हे गँगा मैय्या!! बिहार को ‘राजनीतिक परजीवियों’ से मुक्त करो

मुख्य मंत्री नितीश कुमार और संजय झा। ऐसा लगता हैं "एहसान के नीचे दबे हैं नितीश कुमार"

हे गँगा मैय्या!! बिहार को ‘राजनीतिक परजीवियों’ से मुक्त करो, जनता ‘त्राहिमाम’ है, उद्धार करो

यादव, ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित, महादलित, कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, कुर्मी, बनिया, सिख, जैन, बुद्धिस्ट, आदिवासी, कुशवाहा, कोयरी, धानुख, मौर्य इत्यादि-इत्यादि जाति के मतदाताओं वाले राज्य बिहार में अब तक 23 मुण्डी वाले लोग (उनके बार-बार बनने/बैठने की संख्या अलग है) मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं। कुछ “थोपे” गए, कुछ “जबरदस्ती” बैठ गए, कुछ फिर बैठने के लिए चतुर्दिक झूठ-सच-झूठ का चक्रव्यूह रच रहे हैं। स्वाभाविक है, जिस कुर्सी पर बैठे-बैठे प्रकृति के नियमानुसार “वायु-त्याग” किये, आज प्रदेश “आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक-शैक्षिक-व्यावसायिक और नियोजन के दृष्टिकोण से पाईल्स रोग से कराह रहा है। कुल 25,921 दिनों के अपने-अपने कार्यकाल में मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-सन्तरियों ने सोने जैसा इस प्रदेश को स्वहितों में नेश्तोनाबूद कर दिया है। बेचारी जनता !!

सवाल यह है कि इन “राजनीतिक पैरासाइट्स” में कैसे बदलाव लाया जाय। जब तक इन पैरासाईटों को प्रदेश की मुख्य धारा हटाकर दर-किनार नहीं किया जायेगा, प्रदेश में विकास की बात तो स्वप्न में भी नहीं सोचें यहाँ के लोग, मतदातागण। इतना ही नहीं, मतदाताओं को उन लोगों से भी सचेत रहना होगा जो जीवन भर प्रदेश की उथ्थान के लिए सोचे नहीं, प्रदेश के किसी भी एक व्यक्ति को विकास हेतु हाथ क्या, ऊँगली तक नहीं पकड़ने का सोचे – लेकिन जब सांस रुकने का समय आया तो प्रदेश वापस आकर “नेतागिरी” करने लगे – चाहे नेता हों या अधिकारी।

जबरदस्ती के नेतागिरी

बिहार के लोग एक उदाहरण दें की बॉलीवुड के शत्रुघ्न सिन्हा का प्रदेश के विकास में क्या योगदान है? क्या वे बिहार के किसी कलाकार को मुम्बई में उठने/उभरने के लिए “पनाह” दिए? क्या वे अपने जीवन में कभी बिहार में शैक्षणिक विकास हेतु, रोजगार के विकास हेतु यहाँ के लोगों के लिए कुछ किये? मुझे तो नहीं लगता है, अगर आपको पता हो तो लिखें जरूर।

इसी तरह, बॉलीवुड के मनोज तिवारी, प्रकाश झा, इम्तियाज़ अली, शेखर सुमन, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, सोनाक्षी सिन्हा इत्यादि महामानवों का क्या योगदान रहा है बिहार के विकास में? आश्चर्य तो यह है कि बिहार के ‘अशिक्षित’ ही नहीं, ‘शिक्षितों का एक विशाल समूह, जो राजनेताओं द्वारा खींची गयी रेखाओं पर कदमताल करते हैं, वे भी “ताली” बजाते हैं। हाँ, ये महानुभाव गरीब-गुरबा और लोगों को ज्ञान मुफ्त में देते नहीं थकते।

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इसी सन्दर्भ में एक और दृष्टान्त लीजिये। आजकल एक और बिहारी नेता बिहार की राजनीति में “बिगुल” फूंकने के लिए बिहार-भ्रमण कर रहे हैं। जब तक सत्ता में रहे – बिहारियों को बीस-फर्लांग दूर रखे, बिहार के विकास के बारे में तो सपना में भी नहीं सोचिये। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं और जीवन का 82-बसंत देख चुके हैं, वित्त मंत्री रह चुके हैं, लेकिन ” विकास के बारे में इनसे कुछ नहीं पूछें की इन्होने बिहार के लिए क्या किया? लेकिन आज भी “मोह-मुक्त” नहीं हो रहे हैं “सत्ता” से। नाम है – श्री यशवन्त सिन्हा।

मोह अभी भी नहीं जा रहा है बिहार से जिसके लिए कुछ भी नहीं किया

कहते हैं “निपोटिज्म” राजनीति में बहुत है और इसका ज्वलंत उदाहरण है इनके पुत्र। नाम है जयन्त सिन्हा। अच्छे खासे व्यवसाय में थे, राजनीति में आ गए। सिविल एविएशन और फिनान्स विभागों के राज्य मंत्री भी रह चुके हैं। विगत दिनों किसी “कंट्रोवर्सी” में भी अखबार में छपे थे। अभी तक बिहार से मोह भंग नहीं हुआ है। दिल्ली में लोगबाग इन्हे भी “बिहारी” ही कहते हैं, जबकि अब झारखण्डी” हैं। लेकिन इनसे भी नहीं पूछें की ये अपने प्रदेश (अब तो झारखण्ड) के लिए, वहां के लोगों के लिए क्या किये? अगर विस्वास हो तो संसदीय क्षेत्रों के साथ-साथ दिल्ली के लोगों से पूछकर देखिये, नाम लेते ही “नाक-भौं सिकुड़ने लगेंगे।”

बड़े सिन्हा साहेब दो साल पूर्व बीजेपी को नमस्कार कर दिए थे। बीजेपी को अलविदा कहने के साथ ही यशवन्त सिन्हा ने साफ़ कर दिया कि मोदी-शाह-(जेटली)-राजनाथ-(सुषमा)-गडकरी-पीयूष-सीतारामन-प्रभु वग़ैरह की काली छाया में पल रहा भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है! वैसे यह कोई साधारण टिप्पणी नहीं थी। इसे ‘डेथ वारंट’ भी कह सकते हैं। (यह डेथ वारंट दो लोगों पर तक्षण पड़ा – एक अरुण जेटली और दूसरा, सुषमा स्वराज, दोनों “दिवंगत” हो गए ।”

इतना ही नहीं, यशवंत सिन्हा बिहार की राजनीति में फिर से सक्रिय होना चाहते हैं। एक नारा भी दिए हैं “यात्रा” के रूप में, ”बदलो बिहार-बनाओ बेहतर बिहार” – कहते हैं इस यात्रा के पहले चरण में ये सेन्ट्रल बिहार के कई जिलों के अलावा उत्तर बिहार के जिलों का भ्रमण करेंगे, लोगों के साथ सभा वगैरह करेंगे, वर्तमान स्थिति का जायजा लेंगे। इसका मुख्य कारण है “बिहार लोगों की सहिष्णुता” – लोगबाग “चुप” रहते हैं, “बुजुर्ग” हैं, बात सुन लेते हैं तो ये बिहार के लोगों को “ग्रान्टेड ले लिए”, ज्ञान देने लगे। अगर अपने ही कलेजे पर तीस सेकेण्ड हाथ रखकर ख़ुद से ये नेता लोग पूछें की उन्होंने अपने प्रदेश के लिए, लोगों के लिए, मतदाताओं के लिए, महिलाओं के लिए, रोजगार के लिए, शिक्षा के लिए क्या किये जब दिल्ली के “नार्थ ब्लॉक में कुर्सी तोड़ रहे थे ?” जबाब नहीं ढूंढ पाएंगे।

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खैर, बीबीसी के एक रिपोर्ट के हिसाब से बिहार विधानसभा चुनाव का असली रंग चढ़ने लगा है. बिहार की राजनीति में हमेशा से खुलेआम जाति के इर्द-गिर्द सियासी बिसाती बिछाई जाती रही है। बिहार में राजनीतिक दल भले विकास का सपना दिखाएं, लेकिन उनके केंद्र में जाति ही रहती है। नीतीश कुमार ने जब खुद को बिहार में लॉन्च किया तो विकास के साथ जाति आधार बनाने के लिए लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी फॉर्मूले के सहारे आरजेडी प्रमुख लालू यादव के दुर्ग के भेदने में सफल हो सके थे। हालांकि, वक्त के साथ कुशवाहा बिरादरी सिर्फ पिछलग्गू बनकर रह गई है।

बिहार की राजनीति में तीन दशक से भले ही सत्ता की बागडोर पिछड़ों के हाथ में है, लेकिन लंबे समय तक अगड़ों ने ही राज किया है। आजादी से पहले ही बिहार में अगड़ों के खिलाफ त्रिवेणी संघ बना था, जिसे कुशवाहा, कुर्मी और यदुवंशियों ने मिलकर बनाया था। बिहार में कुर्मी और यदुवंशी सत्ता में रहे हैं लेकिन उसे कुर्सी तक पहुंचाने में कुशवाहा का अहम योगदान रहा है। लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक माथे पर राजतिलक कुशवाहा समुदाय के चलते ही लगा है।

1990 में बिहार में त्रिवेणी संघ की सर्वाधिक जनसंख्या वाली बिरादरी यानी यादव को बिहार की सत्ता के नेतृत्व का अवसर मिला. बिहार में पिछड़ा वर्ग की राजनीति के संदर्भ में एक बात जाननी जरूरी है. यादव संख्या बल के मामले में भले ही ज्यादा हों, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के मामले में कुशवाहा समाज और कुर्मी समाज (जिन्हें अवधिया कुर्मी भी कहा जाता है) यादवों की तुलना में शुरू से ही काफी आगे रहा है. यही वजह रही है कि यादवों का नेतृत्व स्वीकार करने में इन दोनों समुदायों को एक स्वाभाविक हिचक होती रही है।

कुर्मी और कुशवाहा के इसी हिचक का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए नीतीश कुमार ने पटना के गांधी मैदान में कुर्मी और कोइरी वोटरों की बड़ी रैली की थी, जिसे उन्होंने लव-कुश का नाम दिया था। यह पहली बार था जब नीतीश कुमार ने लालू यादव के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी। इससे साफ जाहिर है कि नीतीश कुमार ने भी नेता बनने के लिए उसी रास्ते को अपनाया जिसे अब तक बिहार के दूसरे नेता अपनाते रहे।

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बहरहाल, बिहार में कुर्मी समाज की आबादी करीब 4 फीसदी के करीब है. इसमें अवधिया, समसवार, जसवार जैसी कई उपाजतियों में विभाजित है. नीतीश कुमार अवधिया हैं जो संख्या में सबसे कम लेकिन नीतीश काल में सबसे ज्यादा फायदा पाने वाली उपजाति है. बांका, भागलपुर, खगड़िया बेल्ट में जसवार कुर्मी की विधानसभा सीटों पर नतीजे प्रभावित करने की स्थिति में हैं. वहीं समसवार बिहारशरीफ, नालंदा क्षेत्र में मजबूत स्थिति में हैं. कुर्मी जाति के साथ धानुक को भी संगठित किया जा रहा है. धानुक के वंशज कुर्मी जाति के ही माने जाते हैं, लेकिन ये समुदाय अति पिछड़ा वर्ग में शामिल है. लखीसराय, शेखपुरा और बाढ़ जैसे क्षेत्रों में धानुक काफी मजबूत स्थिति में है. वहीं, कुशवाहा बिरादरी का 4.5 फीसदी वोट है.

बहरहाल, एक रिपोर्ट अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव में कई चर्चित चेहरे अपनी किस्मत आजमाएंगे उस में एक बड़ा नाम है श्रेया नारायण का जो देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की परपोती हैं।

हाल ही में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि”डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के नाम ने मेरी कोई मदद नहीं की। आज मैं जो भी हूं, अपने दम पर हूं।” फ़िल्म ‘सुपर नानी’ में श्रेया नारायण रेखा की बहू बनी हैं ( श्रेया नारायण ने इससे पहले ‘साहेब, बीवी और गैंगस्टर’ में महुआ का किरदार निभाया था। इसके अलावा वह कई फिल्मों में छोटे-छोटे रोल कर चुकी हैं। श्रेया अभिनय के साथ-साथ अख़बारों के लिए भी लिखती हैं और यही नहीं उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने भी लिखे हैं। फ़िल्म ‘गुलाब गैंग’ का ‘शर्म लाज।।।’ गाना श्रेया ने लिखा है। श्रेया ने दिल्ली विश्वविद्यालय से केमिस्ट्री में ग्रेजुएशन किया है और कॉलेज से ही उन्हें अभिनय का शौक़ जागा। लेकिन श्रेया के माता-पिता इससे ख़ुश नहीं हुए। श्रेया की मां कैंसर से पीड़ित थीं और उनका साल 2014 जुलाई में निधन हो गया।

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