इतिहास खुद दुहरता है। कोई 108-साल पहले सं 1912 में बांकीपुर कांग्रेस (अविभाजित बिहार का पटना शहर) अधिवेशन में 20-वर्षीय पंडित जवाहरलाल नेहरू राजनीति में अपना "टोपी" उछाले थे और आज़ाद भारत में प्रधान मन्त्री भी बने, उसी बिहार में आज काँग्रेस पार्टी का क्रमशः नामोनिशान मिटते जा रहा था और इसके लिए जितना दोषी दिल्ली का आला-कमान है, उससे कहीं अधिक दोषी प्रदेश में पूर्व के मुख्य मन्त्रियों, नेताओं से लेकर वर्तमान के नेतागण है - जिनका 'राजनीतिक चरित्र' प्रदेश की राजनीति से सैकड़ों गुना "बदत्तर" है।
कहा जाता है कि पंडित नेहरू महज 20 वर्ष की उम्र में बैरिस्टर की उपाधि लेकर 1912 में भारत लौटे थे। वे वकालत नहीं करना चाहते थे। वे वकालत को तवज्जो न देकर देश की आजादी की मुहिम में भाग लेना बेहतर समझा। यहां अंग्रेजी हुकूमत की तानाशाही देखकर नेहरू ने सोंचा कि कचहरी में एक व्यक्ति के मुकदमे की पैरवी करने के बदले संपूर्ण भारत की पैरवी करना कहीं बेहतर है।उन्हें देश की स्वतंत्रता के लिए चल रही क्रान्ति में हिस्सा लेने के लिए एक मंच की आवश्यकता थी। उन दिनों कांग्रेस एक खुले मंच में राजनीति कर रही थी। इसके चलते वे कांग्रेस के सदस्य बन गए और 1912 में प्रतिनिधि के रूप में पटना के बांकीपुर में कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए। नेहरू का राजनीतिक सफर बांकीपुर कांग्रेस से ही हुआ था जो चार बार 1947, 1951, 1957 और 1962 तक देश के प्रधानमंत्री का पद संभाला।
आज़ादी के बाद बिहार में लगभग 32 वर्ष तक, यानि १९७२ तक अर्थात पांचवीं विधान सभा तक जब तक श्रीकृष्ण सिन्ह, दीपनारायण सिंह, विनोदानंद झा, के बी सहाय, भोला पासवान शास्त्री, हरिहर सिंह मुख्य मंत्री रहे, ठीक ठाक था। पार्टी की पकड़ मतदाताओं के साथ-साथ विकास पर भी था। लेकिन पार्टी और नेताओं की पकड़ दारोगा प्रसाद राय, केदार पांडेय और अब्दुल ग़फ़ूर के मुख्य मंत्री बनने के बाद खिसकने लगी थी। प्रदेश में अनेकानेक कारणों से सकता के प्रति आवाज उठने लगी थी। सं 1975 में जगन्नाथ मिश्र के मुख्य मंत्री बनने के साथ ही कांग्रेस समाप्ति के रास्ते पर अग्रसर हो गयी थी।
जगन्नाथ मिश्र प्रदेश में मुख्य मंत्री तीन बार बने और अपने समयकाल में उनसे प्रदेश को और कांग्रेस पार्टी को जितना आघात पहुंचा, शायद किसी भी कांग्रेसी नेता से नहीं हुआ होगा, मजबूती के साथ सत्ता में रही कांग्रेस संपूर्ण क्रांति, क्षेत्रीय दलों का उभार, वामपंथ का प्रभाव और कथित खेमाबंदी के कारण धीरे-धीरे कमजोर होती चली गई । आजादी के बाद बिहार में वर्ष 1952 में 276 सीटों के लिए हुए पहले विधानसभा चुनाव में 239 यानी 86.55 प्रतिशत सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस महज 38 साल बाद 1990 में 324 सीटों के लिए हुए विधानसभा चुनाव में 71 यानी लगभग 22 प्रतिशत सीटों के आंकड़े पर ही सिमट कर रह गई। इतना ही नहीं, आने वाले वर्षों में इसके कमजोर पड़ते जनाधार को पूरे देश ने देखा। 1995 के चुनाव में तो इसकी सीट का गणित 29 सीट यानी लगभग नौ प्रतिशत सीट पर रुक गया। 2010 में 243 सीटों पर हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को महज चार सीटें यानी 1.65 प्रतिशत सीट ही मिल पाई।
दरअसल, कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध में वर्ष 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार की धरती से शुरू हुई "संपूर्ण क्रांति" को दबाने के लिए वर्ष 1977 में लागू राष्ट्रपति शासन में बिहार में सातवीं विधानसभा का चुनाव कराया गया। 318 सीटों पर हुए इस चुनाव में 214 सीटें जीतने वाली जनता पार्टी ने पहली बार कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती दी। जनता पार्टी ने कांग्रेस के विजय रथ को महज 57 सीटों पर ही रोक दिया। इस चुनाव में निर्दलीय को 25 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को 21 सीटें मिली थीं।
ऐसा नहीं है कि इतने खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस हमेशा के लिए धराशायी हो गई। पार्टी में विभाजन के बावजूद कांग्रेस के एक गुट कांग्रेस (आई) के बैनतर तले डॉ. जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में वह वर्ष 1980 के विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत से फिर से उठ खड़ी हुई। 324 सीटों के लिए हुए इस चुनाव में कांग्रेस (आई) को 169 सीटें मिलीं जबकि जनता दल (एस) चरण ग्रुप को 42 और भाकपा को 23 सीटें मिलीं। कांग्रेस का कारवां यहीं नहीं रुका 1985 के चुनाव में उसने और बेहतर प्रदर्शन किया और 196 सीटों पर जीत दर्ज की वहीं लोक दल को 46 और आईएनडी को 29 सीटें मिलीं। लेकिन, इसके बाद के चुनावों में जो हुआ उसने कांग्रेस को पूरी तरह से कमजोर कर दिया और वह फिर उठ नहीं पाई।(वार्ता के सहयोग से)