जब ‘दरभंगा राज’ का ‘लाल ध्वज’, ध्वज में बने ‘षट्कोण’ और बीच में ‘मछली का राज-चिन्ह’ देखकर मन व्याकुल हो गया

दरभंगा राज के झंडे के बीच में षट्कोण और मछली का राज चिन्ह - शुभ के लिए।

पिछले वर्ष नबम्बर महीने में सोसल मीडिया (फेसबुक) पर सम्मानित श्री रमण दत्त झा का एक पोस्ट देखा था। वह पोस्ट राज दरभंगा के ध्वज से सम्बंधित था। श्री रमण जी के नाम में और मेरे पिता के नाम में चार-चार शब्द हैं और इन चार शब्दों में ‘तीन शब्द’ दोनों में सामान्य हैं। मसलन: मेरे पिता का नाम: श्री गोपाल दत्त झा है और श्री रमण बाबू का पूरा नाम श्री रमण दत्त झा। इस नाम को देखते ही बरबस पिताजी का सम्पूर्ण चेहरा, उनका हाव-भाव, व्यवहार, समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, उनका ज्ञान, उनका उपदेश, संस्थान के प्रति लगाव, उनका पान खाना और कमाए धन का नहीं मिलने सम्बन्धी अनेकानेक बातें मानस-पटल पर दौड़ जाता है। बाबूजी का देहान्त कोई 29-वर्ष पूर्व पटना में हुआ था।

श्री रमण दत्त झा जी अपने पोस्ट में लिखते हैं: “दरभंगा राज / सरकार तिरहुत का झंडा सुर्ख लाल रंग के आयताकार के बीच में षट्कोण जिसके बीच में मछली का राजचिन्ह के नीचे देवनागरी में श्री कृष्ण लिखा था और षट्कोण के सभी कोने पर दुर्गासप्तशती का श्लोक “करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्रान्यभिहन्तु चापदः ll ” लिखा था। षट्कोण यंत्र प्राचीन दक्षिण भारतीय हिंदू मंदिरों में देखा जाता है। यह नर-नारायण, या मनुष्य और ईश्वर के बीच हासिल संतुलन की सही ध्यान स्थिति का प्रतीक है, और यदि बनाए रखा जाता है, तो “मोक्ष” या “निर्वाण” (सांसारिक दुनिया की सीमाओं से छुटकारा पाने और इसके भौगोलिक गुणों) प्राप्त होता है।” मेरे बाबूजी का एक अपने हाथ का लिखा दुर्गासप्तसती और भगवान् सत्यनारायण पूजा का विधि-विधान और पाठ है। उन पोथियों पर अपने जीवन काल में वे कितने हज़ार-लाख पाठ किये होंगे यह कोई नहीं बता सकता। श्रीमद्भगवद्गीता के सभी 700 श्लोक उन्हें कण्ठस्त था। यही कारण है कि उन्हें अपने शरीर को त्यागकर ईश्वर के पास जाने में शायद 30-सेकेण्ड लगे होंगे।

राज दरभंगा का वह लाल ध्वज, ध्वज में बने षट्कोण और बीच में मछली का राज-चिन्ह देखकर मन व्याकुल हो गया। बाबूजी जब जीवित थे तो बारम्बार माँ को विस्वास दिलाते थे (शायद बाबूजी जैसा सैकड़ों और उनके सहकर्मी रहे होंगे) की दफ्तर में जब भी पैसा मिलेगा, तब तुम्हे (अपनी पत्नी को) सोने की एक अंगूठी जरूर खरीदकर दूंगा। अगर दफ्तर से पैसा मिला होता तो शायद बाबूजी और उनके सहकर्मीगण यह कार्य जरूर किये होते और उनके मृत्योपरान्त मुखाग्नि के समय माँ के अलावे, उन सहकर्मियों की पत्नियां भी, अपने पति द्वारा प्रदत्त उस बहुमूल्य उपहार को सम्पूर्ण रूप से अपने पति के पार्थिव शरीर को अग्नि के रास्ते भगवान् के पास जाते समय उनके मुखों में सौंप देती – जैसे: त्वदीयं वस्तु गोविन्द: तुभ्यमेव समर्पये – परन्तु ऐसा नहीं हुआ और जो हुआ वह कल्पना से परे था।

गंगा की ओर मस्तष्क रखकर बाबूजी का पार्थिव शरीर वर्फ के एक विशालकाय सिल्ली पर उनके कमरे के सामने 10 फीट x 10 फीट बरामदे पर रखा हुआ था। कंकड़बाग के रोड नंबर 11 में रहते थे बाबूजी, सपरिवार। माँ उनके पैर के पास अपनी आँचल को आँखों के बहुत समीप रखकर टकटकी निगाहों से उन्हें देख रही थी। शायद मन में पांच-छः दसक पूर्व की बातें, जब बाबूजी उसे अग्नि को साक्षी मानकर शपथ खाये होंगे जीवन भर उसका साथ देने के लिए – सोचते बैठी थी। वह शायद समझ नहीं पा रही थी की आखिर ऐसी क्या जरुरत आ पड़ी महादेव को की बाबूजी को अपनी अर्धांगिनी को इसी पृथ्वी पर छोड़कर महादेव के पास जाना पड़ा। मन में अनेकानेक बातें समुद्र की लहरों की तरह आ – जा रही थी उस समय। परन्तु अपने सभी संतानों को देख शायद खुद ढाढ़स बाँध रही थी।

बाबूजी कोई डेढ़ घंटे पहले दफ्तर से आये थे। दफ्तर जाना, हाज़िरी लगाना आवश्यक था उन दिनों, नहीं तो पैसे काट जाते थे। कहते हैं – सोना लूट गया, कोयला पर पहरा । यह अलग बात थी की उन दिनों भी अख़बारों का प्रकाशन वाधित हो गया था। तनखाह भी नहीं मिलता था। कर्तब्यनिष्ठ होने के कारण बाबूजी हमेशा कहते थे “जब तक सांस चलेगी, दफ्तर जाता रहूँगा। अनुपस्थिति कभी नहीं दूंगा, क्या पता जीवन के अंतिम समय में मालिक कोई “दाग” लगा दे।वैसे भी मिथिलाञ्चल में ऐसे लोगों की किल्लत तो थी नहीं, आज भी नहीं है । परन्तु बाबूजी यह नहीं जानते थे की उनकी अन्तिम सांस तक की उपस्थिति को दफ्तर के लोग गिनती नहीं करेंगे। अगर मृत्यु को भी प्राप्त किये तो भी बचे-बकाये पैसे नहीं देंगे। अपनी विधवा के लिए भी दो-पैसे किसी बक्से के कोने में, बैंक के खाते में अथवा दफ्तर में छोड़कर नहीं जायेंगे।

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बाबूजी को शरीर त्यागे कोई 12 घंटे से अधिक हो गए थे। बेसुध पड़े थे वर्फ के शिले पर। चारो ओर घर के बाल-बच्चे थे। इधर आसमान में काले बादल घिर गए थे। भयानक डरावनी आवाज, बिजली की कौंघ से आसमान कभी प्रज्वलित हो जा रहा था, तो कभी कालिख़। सामने के कमरे में एक छोटा सा टेबुल था जिसपर उनके सामान, मसलम कैंची, हथौड़ी, सूई, धागा, ब्लेड, स्केल, पुराना सादा कागज़, तंत्र-मन्त्र के कुछ सामान रहा था। उन्ही सामानों के बीच एक दसकों पुराना किताब – वर्षकृत्यम। इस किताब में बच्चे के जन्म से मनुष्य की मृत्यु तक के सभी मन्त्र लिखे थे। जहाँ दाह -संस्कार का मन्त्र लिखा था वहां एक मुठ्ठा कुशा रखा था। उसे देखकर सबों को यह विस्वास हो गया की बाबूजी को अपनी मृत्यु का आभास था और बंच्चों को दाह -संस्कार में मंत्रोचारण में कोई बाधा न हो, इसलिए शायद कुशा को किताब के उस पन्ने के बीच रख दिए थे।

ऐसे खंडहर हो गए दरभंगा राज

इस पृथ्वी से अपनी यात्रा प्रारम्भ करने से महज डेढ़-घंटा पूर्व वे दफ्तर से आये थे। उस दिन वे अपने सबसे बड़े दामाद का घोती पहने थे। दफ्तर से आने के बाद वे स्नान किये और उनकी धोती को घोकर सामने सुखने के लिए फैला दिए थे। गंजी (बनियान) खोलकर, घोकर रस्सी पर टांग दिए थे। अगर समय का आंकलन किया जाय तो अब उनके पास महज 20 मिनट से 30 मिनट बचे होंगे। सामने बरामदा पर बैठकर अपनी तीसरी बेटी की बड़ी बेटी, यानि नतनी से बात करने लगे और मेरी माँ को कुछ नास्ता देने को कहे। दफ्तर में महीनो से तनखाह नहीं मिला था। घर किसी तरह खींच-खाँच कर चल रहा था। आटा-चावल-दाल-तेल-मसाला आदि के वर्तन मुद्दत से उन सभी प्राणियों को टकटकी निगाहों से, परन्तु आशाभरी, देखता था जो भी रसोई घर में कदम रखता था। वर्तन भी सोचता होगा, आज उसे भी भर पेट खाना मिलेगा। परन्तु, माँ बारम्बार कहती थी – भूखे रखना परन्तु चेहरे पर भाव नहीं आने देना नहीं तो लोग बाग़ हँसेंगे तुम्हारी गरीबी पर। लोगबाग मजाक उड़ाएंगे तुम्हारी गरीबी पर। आखिर माँ के शब्द भी तो बाबूजी के भी शब्द थे।

माँ दिन के बचे आलू को नमक-तेल मिलाकर, दो-पावरोटी के बीच दबाकर, सेककर सामने बरामदे पर बैठे बाबूजी को मुस्कुराते दी। बाबूजी उसके हाथ से प्लेट लिए, जमीन पर रखे। इधर माँ पानी लाने रसोई में गयी ही थी और बाबूजी अपने दाहिने हाथ से उस पावरोटी को तोड़कर मुख की ओर ले जा ही रहे थे की आसमान में भयानक गर्जन हुआ। सम्पूर्ण आकाश में बिजली कौंध गयी। घर में एक विशालकाय घंटा जैसा बजने का आभास हुआ और बाबूजी अपने हाथों में माँ की बनाई वह रोटी का टुकड़ा लिए महादेव के पास प्रस्थान कर लिए। दृश्य कुछ ऐसा ही था जैसे एक छोटा बच्चा स्कूल जाते समय जल्दीवाजी में खाते-खाते घर से निकलता है। हम सबों का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाप्त हो गया था। माँ के माथे पर सिंदूर की लालिमा का सूर्यास्त हो गया था। उसकी चूड़ियों की खनखनाहट शांत हो गयी।

बाबूजी के पार्थिव शरीर पर अपना श्रद्धांजलि अर्पित करने अनेकानेक लोग आये । लोगों की उपस्थिति देखकर तनिक भी यह संदेह नहीं हुआ की हम सब आर्थिक रूप से इतने कमजोर हैं। क्योंकि वर्तमान समाज में तो धनाढ्यों को श्रद्धांजलि देने काला-काला चश्मा पहने लोगबाग आते हैं,ताकि आखों से नाटकीय आंसू को भी कोई देख न ले। यहाँ बात कुछ अलग थी। माँ बारम्बार कहती थी उन्हें, कोई उपाय कर दफ्तर से पैसे निकलने की कोशिश करें। कोई धूस भी लेता है तो दे दीजिये । लेकिन बाबूजी जानते थे दफ्तर के लोगों को, अधिकारियों को। वे सभी खा भी लेते और डकारते भी नहीं। बाबूजी माँ से उम्र में बड़े तो थे ही, दुनिया भी अधिक देखे थे। “धनाढ्य” होना कोई “ईश्वरीय” अनुकम्पा नहीं है इस पृथ्वी पर। जो धनाढ्य हैं वे गरीबों का शोषण कर ही, चापलूसी कर ही, धोखधड़ी कर ही, आम लोगों को, असहाय लोगों को लूटकर ही धनाढ्य बना है। खैर। और बाबूजी की वेदना कोई सुने-समझे अथवा नहीं, हम सभी जानते थे, समझते थे । पेट-पीठ एक हो गया था बाबूजी का तभी तो अग्नि महाराज को बाबूजी के पार्थिव शरीर को अपने में समाने में कोई एक घंटा से तनिक अधिक लगा था।

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बाबूजी के पार्थिव शरीर को पटना के गुल्मी घाट तक ले जाने की तैयारी हो रही थी। वर्षा अब तक अपने उत्कर्ष पर थी। चतुर्दिक पानी ही पानी था। हम सभी घाट की यात्रा करने को तैयार हो रहे थे। घाट पर जिन-जिन वस्तुओं की जरुरत होती है, उसे एकत्रित कर पर रख रहे थे, ताकि धार्मिक पद्धति के अनुसार बाबूजी के पार्थिव शरीर को अग्नि महाराज को सुपुर्द किया जाय । पिछले शाम बाबूजी का जाने का खबर जब दफ्तर के लोगों को लगा था, तब टेलीग्राफ अखबार से निकलते समय बंगाली-सहकर्मीगण जेब में पैसे रखते गए थे, इसलिए अभी किल्लत नहीं महसूस हो रही थी।

इधर माँ को एक कोने में चुपचाप बैठे, रोते, बिलखते देख उसके पास आया। उसे हिम्मत बंधाया । परन्तु माँ किसी और चीज के लिए व्याकुल थी – अपने पति के मुखाग्नि के समय मुख में स्वर्ण कहाँ से लाऊँ ?

बाबूजी की मृत्यु तक मैं स्वर्ण देखा नहीं था। पहनने की बात तो दूर। गले में एक काला घागा और हाथ में कलाई पर रोली – हमारी यही यथायोग्य आभूषण था । क्योंकि स्वर्ण से अधिक महत्वपूर्ण “जीवित रहना” था सबों के लिए। जो भी पैसे मिलते थे हम सभी जीवित रहने में, पढ़ने – लिखने में निवेश कर देते थे, ताकि आने वाले समय में घर में सरस्वती का साम्राज्य हो। कहते भी हैं जिस घर में सरस्वती होती हैं, लक्ष्मी भले देर से ही सही, आती ही हैं या उन्हें आना ही पड़ता है। बीच एक सज्जन जो उसी दफ्तर में कार्य करते थे, मेरी ओर देखे और कहे: “बाबूजी को गंगा ले जाते समय तुम घर आ जाना, स्वर्ण दे दूंगा मुखाग्नि के समय के लिए।” बाबूजी इन्हे अपने जीते-जी बहुत पान खिलाये थे। सोचा अब बाबूजी स्वर्ण के साथ महादेव के पास पहुंचेंगे। इस पृथ्वी पर तो “ज्ञान” को कोई कीमत नहीं होती है, नहीं तो बाबूजी इतने बड़े संस्थान में संस्कृत के आचार्य होकर चपरासी क्यों रहते? दरवानी क्यों करते ? इस पृथ्वी पर तो भेष पर ही भीख भी मिलता है। अगर ऐसा नहीं होता तो भिखारी स्वरुप मनुष्य देश को कैसे लूटता ?

खैर !! गंगा घाट के लिए बाबूजी की यात्रा इधर शुरू हुई, हम रास्ते में कुछ पल के लिए अलग होकर उनके घर पहुँच गए। मुझे देखते वे बहुत कुछ बोलने लगे, जो सामयिक नहीं था । वे मुझे काजग का एक टुकड़ा पकड़ने को कहे और स्वयं सरौता लेकर एक पुरानी अंगूठी को इस कदर छिलकर देने लगे की कहीं स्वर्ण न गिर जाय कागज के टुकड़े पर । कागज सफ़ेद होने के कारण और बल्ब की रौशनी पर स्वर्ण का घिसा सूक्ष्म कण कभी -कभी चमकता दिखा। मन को यह विस्वास दिलाया की मुखाग्नि के समय इस सम्पूर्ण कागज़ को ही बाबूजी के मुख में रख दूंगा । गंगा की गहराई जैसी आत्मा के कोने में कसम खा रहा था की जीवन को स्वर्णमय बना दूंगा ताकि आने वाले दिनों में कभी किसी के मुखाग्नि के समय स्वर्ण की बेजत्ती नहीं हो।

बाबूजी जब जीवित थे तो बारम्बार माँ को विस्वास दिलाते थे की दफ्तर में जब भी पैसा मिलेगा तब तुम्हे एक अंगूठी जरूर खरीदकर दूंगा । अगर दफ्तर से पैसा मिला होता तो शायद बाबूजी यह कार्य जरूर करते और आज मुखाग्नि के समय माँ अपने पति द्वारा प्रदत्त उस बहुमूल्य उपहार तो सम्पूर्ण रूप से उन्हें सौंप देती – जैसे: त्वदीयं वस्तु गोविन्द: तुभ्यमेव समर्पये।

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महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह और उनके भ्राता

अतिप्त आत्मा के साथ बाबूजी महादेव के पास गए। माँ 18 वर्ष तक उस अतृप्त आत्मा को तृप्त करने हेतु अनंत प्रयास को, परन्तु वह भी बाबूजी के जीवित शरीर को पार्थिव होने और अग्नि के रास्ते महादेव तक पहुँचने के 18 वर्ष बाद उसी रास्ते का अख़्तियार की जिस रास्ते से उसके पति गए थे। समपूर्णम धर्म का निर्वाह करते। आज जिस स्थान पर मैं कार्य करता हूँ, उसी स्थान पर माँ के जीवित शरीर को पार्थिव होते देखा था। यही से उसके शरीर को उठाकर, इस कमरे के ठीक सामने छत पर रखा था। जिस स्थान पर उसका पार्थिव शरीर रखा था, आज वहां हरश्रृंगार फूल का विशाल पौधा है। प्रत्येक वर्ष उनकी मृत्यु की तारीख तक हारश्रिंगार फूलने लगता है। माँ की मृत्यु 29 सितम्बर को रात 11 55 में हुयी थी और मुखाग्नि अगले सुवह गंगा के किनारे गढ़मुक्तेश्वर में। आज सुवह-सवेरे हारश्रिंगार का फूल पूर्णतया उस स्थान को ढँक लेता है जहाँ उसका पार्थिव शरीर रखा था – अनंत यात्रा पर निकलने से पूर्व।

बाबूजी – माँ अपनी अतृप आत्मा के साथ पृथ्वी से कूच किये। माँ-बाबूजी के अलावे उस संस्थान में कार्य करने वाले सैकड़ों लोग इसी तरह विलख कर अनंत यात्रा पर निकले होंगे। हज़ारों लोगों के घरों में चूल्हे की आंच शांत होकर चिता की आंच प्रज्वलित हुयी होगी। मैं बहुत दीन हूँ “अर्थ से”, परन्तु हिमालय की ऊंचाई से भी अधिक ऊँचा मानसिक सोच है। संवेदना शरीर के प्रत्येक रोम की जड़ों में है तभी तो इन शब्दों को लिखते आँखों में अश्रु और सभी रोम खड़े हो गए हैं।

पिछले दिनों दरभंगा गए थे। अपने सभी पुराने मित्रों से, पितृपक्ष और मातृपक्ष दोनों के सम्बन्धियों से मिला। बाबूजी के कुछ बहुत पुराने मित्रों से भी मिला जो लेखन और प्रकाशन की दुनिया से जुड़े थे, वे मुझे जानते थे। मुझे देखकर अचम्भित रह गए सभी। सबों ने माँ-बाबूजी के बारे में अधिक पूछे और शेष हम सभी माई-बहनों के बारे में, अगली पीढ़ियों के बारे में।

वहां से निकलने के बाद विश्वविद्यालय परिसर में स्थित भगवती मंदिर भी गया। अपना माथा उनके चौखट पर रखा, प्रणाम किया, अन्तःमन से दो बातें भी उन्हें बताया। फिर आगे महाराजाओं के आदमकद प्रतिमा के सामने कुछ पल खड़ा रहा। पिछले पांच दसक पूर्व के भौगोलिक स्थिति को आँखों के सामने घुमाया। कई पेड़ अपने जमीन को छोड़ चुके थे। कोई देखने वाला नहीं था शायद उन बृक्षों को जिसने आजीवन लोगों को अपना शरण दिया था । कुछ पेड़ विशालकाय भवन के दीवारों से निकला देखा, जैसे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, चिलचिलाती ताप में मुझ जैसे दीन-निरीहों को अपना साया देने के लिए नरसिंह अवतार लिया हो, दीवारों को चिड़कर खुद खड़ा हुआ हो। कई जगह भवनों और दीवारों की ईंटों को अलग-अलग हुए देखा। कोई ईंट उत्तर देख रहा था, तो कोई दक्षिण। कोई सर के बल नीचे गिरा पड़ा था, तो समयांतराल देख-रेख नहीं होने कारण प्रकृति की मिटटी उसे अपने में समा रही थी, जिससे इस मृत्युलोक से उसे छुटकारा मिल सके। सम्पूर्ण दृश्य की तुलना पांच दसक पूर्व के भौगोलिक स्थिति से करने पर सिर्फ रोना आ रहा था।

बीच-बीच में उन सभी स्थानों पर रुक जाता था जहाँ ऐसा एहसास होता था की यहाँ बाबूजी मेरी ऊँगली पकडे कैसे लाये थे दिखाने जब मैं उनके साथ अपनी दूसरी बहन की शादी के सिलसिले में दरभंगा आया था, साठ के दसक के उत्तरार्ध। बहन भी तो अब नहीं रही और बहनोई तो 23 साल पहले अपनी अनन्त यात्रा पर निकल गए।

खैर। बाबूजी को, माँ को यह विस्वास दिलाया मैं आपके और आपके जैसे सैकड़ों लोगों को, जो अपने-अपने पैसे के लिए बिलख-बिलख कर मृत्यु प्राप्त किये। आप दोनों महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह साहेब से अवश्य मिले होंगे। उन्हें मेरे नमन कहेंगे और आप अपनी सपूर्ण शिकायतें उन्हें जरूर करेंगे।मैं महाराजा साहेब द्वारा स्थापित समाचार पत्रों के वेबसाईट पर भी आपकी बातों को लिख रहा हूँ। यह भी बता देंगे उन्हें।

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