कर सके। 

अगर इतिहास के पन्नों को उलट करदेखें तो विश्व में शायद दो ही पिता ऐसे हुए जिनकी पुत्री के नाम पत्र इतिहास बना। आज भारत की सम्पूर्ण आवादी में कुल 51.6 फीसदी पुरुष हैं। लेकिन इन पुरुष योनि में एक भी “पुरुष”वैसे “पिता” नहीं बन सके अपनी “पुत्री” के नजर में जो पंडित जवाहरलाल नेहरू और चार्ली चैप्लिन के बगल में खड़े हो सकें। 

इतना ही नहीं, जहाँ तक संचार-माध्यमों के विकास का प्रश्न है, जिसके बल पर “आधुनिक पिता” राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना झण्डा फहरा सकते थे,  सन 1928 अथवा सन 1965 की तुलना में आज का संचार-माध्यम अधिक सशक्त है। लेकिन ऐसे पिता एक भी नहीं बने, जिनके पीछे देश का सम्पूर्ण संचार-माध्यम खड़ा होता । वैसे प्रत्येक पिता अपने संतानों के लिए एक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है – लेकिन ब्रह्माण्ड में भी नक्षत्रों का अपना-अपना स्थान है, अपना-अपना महत्व है – तभी तो सूर्योदय भी होता है, सूर्यास्त भी।  

बहरहाल, सन 1965 में क्रिशमस के अवसर पर चार्ली चैपलिन ने अपनी नृत्यांगना बेटी को एक मशहूर खत लिखा। चैपलिन ने कहाँ कि “मैं सत्ता के खिलाफ विदूषक रहा, तुम भी गरीबी जानो, मुफलिसी का कारण ढूंढो, इंसान बनो, इंसानों को समझो, जीवन में इंसानियत के लिए कुछ कर जाओ, खिलौने बनना मुझे पसंद नहीं बेटी। मैं सबको हंसा कर रोया हूं, तुम बस हंसते रहना। बूढ़े पिता ने प्रिय बेटी को और भी बहुत कुछ ऐसा लिखा।”  

चार्ली  चैपलिन की चिठ्ठी बेटी के नाम 

चार्ली चैपलिन लिखते हैं: 
मेरी प्यारी बेटी, 

रात का समय है। क्रिसमस की रात। मेरे इस छोटे से घर की सभी निहत्थी लड़ाइयां सो चुकी हैं।तुम्हारे भाई-बहन भी नीद की गोद में हैं। तुम्हारी मां भी सो चुकी है। मैं अधजगा हूं, कमरे में धीमी सी रौशनी है। तुम मुझसे कितनी दूर हो पर यकीन मानो तुम्हारा चेहरा यदि किसी दिन मेरी आंखों के सामने न रहे, उस दिन मैं चाहूंगा कि मैं अंधा हो जाऊं। तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो?वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। शरद ऋतु के आकाश में टिमटिमाते तारों की चमक मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूं। ऐसा लावण्य और इतना सुन्दर नृत्य। सितारा बनो और चमकती रहो। परन्तु यदि दर्शकों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिलकी आवाज सुनना। 

मैं तुम्हारा पिता, जिरलडाइन! मैं चार्ली, चार्ली चेपलिन! क्या तुम जानती हो जब तुम नन्ही बच्ची थी तो रात-रातभर मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्लीपिंग ब्यूटी की कहानी सुनाया करता था। मैं तुम्हारे सपनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हारा भविष्य देखा है, मंच पर नाचती एक लड़की मानो आसमान में उड़ती परी। लोगों की करतल ध्वनि के बीच उनकी प्रशंसा के ये शब्द सुने हैं, इस लड़की को देखो! वह एक बूढ़े विदूषक की बेटी है, याद है उसका नाम चार्ली था। 

हां!मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! अब तुम्हारी बारी है! मैं फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और येशाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम है। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिन्दगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कड़कड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था, जिरल्डाइन! उन जादुई रातों में जब मैं तुम्हें लोरी गा-गाकर सुलाया करता था और तुम नीद में डूब जाती थी, उस वक्तमैं जागता रहता था। मैं तुम्हारे चेहरे को निहारता, तुम्हारे हृदय की धड़कनों कोसुनता और सोचता, चार्ली! क्या यह बच्ची तुम्हें कभी जान सकेगी? तुम मुझे नहीं जानती, जिरल्डाइन! मैंने तुम्हें अनगिनत कहानियां सुनाई हैं पर, उसकी कहानी कभी नहीं सुनाई। वह कहानी भी रोचक है। यह उस भूखे विदूषक की कहानी है, जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच-गाकर अपनी रोजी कमाता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गये सिक्कों से उसके आत्म सम्मान को छलनी होते हुए पर फिर भी मैं जिंदा हूं, इसीलिए फिलहाल इस बात को यही छोड़ते हैं। 

ये भी पढ़े   मैंने अपने सीनियर पत्रकारों से किस्सा सुना कि ''टाइम्स आफ इंडिया'' में ब्रिटिश राज हर पत्रकार के लिये 'टाई' अनिवार्य ​थी

तुम्हारे बारे में ही बात करना उचित होगा जिरल्डाइन! तुम्हारे नाम के बाद मेरा नाम आता है चेपलिन! इस नाम के साथ मैने चालीस वर्षों से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहा नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और सम्पन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है?य दि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना। मैंने तुम्हारे खर्च के लिए पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, सोच समझकर खर्च करना। 

कभी कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि, मैं भी उन जैसी हूं। हां! तुम उनमें से ही एक हो बेटी! 

अपनी बेटी के साथ 

कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहुलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दर्शकों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोड़कर भाग जाना, टैक्सी पकड़ना और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुन्दर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं। उनकी सर्चलाईट चन्द्रमा है! अगर तुम्हें लगे कि इनमें से कोई तुमसे अच्छा नृत्य करती है तो तुम नृत्य छोड़ देना। हमेशा कोई न कोई बेहतर होता है, इसे स्वीकार करना। आगे बढ़ते रहना और निरंतर सीखते रहना ही तो कला है। 

मैं मर जाउंगा, तुम जीवित रहोगी। मैं चाहता हूं तुम्हें कभी गरीबी का एहसास न हो। इस खतके साथ मैं तुम्हें चेकबुक भी भेज रहा हूं ताकि तुम अपनी मर्जी से खर्च कर सको। पर दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है जिसे इसकी बेहद जरूरत है। ऐसे इंसानको तुम आसानी से ढूंढ सकती हो, बस पहचानने के लिए एक नजर की जरूरत है। मैं पैसे की इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि मैं इस राक्षस की ताकत को जानता हूं।

हो सकता है किसी रोज कोई राजकुमार तुम्हारा दीवाना हो जाए। अपने खूबसूरत दिल का सौदा सिर्फ बाहरी चमक-दमक पर न कर बैठना। याद रखना कि सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है जोसबके लिए चमकता है। हां! जब ऐसा समय आये कि तुम किसी से प्यार करने लगो तो उसेअपने पूरे दिल से प्यार करना। मैंने तुम्हारी मां को इस विषय में तुम्हें लिखने कोकहा था। वह प्यार के सम्बन्ध में मुझसे अधिक जानती है।

मैं जानता हूं कि तुम्हारा काम कठिन है। तुम्हारा बदन रेशमी कपड़ों से ढका है पर कला खुलने के बाद ही सामने आती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। हो सकता है मेरे शब्दतुम्हें हास्यास्पद जान पड़ें पर मेरे विचार में तुम्हारे अनावृत शरीर का अधिकारीवही हो सकता है जो तुम्हारी अनावृत आत्मा की सच्चाई का सम्मान करने का सामर्थ्य रखता हो।

मैं ये भी जानता हूं कि एक पिता और उसकी सन्तान के बीच सदैव अंतहीन तनाव बना रहता है पर विश्वास करना मुझे अत्यधिक आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं। मैं सचमुच चाहता हूं कि इसक्रिसमस की रात कोई करिश्मा हो ताकि जो मैं कहना चाहता हूं वह सब तुम अच्छी तरह समझ जाओ।

ये भी पढ़े   बिहारे के हैं केंद्रीय स्वास्थ राज्य मंत्री और बिहारे के हज़ारों मरीजों के परिवार/परिचारक ठिठुर रहे हैं दिल्ली की सड़कों पर

चार्ली अब बूढ़ा हो चुका है, जिरल्डाइन! देर सबेर मातम के काले कपड़ों में तुम्हें मेरी कब्र पर आना ही पड़ेगा। मैं तुम्हें विचलित नहीं करना चाहता पर समय-समय पर खुद को आईने में देखना उसमें तुम्हें मेरा ही अक्स नजर आयेगा। तुम्हारी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित है। जब मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त जम जाएगा तब तुम्हारी धमनियों में बहने वाला रक्त तुम्हें मेरी याद कराएगा। याद रखना, तुम्हारा पिता कोई फरिश्ता नहीं, कोई जीनियस नहीं, वह तो जिन्दगी भर एक इंसान बनने की ही कोशिश करता रहा। तुम भी यही कोशिश करना।

ढेर सारेप्यार के साथ
चार्ली
क्रिसमस1965 
 

पंडित जवाहरलाल नेहरू, बेटी इंदिराजी और पोते राजीव और संजय 

उसी तरह, चार्ली चैपलिन की बेटी के नाम पत्र लिखने से कोई 37 वर्ष पहले सन 1928 में पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी दस -वर्षीय पुत्री को अनेकानेक पत्र लिखे थे। जब 1928 की गर्मी आईं तो इंदिरा मसूरी में थीं और पंडित नेहरू इलाहाबाद में थे। इस दौरान उन्होंने इंदिरा को 31 पत्र लिखे और इनमें इंदिरा के उन सवालों का जवाब देने की कोशिश की जो वह अक्सर पूछा करती थीं। अंग्रेजी में लिखे इस पत्र का हिंदी अनुवाद मशहूर लेखक प्रेमचंद ने किया था। ”पिता के पत्र” किताब में नेहरू का कुदरत के प्रति लगाव और बेटी का देश-दुनिया के सरोकारों के प्रति एक दृष्टि विकसित कर सकने की चिंता देखी जा सकती है। दरअसल 2 साल यूरोप में रहने के बाद जब1927 में जवाहरलाल नेहरू, कमला नेहरू और इंदिरा मद्रास के रास्ते भारत लौटे तो जहाज के उपर खड़ी इंदिरा ने पिता नेहरू से कई सवाल किए। यह संसार कैसे बना ?तरह-तरह के जीव कैसे बने? मनुष्यों की सभ्यता कैसे विकसित हुई? अलग-अलग राष्ट्रधर्म और जातियां कैसे बनीं? अनेकों सवाल इंदिरा के जहन में उठ रहे थे और वह पिता नेहरू से पूछ रही थी। 

”पिता के पत्र’ महज एक किताब का नाम नहीं है बल्कि यह एक पिता की भूमिका में बेटी को लिखा गया जवाहर लाल नेहरू के वह पत्र हैं जो सभ्यता की सबसे सुंदर और सरल व्याख्या करती है। किताब में एक तरफ नेहरू के विचार हैं तो वहीं उन विचारों को कहानी के सम्राट प्रेमचंद ने इतनी सरल भाषा में पेश किया है कि पत्र सिर्फ पत्र न रहे बल्कि पिता और बेटी के बीच की भावनात्मक कहानी बन गई।

नेहरू ने अपने पत्र में इंदिरा को सभ्यता, धर्म, जाति समेत कई पहलूओं की जानकारियाँ दीं । उन्होंने अपने पहले ही पत्र में लिख ”जब तुम मेरे साथ रहती हो तो अक्सर मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो औरमैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, अब, जब तुम मसूरी में हो और मैंइलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते।  इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इन दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएं लिखा करूँ।” इसके बाद एक-एक कर के नेहरू ने कई खत लिखे और इन खतों को पढ़ने से साफ पता चलता है कि कितनी सहजता से एक पिता अपनी बेटीको लाखों साल का इतिहास बड़ी आसानी से समझा देता है।
 

पंडित जवाहरलाल नेहरू की चिठ्ठी बेटी इंदिराजी के नाम 

मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूँ।  लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है?  कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना।  और इसकाव्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं।  सभ्यता बिल्कुल उसकी उलटी चीज है। हम बर्बरता से जितनी ही दूर जाते हैं उतने ही सभ्य होते जाते हैं। 

लेकिन हमें यह कैसे मालूम हो कि कोई आदमी या समाज जंगली है या सभ्य? यूरोप के बहुत-से आदमी समझते हैं कि हमीं सभ्य हैं और एशिया वाले जंगली हैं. क्या इसका यह सबब है कि यूरोपवाले एशिया और अफ्रीका वालों से ज्यादा कपड़े पहनते हैं? लेकिन कपड़े तो आबोहवा पर निर्भर करते हैं।  ठंडे मुल्क में लोग गर्म मुल्क वालों से ज्यादा कपड़े पहनते हैं। तो क्या इसका यह सबब है कि जिसके पास बंदूक है वह निहत्थे आदमी से ज्यादा मजबूत और इसलिए ज्यादा सभ्य है? चाहे वह ज्यादा सभ्य हो या न हो, कमजोर आदमी उससे यह नहीं कह सकता कि आप सभ्य नहीं हैं।  कहीं मजबूत आदमी झल्ला कर उसे गोली मार दे, तो वह बेचारा क्या करेगा?

ये भी पढ़े   'ठाकुर-पाठक' के नामों में 'ठाकुर' पर 'ठप्पा', पाठक 'पद्मविभूषित', 1954 से 2024 तक पहली बार 'नेता' को 'भारत रत्न' और 'पत्रकार-निजी सचिव' को 'पद्मश्री'

तुम्हें मालूम है कि कई साल पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी! दुनिया के बहुत से मुल्क उसमें शरीक थे और हर एक आदमी दूसरी तरफ के ज्यादा से ज्यादा आदमियों को मार डालने की कोशिश कर रहा था। अंग्रेज जर्मनी वालों के खून के प्यासे थे और जर्मन अंग्रेजों के खून के।  इस लड़ाई में लाखों आदमी मारे गए और हजारों के अंग-भंग हो गए कोई अंधा हो गया, कोई लूला, कोई लंगड़ा। 

तुमने फ्रांस और दूसरी जगह भी ऐसे बहुत-से लड़ाई के जख्मी देखे होंगे।  पेरिस की सुरंग वाली रेलगाड़ी में, जिसे मेट्रो कहते हैं, उनके लिए खास जगहें हैं।  क्या तुम समझती हो कि इस तरह अपने भाइयों को मारना सभ्यता और समझदारी की बात है? दो आदमी गलियों में लड़ने लगते हैं, तो पुलिसवाले उनमें बीच बचाव कर देते हैं और लोग समझते हैं कि ये दोनों कितने बेवकूफ हैं। तो जब दो बड़े-बड़े मुल्क आपस में लड़ने लगें और हजारों और लाखों आदमियों को मार डालें तो वह कितनी बड़ी बेवकूफी और पागलपन हैं।  यह ठीक वैसा ही है जैसे दो वहशी जंगलों में लड़ रहे हों। और अगर वहशी आदमी जंगली कहे जा सकते हैं तो वह मूर्ख कितने जंगली हैं जो इस तरह लड़ते हैं?

अगर इस निगाह से तुम इस मामले को देखो, तो तुम फौरन कहोगी कि इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, इटली और बहुत से दूसरे मुल्क जिन्होंने इतनी मार-काट की, जरा भी सभ्य नहीं हैं।  और फिर भी तुम जानती हो कि इन मुल्कों में कितनी अच्छी-अच्छी चीजें हैं और वहां कितने अच्छे-अच्छे आदमी रहते हैं। 

पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिराजी

अब तुम कहोगी कि सभ्यता का मतलब समझना आसान नहीं है, और यह ठीक है। यह बहुत ही मुश्किल मामला है। अच्छी-अच्छी इमारतें, अच्छी-अच्छी तस्वीरें और किताबें और तरह-तरह की दूसरी और खूबसूरत चीजें जरूर सभ्यता की पहचान हैं। मगर एक भला आदमी जो स्वार्थी नहीं है और सबकी भलाई के लिए दूसरों के साथ मिल कर काम करता है, सभ्यता की इससे भीबड़ी पहचान है। मिल कर काम करना अकेले काम करने से अच्छा है और सबकी भलाई के लिए एक साथ मिल कर काम करना सबसे अच्छी बात है। 

बहरहाल, भारत में  बदलते परिवेश में भारत में बेटियों के प्रति नजरिए को लेकर बहुत बदलाव आया है लेकिन अभी भी भारत को बेटी के महत्वको समझने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना है। भारत में बेटी दिवस मनाने की एक खास वजह बेटियों के प्रति लोगों को जागरुक करना। इस दिन बेटी को न पढ़ाना, उन्हें जन्म से पहले मारना, घरेलू हिंसा, दहेज और दुष्कर्म से बेटियों को बचाने के लिए भारतीयों को जागरुक करना है। उन्हें यह समझाना कि बेटियां बोझ नहीं होती, बल्कि आपके घर का एक अहम हिस्सा होती हैं।

खैर, आज पचास साल बाद भी बाबूजी की बातें याद है और मैं प्रतिपल उसे अमल करता हूँ। पटना के अशोकराज पथ पर स्थित नोवेल्टी एण्ड कम्पनी नामक किताब विक्रेता की दूकान से अपने कंधे पर कोई तीस-किलो वजन का बण्डल लेकर, बाएं हाथ से मेरी दाहिने हाथ की ऊँगली पकड़कर रास्ते भर श्रीमद्भागवत गीता के सभी 700 श्लोकों को हिन्दी में बताते मेरे बाबूजी नित्य दूकान से महेन्द्रू घाट आते थे। बण्डल उत्तर बिहार के किताब विक्रेताओं के निम्मित्त होता था जिसे जहाज में पार्सल किया जाता था। बाबूजी हमेशा कहते थे: “जीवन में कभी भी वहां अपना शीष नहीं उठाना जहाँ तुम्हारे माता-पिता का शीष तुम लोगों के पालने-पोसने के लिए झुका है। आने वाले समय में जब तुम ऐसा करोगे तो सामने वाले व्यक्ति तुम्हे विनम्र तो कहेंगे ही, उनका अन्तःमन तुम्हारी विनम्रता के सामने झुका मिलेगा।” बाबूजी कहते थे कि “अपने जीवन में कभी हार नहीं मानना। मेहनत और मसक्कत करने में कभी पीछे नहीं होना।”बाबूजी कहते थे कि “कभी स्वयं को बड़ा नहीं समझना। समय से बड़ा कोई नहीं है। और समय तुम्हे अपने बराबर चलने का बरबस मौका देगा। तुम्हे सिर्फ स्वयं को सज्ज और सशक्त रखना है – शैक्षिक रूप से। बसों में, सार्वजानिक यातायात के साधनों से, पैदल चलने में अधिक विस्वास रखना। चलते समय आँख और आत्मा दोनों को खुला रखना। जीवन में बहुत सी चीजें दिखेंगी यत्र-तत्र-सर्वत्र जो तुम्हे पाठ पढ़ाएगी  । मैं जीवन-भर तो तुम्हारे साथ नहीं रह पाउँगा, यह विधि का विधान है, लेकिन मेरी बातें हमेशा तुम्हे याद आएगी। मेरी बातों को उसी तरह अपने जीवन में अपनाना जिस तरह सैकड़ों, हज़ारों लीटर दूध को दही ज़माने के लिए ‘दही का अल्प मात्रा” की जरुरत होती है, उस अल्प-मात्रा के बिना दूध कभी भी दही नहीं बन सकता; मेरी बातें तुम्हें तुम्हारे जीवन को संवारने में वैसा ही मददकारी होगा।”  

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here