मेरा नाम चिन चिन चू..चिन चिन चू.. बाबा.. चिन चिन चू… रात चाँदनी मैं और तू..हैल्लो मिस्टर हाऊ डू यू डू, हावड़ा ब्रीज और कथ्था-चूना 

हावड़ा ब्रीज Photo courtesy with thanks goibibo.com  

बिमल रॉय की फिल्म “दो बीघा जमीन”, ऋत्विक घटक की “बारी थाके पा लिए”, सत्यजित रॉय की “पारश पथ्थर”, मृणाल सेन की “नील आकाशेर नीचे”, शक्ति सामंत का “हावड़ा ब्रीज”, चाईना टाउन, अमर प्रेम, गांधी, पार, तीन देवियाँ, राम तेरी गंगा मैली, युवा, परिणिता, ब्योमकेश बक्शी और न जाने कितने फिल्म होंगे जो हावड़ा ब्रीज पर, इसके नीचे बहने वाली हुगली नदी की धाराओं में बनी है और आज भी दर्शकों के मानस पटल पर छाये हैं, चाहे भारत में रहते हों अथवा विश्व के किसी कोने में। 

मैं सबसे पहले कलकत्ता सन 1976 में गया था पटना से, वह भी अकेले। पटना से प्रकाशित इण्डियन नेशन अखबार में नौकरी किये कोई एक साल ही हुआ था, एक सज्जन कलकत्ता किसी सामान को पहुँचाने के लिए कहे। उनके पास कोई विकल्प नहीं था तो मैं विकल्प हो गया। जाने-आने का मासूल (किराया) दिए, राह-खर्च दिए, दो-दिन रहने के लिए होटल के लिए, खाने-पीने के लिए पैसे दिए। उसके छः साल बाद यानि, सन 1982 में जब जगन्नाथ मिश्र बिहार प्रेस बिल लाये। उसी समय नवभारत टाईम्स के लिए ट्रेनी-रिपोर्टर के लिए लिखित परीक्षा ली गयी। बेनेट कोलमैन एक लेख माँगा था जिसकी स्वीकृति के बाद ही लिखित परीक्षा में बैठने की अनुमति थी। मैं छिलका-उताड़कर लिखा। मुझे कलकत्ता बुलाया गया – आने – जाने का भाड़ा दिया। मुझे रहने के लिए कोल इण्डिया के गेस्ट हॉउस में स्थान मिला। यहाँ भी अकेले – इसके बाद तो कलकत्ता जैसे अपना घर जैसा हो गया।    
 
वैसे आप सभी जब भी कलकत्ता गए होंगे तो इस पुल को भी देखा होगा। वैसे बचपन में माता-पिता की ऊँगली पकड़कर जब इस पुल से गुजरे होंगे तो एक अलग मजा आया होगा। परन्तु, आज इस पुल की स्थिति पर सोचने का समय आ गया है। हम भले भारत के स्वच्छ भारत अभियान की बात करें, सफाई की बात करें, सेमीनार करें, संगोष्ठी करें – परन्तु जब तक जमीन पर इसकी महत्ता नहीं छपेगी, तब तक यही कहा जायेगा सभी के पीछे राजनीती है। और अगर ऐसा नहीं होता तो भारत में स्थित सैकड़ों-हज़ारों ऐतिहासिक स्मारकों, ऐतिहासिक निर्माणों पर लोग थूकते नहीं, गन्दा नहीं करते।

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यह सच है। क्योंकि आज लोग पान खा-खाकर कलकत्ता के हावड़ा ब्रीज इतने थूके की उसकी नीव हिलने को आ गयी। कलकत्ता लोग दो चीजों को देखने आते हैं – एक हावड़ा ब्रीज और दूसरा विक्टोरिआ मेमोरियल। कहते हैं की विक्टोरिआ मेमोरियल की बनाबट, नक्कासी को देखकर बंगाल के लोग उसे कलकत्ता का ताजमहल कहते हैं। वैसे अंदाजा है की लॉक डाउन के दौरान कुछ तो राहत मिला होगा इस ब्रिज को।

हावड़ा ब्रिज को दुनिया के सबसे अच्छे कैंटिलीवर पुलों में शामिल किया जाता है। हुगली नदी पर खड़ा यह पुल चंद खंभों पर टिका है। लेकिन इंजीनियरों का कहना है कि इन खंभों को अब जंग लगने लगा है। और इस जंग की वजह है पान। इस पुल से रोजाना लाखों लोग पान चबाते हुए गुजरते हैं और थूकते हुए निकल जाते हैं। जिन खंभों पर पुल टिका है उनमें से कुछ के आधार की मोटाई तो पिछले तीन साल में आधी रह गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पान में ऐसी चीजें होती हैं जो बेहद खतरनाक किस्म के यौगिक बना सकती हैं और स्टील को खत्म कर सकती हैं। कोलकाता की सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैब का मानना है कि थूक के साथ मिलकर पान में मौजूद चीजें स्टील पर एसिड सरीखा असर छोड़ती हैं।

यह पुल बेहद मजबूत है और बरसों से बंगाल की खाड़ी के तूफानों को सहन कर रहा है। यही नहीं, 2005 में एक हजार टन वजनी कार्गो जहाज इससे टकरा गया था, तब भी पुल का कुछ नहीं बिगड़ा था। लेकिन इंसान की एक छोटी सी लापरवाही को यह सहन नहीं कर पा रहा है। टैनिन के मिश्रण वाला थूक इसका दुश्मन बन गया है। कहा जाता है कि वैसे सैकड़ों लोग नित्य थूकने के लिए रोजाना जुर्माना भरते हैं, लेकिन यहां से लगभग 5 लाख लोग रोज गुजरते हैं, इसलिए पुलिस हर आदमी को थूकने से रोक नहीं सकती। इसके लिए एक अभियान की जरूरत है, जिसके जरिए लोगों में पुल की अहमियत को लेकर जागरुकता पैदा हो सके।

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सत्तर साल से भी पहले निर्मित हावड़ा ब्रिज इंजीनियरिंग का चमत्कार है। यह विश्व के व्यस्ततम कैंटीलीवर ब्रिजों में से एक है। कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने वाले इस पुल जैसे अनोखे पुल संसार भर में केवल गिने-चुने ही हैं, इसे कलकत्ता का “गेट वे” भी कहा जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कोलकाता और हावड़ा के बीच बहने वाली हुगली नदी पर एक तैरते हुए पुल के निर्माण की परिकल्पना की गई। तैरते हुआ पुल बनाने का कारण यह था कि नदी में रोजाना काफी जहाज आते-जाते थे। खम्भों वाला पुल बनाते तो जहाजों का आना-जाना रुक जाता।

अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा। टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फ़ुटपाथ छोड़ा गया था। सन् 1943 में इसे आम जनता के उपयोग के लिए खोल दिया गया। 60,000 वाहनों और पैदल चलने वालों को रोज़ ढोता है।

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