कोई मुख्य मन्त्री, नेता, अधिकारी नहीं चाहे की बिहार में “शिक्षा-रूपी लालटेन प्रज्वलित हो” मोदीजी, आख़िर “सत्ता और राजनीति” का सवाल है

प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार। फोटो: आजतक के सौजन्य से 
प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्य मंत्री श्री नितीश कुमार। फोटो: आजतक के सौजन्य से 

पिछले पचास वर्षों में बिहार का कोई भी मुख्य मंत्री, शिक्षा मंत्री, शिक्षित अधिकारीगण “ह्रदय से” नहीं चाहे की प्रदेश में “शिक्षा रूपी सरकारी लालटेन प्रज्वलित हो “मोदीजी”, आखिर “सत्ता और राजनीतिक” का सवाल था, सवाल है आज भी। सांख्यिकी एकत्रित कर सरकारी दस्तावेजों में प्रकाशित करना, प्रकाशित होना,  “प्रदेश की वास्तविक शिक्षा की स्थिति, साक्षरता-दरों की वर्तमान दशा को नहीं बताता है, सम्मानित प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी। 

न भारतीय जनता पार्टी, न जनता दल (यूनाइटेड), न राष्ट्रीय जनता दल, न कांग्रेस, न कम्युनिस्ट, न सोशलिस्ट – कोई भी राजनीतिक पार्टी, कोई भी राजनीतिक नेता; शिक्षा वाला सरकारी लालटेन नहीं जलाये प्रदेश में। प्रदेश को “अंधकार” में धकेल दिए। लेकिन, निजी-क्षेत्रों में बने उसी “लालटेन” को प्रदेश के नेताओं से लेकर अधिकारियों तक, सबों ने समर्थन दिया, संरक्षण दिया – अगर ऐसा नहीं होता, तो कुकुरमुत्तों जैसा निजी क्षेत्रों का लालटेन जलने के लिए मतदाताओं से “पैसा भी नहीं लेता और भक-भक-भुक-भुक भी नहीं करता, सम्मानित प्रधान मंत्री मोदीजी । 
 
दिल्ली-मुंबई-कलकत्ता-चेन्नई-मंगलुरु-बंगलुरु-हैदराबाद-सिकंदराबाद-कानपुर-नागपुर-बनारस के साथ-साथ देश के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 718 जिलों में रहने वाले कोई 130 करोड़ लोग और सैकड़ों राजनीतिक पार्टियों के नेतागण इस “खुशफ़ैहमी” से “बाहर निकल जायँ” की भारत से “लालटेन-युग” समाप्त हो गया है। बिहारकी तो बात ही नहीं करें। यहाँ की स्थिति तो और बत्तर है। जनता को बरगलाकर सत्ता में आसीन होने, रहने का पर्याप्त अवसर है, क्योंकि जनता ही वैसी है । और जब प्रदेश से बाहर रहने वाले लोगों के बच्चे-बच्चियां विश्व में शिक्षा के उत्कर्ष पर पहुँचते हैं तो “राजनेतागण” अपनी छवि अख़बारों में छपाने के लिए उस अभ्यर्थियों को सम्मानित करना भी नहीं भूलते – सड़कों पर, गलियों में, चौराहों पर कहते फिरते हैं: “बिहारी है – बिहारी है। 

इन 36 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य मंत्रीगण और देश के प्रधान मन्त्री भी इस बात को लिख लें की जिस दिन भारत से “लालटेन-युग” का अंत हो जायेगा, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों का एक बहुत बड़ा “राजनीतिक मुद्दा” जीते-जी मर जायेगा, जिसे वे कभी चाहेंगे नहीं। कहते हैं न “लोभी गाँव में ठग भूखा नहीं रहता” – खासकर वैसे देश में जहाँ लोगबाग तो लोभी हैं है, अशिक्षा इतनी अधिक है की ‘सच-झूठ-में अन्तर भी नहीं कर पाते हैं।” वैसे भी, जब गर्दन से छः इन्च नीचे “उदर खली हो” तो “सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ भी नहीं याद आते जिन्होंने भारत के 70 से अधिक फीसदी आवाम का आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक और राजनीतिक दृश्यों को बहुत ही बेहतरीन तरीके से शब्दबद्ध किए थे।   

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वह आता-
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।

साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !

ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।  

प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी : बिहार में शिक्षा वाला लालटेन युग लाएं मोदी जी  
प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी : बिहार में शिक्षा वाला लालटेन युग लाएं मोदी जी  

आज के परिपेक्ष में यदि विश्व बैंक की बात को आधार माने तो  भारत की अर्थव्यवस्था में 3.2 प्रतिशत से ज्यादा संकुचन आ सकता है, जिसका अनुमान पहले लगाया गया था। केंद्र का राजकोषीय घाटा 2020-21 में बढ़कर जीडीपी का 6.6 प्रतिशत हो सरकती है और यह अगले साल भी 5.5 प्रतिशत के उच्च स्तर पर बना रहेगा। इसमें कहा गया है, ‘अगर कल्पना करें कि राज्यों का घाटा 3.5 से 4.5 प्रतिशत के बीच है तो केंद्र का घाटा बढ़कर वित्त वर्ष 20/21 में करीब 11 प्रतिशत रह सकता है।’ सूचकों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था अभी आधार स्तर से ऊपर नहीं पहुंची है।  2011-12 से 2015 के बीच जहां भारत में गरीबी 21.6 प्रतिशत से घटकर 13.4 प्रतिशत पर आई है, बैंक ने कहा है कि कोविड-19 के असर के कारण भारत की आधी आबादी के खपत का स्तर गरीबी रेखा के निकट हो सकता है। इन परिवारों के  गरीबी रेखा के नीचे जाने का जोखिम है क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण इनकी आमदनी और नौकरियां चली गई हैं।

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शिक्षा की बात करें तो बीते साल सरकार ने बजट के लिए 93,847.64 करोड़ रुपये का प्रस्ताव रखा था. वहीं 2020-21 में शिक्षा के क्षेत्र में 99300 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। शिक्षा बजट में 10 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की गई थी।  लेकिन सवाल यह है कि क्या इस क्षेत्र में खर्च होने वाली राशि वास्तविक रूप में अपनी मंजिल तक पहुँच पाती है?  यदि सरकार की मंशा दुरुस्त होती, तो देश में सरकारी विद्यालयों की स्थिति ऐसे नहीं होती जैसे आज है और देश का आवाम देखती हैं। चुकि ऐसी है, और ऐसे होने के लिए लोगबाग अधिक जबाबदेह हैं, क्योंकि वे न तो “शिक्षा” के “महत्व” को समझते हैं। जब लोग बाग़, जो खुद एक मतदाता भी हैं, अपने समाज में, अपने घरों में, अपने बच्चों को सरकारी क्षेत्रों के विद्यालओं में मिलने वाली शिक्षा के प्रति कोई जबाबदेही भी नहीं देते। स्वाभाविक है – शिक्षा का व्यापारीकरण होगा ही और इस व्यापारीकरण में उन्ही के समाज के लोग, उन्ही के समाज के दूसरे ‘चालाक’ मतदाता, उन्ही के समाज के ‘चयनित राजनेता, चाहे विधायक हो अथवा सांसद’ – शिक्षा के व्यापार से अर्थोपार्जन करेंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो आज सरकारी क्षेत्रों के विद्यालयों में “कैंसर” जैसा बिमारी नहीं होती, रुग्ण नहीं होता, बंद नहीं होते, माप के पैमाने पर नकारात्मक अंक के उत्कर्ष पर नहीं होते – और निजी क्षेत्रों के शैक्षणिक संस्थान कुकुरमुत्तों जैसे गली-कूचियों में नहीं पनपते !!

बहरहाल, बिहार में पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता-दरों में 20 फीसदी की कमी है। आंकड़ों के अनुसार जहाँ व्यवस्था और सरकार यह दावा करती है कि प्रदेश में 72-फीसदी पुरुष “शिक्षित” हैं और 52-फीसदी महिलाएं शिक्षित हैं – तो तकलीफ भी होती है और हंसी भी आती है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि कोई भी सरकार अथवा व्यवस्था यह कतई नहीं चाहती कि उनके प्रदेश में साक्षरता-दर सौ-फीसदी हो। वजह यह है कि “साक्षर” होते ही “सोच बदलेगा” और सम्भवतः सरकार, व्यवस्था और राजनीतिक पार्टियां/नेतागण उन्हें “लुभा” नहीं पाएंगे, उन्हें “ठग” नहीं पाएंगे। अब अगर ऐसा नहीं होगा तो उन राजनेताओं का, उन राजनीतिक पार्टियों का भविष्य क्या होगा? 

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हमारे प्रदेश के आला मुख्य मंत्री नितीश कुमार इस बात से भलीभांति अवगत है। उनसे पूर्व के मुख्य मंत्री भी अवगत थे – शिक्षा के महत्व को लेकर, साक्षरता-दर बढे अथवा न बढ़े को लेकर। चके लालू प्रसाद यादव हो, राबड़ी देवी हो, नितीश कुमार हों, जीतन राम मांझी हो, सुशील ,कुमार मोदी हो, जगन्नाथ मिश्र हों, भागवत झा ‘आज़ाद’ हों, कर्पूरी ठाकुर हों, केदार पांडे हों, सत्येंद्रनारायण सिन्हा हों, बिंदेश्वरी दुबे हों, रामसुंदर दस हों, अब्दुल गफूर हों, दारोग़ा प्रसाद राय हो – किसी ने भी प्रदेश को शिक्षित नहीं करना चाहे। कोई भी सही मायने में “लालटेन” को घर-घर तक प्रकाशमान नहीं कर पाए। कोई नहीं चाहे की शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो। घर-घर में शिक्षा-रूपी लालटेन जले। लोगों की सोच बदले। क्योंकि सबों को डर था, सबों को आज भी डर है की अगर प्रदेश में सबों के घरों के बाहर “शिक्षा रूप लालटेन प्रज्वलित हो गया तो उनकी राजनीतिक दूकानदारी बंद हो जाएगी।”

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