महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की आत्मा ”अपनी ही जमीन” पर ”अपना ही उपनाम” नहीं देखकर बिलखती होगी

पटना के फ़्रेज़र रोड पर स्थित एक मॉल का नाम। यहीं महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह जी द्वारा स्थापित आर्यावर्त और इण्डियन नेशन समाचार पत्रों का दफ्तर हुआ करता था। आज नामों-निशान  नहीं है। जो है वह "आधा-नाम" (उपनाम रहित) और "अक्षर गायब" - तस्वीर: आर्यावर्त इण्डियन नेशन डॉट कॉम 

आज नहीं तो कल, टीवी के किसी रियलिटी शो में 1000 रुपये का एक प्रश्न पूछा जाएगा कि भारत के वे कौन से महाराजा थे जिन्होंने अपने प्रदेश के लोगों को “आवाज़” देने के लिए, ताकि उनके राज्य के लोग बिना किसी भय के अपनी बातें कह सकें,  लिख सकें, प्रकाशित कर सकें – दो समाचार पत्र प्रकाशित कर दिए । लेकिन उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों के बाद उस आवाज को बंद कर, मिटटी में मिला दिया गया और हज़ारों परिवारों का अस्तित्व समाप्त कर दिया गए – अपने हित लिए। 

महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह का “विल” – अनेकानेक अनछुए प्रश्न किताब के रूप में बाहर आने वाले हैं 

आज नहीं तो कल जब भारत के महाराजाओं, जमीन्दारों  पर गाँव के खलिहानों में, पंचायत के चबूतरों पर, मन्दिरों के चौखटों पर तत्कालीन लोग-बाग़ चर्चाएं करेंगे तो महाराजा दरभंगा लक्ष्मेश्वर सिंह, कामेश्वर सिंह का नाम लेते ही लोगों की आखें अश्रुपूरित हो जाएंगी। गंगा-यमुना की धाराओं जैसी बहती आखें उन महाराजाओं को अपने- अन्तःमन से प्रणाम भी करेंगे, उनके नामों को जमीन पर अपनी उँगलियों से मिटटी को खोदकर लिखेंगे भी, फिर उस नाम के सामने अपने-अपने मस्तष्क को झुकाकर उन्हें भावांजलि, श्रद्धांजलि भी देंगे – लेकिन उसके बाद महाराजाओं की अगली पीढ़ियों को, जो उनकी सम्पत्तियों का हिस्सेदार बने; क्या-क्या कहेंगे यह तो समय ही बताएगा। 

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वैसे पटना के रास्ते, कलकत्ता, मद्रास, होते हुए दरभंगा से दिल्ली तक, दिल्ली से लन्दन, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया तक लोगबाग अगली पीढ़ियों की “नाकामियों की चर्चा अब खुलेआम करने लगे हैं। लोगबाग तो यह भी कहने लगे हैं, किताबों में लिखने लगे हैं कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित आर्यावर्त – इण्डियन नेशन समाचार पत्रों को “एक सोची-समझी साजिश के तहत पहले नेश्तोनाबूद किया गया, फिर बंद किया गया,  फिर उस आवाज को भी बेच दिया गया।  महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह आर्यावर्त हिन्दी दैनिक और इण्डियन नेशन अंग्रेजी दैनिक को बिहार के लोगों की आवाज मानते थे। हज़ारो-हज़ार परिवारों के पेटों पर लात मारकर उन अख़बारों के बंद होने, भवनों को मिटटी में मिलने का अर्थ बिहार के लोगों को ‘मूक-बनाना’ हुआ, अस्तित्व मिटाना हुआ, महाराजाधिराज के प्रति बिहार के लोगों की आस्था, स्नेह, प्रेम, आत्मीयता को मिटटी में दफ़न करना हुआ। 

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वैसे एक बात आज भी समझ से परे है, और वह यह कि महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की ‘आकाशमीक मृत्यु’ के तत्काल बाद महाराजा के ‘विल’ को क्रियन्वित करने और एकमात्र-क्रियान्वक बनने के लिए तत्कालीन न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा, पटना उच्च न्यायालय की उपस्थिति में भी उसे त्याग कर, कलकत्ता न्यायालय चले गए। लेकिन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों के बंद होने सम्बन्धी, कर्मचारियों के बकाए के भुगतान से सम्बंधित मामले को पटना उच्च न्यायालय में रख दिया गया। कुछ तो वजह होगा।  

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कहीं ऐसा तो नहीं की पटना उच्च न्यायालय में न्याय-मिलने की अवधि कलकत्ता उच्च न्यायालय की तुलना में अधिक लम्बी होती है। इण्डियन नेशन – आर्यावर्त पत्र समूह (न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड) के स्वामी दिवंगत शुभेश्वर सिंह थे। महाराजा की मृत्यु के बाद यह संस्थान उन्हें “हिस्से” में मिला। उनकी मृत्यु के पश्चयात इस पत्र समूह का मालिक उनके पुत्रद्वय हुए। दसको पहले इन समाचार पत्रों का दफ्तर-जमीन बेच दिया गया। आज वहां एक मॉल है जिसका नाम ‘महाराजा कामेश्वर कॉम्प्लेक्स” है। प्रदेश के विद्वानों का, महाराजा के प्रति समर्पित लोगों का कहना है कि “आज महाराजाधिराज की अगली पीढ़ियां, जो सम्पत्तियों का मालिक बने, इतना भी उन्हें सामान  नहीं समझे की  इस कॉम्प्लेक्स में महाराजा साहेब के पूरा नाम उद्धृत करते। इतना ही नहीं, महाराजाधिराज का नाम कभी ‘मॉल’ के नाम के रूप में ‘वह भी अक्षरहीन’, या फिर दिव्यांगों को दी जाने वाली ट्राइस्किल के पीछे लिखा दीखता है – वह भी अशुद्ध, महाराजाधिराज कभी सोचे भी नहीं होंगे । 

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आज स्थिति ऐसी है कि इंडियन नेशन प्रेस (न्यूज़ पेपर पब्लिकेशन लि,) 42 चौरंगी (कलकत्ता ) अब रामबाग की अधिकांश जमीन भी बिक गयी है। सबसे पहले दिलखुश बाग का एरिया बिका फिर सिंह द्वार के समीप और सुनने में है कि मधुबनी स्थित भौरा गढ़ी का भी डील हो गया है ।  दरभंगा राज का क्रियाकलाप महाराजा के मृत्यु के बाद मुख्यतः लक्ष्मीकांत झा, दुर्गानन्द झा और पंडित द्वारिका नाथ झा के इर्द -गिर्द था । सबसे पहले तीनो राजकुमार (महाराजा के भतीजा) ने बेला पैलेस सहित 80 एकड़ का 1968 में सौदा किया और दरभंगा में बिना आवास के हो गए। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने सबसे छोटे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को अपने रामबाग में रखा। वसियत के अनुसार बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी के मृत्यु के बाद उनके महल पर राजकुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होगा। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह घर का नाम बेबी राजनगर रहने लगे और उनकी बड़ी पत्नी राजकिशोरी जी अपनी दोनों बेटी के साथ और मझले राजकुमार यजनेश्वर सिंह अपने परिवार के साथ यूरोपियन गेस्ट हाउस ऊपरी मंजिल पर उत्तर और दझिण भाग में आ गए। 

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बेला पैलेस के सौदा होने के कालखंड में मार्च 1967 में 92 लाख रूपये में राज ट्रेज़री का गहने और जवाहरात की नीलामी डेथ ड्यूटी चुकाने के लिए हुई जिसमे मशहुर MarieAntoinettee हार, धोलपुर क्राउन, नेपाली हार, और हीरे – जवाहरात थे। जिसे बॉम्बे के नानुभाई जौहरी ने खरीदा । बाम्बे के गोरेगांव में नानूभाई की नीरलोन नाम की कंपनी भी है। उसके बाद 45 लाख में रामेश्वर जूट मील, मुक्तापुर बिडला के हाथ, फिर वाल्फोर्ड ट्रांसपोर्ट कंपनी, कोलकाता डेविड के हाथ, दरभंगा हवाई अड्डा केंद्र सरकार ने ले ली। सुगर फैक्ट्री लोहट और सकरी, अशोक पेपर मील, हायाघाट, दरभंगा – लहेरियासराय इलेक्ट्रिक सप्लाई बिहार सरकार ने । विश्राम कोठी, दरभंगा और बॉम्बे का पेद्दर रोड, इनकम टैक्स के हाथ, दरभंगा हाउस शिमला, दरभंगा हाउस दिल्ली सेंट्रल गवर्नमेंट को, रांची का दरभंगा हाउस सेंट्रल कोल् फील्ड लिमिटेड को, फिर नरगोना पैलेस, राज हेड ऑफिस, यूरोपियन गेस्ट हाउस, मोतीमहल, राज फील्ड, राज प्रेस, देनवी कोठी, लालबाग गेस्ट हाउस, बंगलो नो. 6 और 11, राज अस्तबल, श्रोत्रि लाइन, सहित सैकड़ों एकड़ जमीन मिथिला विश्वविद्यालय को, रेल ट्रैक और सलून, वाटर बोट, बग्घी, फर्नीचर, कार रोल्स रायस- बेंटली – बियुक –पेकार्ड –शेवेर्लेट – प्लायमौथ – 50 एच् . पी जॉर्ज V बॉडी आदि ।  

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बड़ी महारानी के 1976 में देहांत होने और 1978 में पंडित लक्ष्मी कान्त झा के देहांत के बाद दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। श्री मदनमोहन मिश्र ( गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बड़े पुत्र), श्री द्वारिका नाथ झा और श्री दुर्गानंद झा तीनो ट्रस्टी के अधीन। फिर श्री दुर्गानंद झा के देहांत के बाद 1983 के आसपास श्री गोविन्द मोहन मिश्र ट्रस्टी बने और फिर उनके स्थान पर श्री कामनाथ झा ट्रस्टी बने । राजकुमार शुभेश्वर सिंह 1965 के आसपास दरभंगा राज के मामले में सक्रिय हो गये थे उन्हें रामेश्वर जूट मिल, फिर सुगर कंपनी और न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लिमिटेड का जिम्मेवारी मिली। 

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महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह का “विल” – अनेकानेक अनछुए प्रश्न किताब के रूप में बाहर आने वाले हैं 

सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी रहे दरभंगा राज के मामले में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं था। राजनगर से वे गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बाद बंगला नंबर 1, गिरीन्द्र मोहन रोड में अपने दूसरी पत्नी और 5 पुत्री के साथ रहने लगे। स्व . महाराजाधिराज के तथाकथित परिवार के सदस्यों ने माननीय उच्चतम न्यायालय में एक फॅमिली सेटलमेंट नो . 17406-07ऑफ़ 1987 में फॅमिली सेटलमेंट हुआ। जिसमे महाराजा के वसीयत के विपरीत छोटी महारानी के जिन्दा रहते कुल संपत्ति का एक चौथै हिस्सा पब्लिक चैरिटी को मिला और 1/4 छोटी महारानी, 1/4 राजकुमार शुभेश्वर सिंह और उनके दोनों पुत्र को और 1/4 में मंझले राजकुमार के पुत्रों और बड़े राजकुमार के 7 पुत्रियों को मिला।

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