जेपी का क्या योगदान है बिहार के विकास में ? फिर पटना हवाई अड्डा उनके नाम से क्यों ? ‘विद्यापति’ पर क्यों नहीं ?

पढ़ने- सुनने-देखने में तो यही नाम अच्छा लगता है महाराजा कामेश्वर सिंह दरभंगा हवाई अड्डा 
पढ़ने- सुनने-देखने में तो यही नाम अच्छा लगता है महाराजा कामेश्वर सिंह दरभंगा हवाई अड्डा 

नाम की ही राजनीति करनी है और मिथिलाञ्चल के लोगों को बरगलाना है, वोट के लिए; तो पटना हवाई अड्डा का नाम विद्यापति अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा क्यों न रख दिया जाय? क्यों दरभंगा हवाई अड्डा का नाम विद्यापति के नाम पर हो? यह जमीन भी महाराजा कामेश्वर सिंह की है, हवाई पट्टी भी उन्ही का है, शुरुआत उन्ही के द्वारा है –  फिर विद्यापति कहाँ से आ गए और विद्यापति सिर्फ मिथिलाञ्चल के कब से हो गये ? वैसे भी बिहार के नेतागण लोगों का कम राजनीतिक लुटेरे अधिक हैं। जेपी का क्या योगदान है बिहार के विकास में, फिर पटना हवाई अड्डा उनके नाम से क्यों? विद्यापति, कुंवर सिंह, जगजीवन राम, डॉ राजेंद्र प्रसाद, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, देवकीनंदन खत्री, नागार्जुन, श्रीकृष्ण सिन्हा, रविशंकर प्रसाद या फिर नितीश कुमार के नाम पर क्यों नहीं?

गंगा के उस पार, यानि उत्तर बिहार की आर्थिक-सामजिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक-औद्योगिक दशा और दिशा आज ऐसी नहीं होती अगर “ठेंघुने-कद” के नेता से लेकर “आदम-कद” के नेता तक; जिन पर उत्तर बिहार के लोगों ने “ख़ुद से अधिक विस्वास किया”, वे स्वहित में विश्वासघात नहीं किये होते। दरभंगा में बन रहे हवाई अड्डा का नाम-करण भी उसी राजनीतिक विश्वासघात का एक जीता-जागता उदाहरण है। बिहार के नेताओं ने अपनी राजनीतिक उल्लू सीधा करने हेतु उत्तर बिहार के लोगों साथ प्रारम्भ से ही धोखाधड़ी किये हैं और वहां की भोली-भाली जनता हमेशा से उनकी मीठी-मीठी बातों फंसती आयी है। 

सवाल यह है कि दरभंगा में बन रहे हवाई अड्डे का नाम “विद्यापति” पर क्यों? क्या विद्यापति सिर्फ मिथिला के थे? हम जब भारतीय संस्कृति की बात करते हैं, साहित्य की बात करते हैं (वैसे मौजूदा स्थिति में शायद ही भारतवर्ष में कोई ज्ञानी होंगे, शंकराचार्य सहित, जो विद्यापति के बारे में अनपढ़, अशिक्षित, गवाँर मतदाताओं को ज्ञान देकर उनके मतों को अपनी ओर आकर्षित कर सकने की क्षमता रखते हों)। यह सच है कि विद्यापति भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। परन्तु, इनका समय तो 1352-1448 के आस-पास माना जाता है। 

महाराजा कामेश्वर सिंह का हवाई जहाज 

अगर बिहार सरकार को, नितीश कुमार को, जयन्त सिन्हा को, बिहार विधान सभा के गठन के बाद के नेताओं को को, मुख्य मंत्रियों को हवाई अड्डे के नाम की ही राजनीति कर वोट बटोरना है, तो पटना के जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय (सिर्फ काठमांडू से हवाई जहाज आती-जाती है) हवाई अड्डे का नाम बदलकर विद्यापति हवाई अड्डा रख देनी चाहिए। आखिर “विद्यापति” तो सम्पूर्ण भारत के हैं। 

वैसे भी, जयप्रकाश नारायण का जन्म 1902 में बलिआ में हुआ था और मृत्यु अक्टूबर माह में ही 1979 में। जय प्रकाश नारायण का, अगर देखा जाय, तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी को सत्ता से हटाकर जनता पार्टी के लोगों को सत्तारूढ़ करने के अलावे किसी भी प्रकार का आर्थिक, सामजिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, शैक्षिक, कृषि  क्षेत्रों में कोई योगदान नहीं था। यह बात राजनेताओं के अलावे तथाकथित समाज-सुधारक मानेंगे। 

इसलिए दरभंगा हवाई अड्डा के नामकरण पर पहला और आखिरी हक़ – दरभंगा के महाराज महाराजा कामेश्वर सिंह का है। क्योंकि जमीन भी उन्ही की है, हवाई पट्टी भी उन्ही का है, शुरुआत उन्ही के द्वारा साठ-वर्ष पहले है। वे आज़ादी आंदोलन में 1933-1952  संविधान सभा के सदस्य थे। सं 1952-1962 (मृत्यु तक) तक भारतीय संसद के ऊपरी सदन के सम्मानित सदस्य थे।  

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संविधान सभा, 1946 : महाराजा कामेश्वर सिंह बाएं से तीसरे (बैठे)

परन्तु, बिहार विधान सभा के गठन (1937) और प्रथम चुनाव के बाद से लेकर आज तक, यानि जब 331 सदस्य थे तब भी, और आज जब माननीय सदस्यों संख्या 243 हो गयी है, तब भी – उत्तर बिहार के चयनित नेताओं से लेकर कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली-कूची-कूची मांग-मांगकर जीवन यापन करने वाले नेताओं तक – सबों ने उत्तर बिहार का शोषण ही किया है। और इस शोषण से अपने प्रजा को, भारत के नेताओं को, शैक्षणिक संस्थाओं को अगर किसी ने हाथ थमा, सहायक बना – तो राज दरभंगा का नाम सबसे ऊपर है। क्योंकि राज दरभंगा के अलावे सम्पूर्ण भारत में कोई भी राजा अथवा जमीन्दार ऐसे नहीं थे जो “शरीर” और “आत्मा” दोनों से जीवित हों। 

चलिए​ काँग्रेस के नेताओं की बात छोड़ते हैं। काँग्रेस पार्टी के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को लोक सभा चुनाव में पछाड़कर जनता पार्टी के, या यूँ कहें की गैर-कांग्रेस पार्टी के प्रमुख मोरारजी देसाई, जो 1977 से 1979 तक भारत के प्रधान मंत्री रहे; महाराजा कामेश्वर सिंह के मृत्युपरान्त भी उनके  हवाई जहाज VT-CME C‑47A‑DL 20276 LGB ex 43‑15810 ​(भारतीय वायुसेना के लिए नया नंबर BJ1045​) पर पाल्थी मारकर हवा में उड़े थे, जमीन पर भारत के मतदाताओं से मिले थे। देसाई के अलावे, इस विमान को जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री ने भी किया था – बतौर प्रधान मंत्री का आधिकारिक विमान के रूप में।     

रोहित कुमार झा कहना है कि “नाम कामेश्वर सिंह हि चाहिए था परन्तु राजनीति है। विद्यापति नाम देना नितिश कुमार का एक राजनीतिक स्टंट था और वो इसमे कामयाब भी हूए। संजय झा जैसे राजनेता जो स्वयंभु दरभंगा और मिथिलांचल कि राजनीति के धुरंधर माने जाते है, उन्हे तो ये भी नहीं ज्ञात होगा कि उक्त दरभंगा हवाई अड्डे का निर्माण महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने करवाया। “

भारत के संसद के बाहर डॉ राजेंद्र प्रसाद  गणमान्य व्यक्तियों के साथ महाराजा कामेश्वर सिंह (बाएं से चौथे)

कुमुद सिंह कहती हैं : “नीतीश कुमार न तो प्रस्ताव रखे न संजय झा ने प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव रखा जयंत सिन्हा ने, जिन्हें प्रस्ताव रखने के लिए आग्रह किया जगन्नाथ मिश्र ने। नीतीश के बोलने से पहले ही वो बोलनेवाले हैं यह सबको पता था, यही कुंठित चाल चली गई। जब एक बार मंच से जयंत सिन्हा ने डॉक्टर साहेब के कहने पर विद्यापति का नाम ले लिया तो कौन विरोध करेगा?”
श्रीमती सिंह आगे कहती हैं: “विद्यापति का विरोध तो राज परिवार ने 1954 में उस वक्त भी नहीं किया था जब भारत के पहले जनप्रतिनिधि लक्ष्मीश्वर सिंह की जगह कांग्रेसियों ने विद्यापति पर डाक टिकट जारी करबा लिया लिया। पहली बार थोड़े ही एसा हो रहा है। छज्जूबाग रामेश्वर सिंह ने दिया। एक सडक उनके नाम पर प्रस्तावित हुई। उस सडक काम नाम रामेश्वर रोड के बदले विद्यापति मार्ग हो गया। वो तो शुक्र मनाइये कि ललित बाबू की हत्या हो गयी, वर्ना डॉक्टर साहेब मिथिला यूनिवर्सिटी का नाम पर विद्यापति यूनिविर्सटी ही रख देते। 

नीतेश मिश्र :कहते हैं:  दरभंगा महाराज जब थे, बिहार मे सच मे बहार थी, लेकिन बिहारियों की कुंठा का कोई उपाय नहीं है, इसी कुंठा मे लोग आज भी राजनीति कर रहे। हैं।  राकेश कुमार भी महाराजा के नाम  समर्थन करते हैं। जबकि गोविन्द झा का कहना है की  महाराजा कामेश्वर जी भारत में प्रसिद्ध भी है और भारत के बहुत से कार्य में महत्वपूर्ण योगदान भी दिए। ​

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​बहरहाल, ​ऐतिहासिक  दस्तावेजों को उद्धृत करते दरभंगा के मनोज झा कहते हैं: ऐतिहासिक  दस्तावेजों के आधार पर यह सर्व-विदित है कि तिरहुत का विमानन इतिहास दरअसल बिहार का विमानन इतिहास है। कुछ अर्थों में यह भारत का विमानन इतिहास है। भारत में कार्गो सेवा प्रदान करने की बात हो या फिर देश का पहला ​लग्जरी  विमान का इतिहास हो, यहां तक की आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के सरकारी विमान की बात हो, तिरहुत, दरभंगा और उसके विमान के योगदान का उल्‍लेख के बिना इनका इतिहास लिखना संभव नहीं है। 

माउन्ट बेटेन और महाराजा कामेश्वर सिंह, 1947

तिरहुत के विमानन इतिहास की शुरुआत तिरहुत सरकार महाराजा ​रामेश्वर  सिंह के कालखंड में ही होती है। तिरहुत सरकार का पहला विमान एफ-4440 था। जो 1917 में प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान भारतीय मूल के सैनिकों के लिए खरीदा गया था। यह एक संयोग ही है कि तिरहुत सरकार का पहला विमान जहां भारतीय फौजी के लिए खरीदा गया था, वही दरभंगा एविएशन का आखिरी विमान भी भारतीय वायुसेना को ही उपहार स्‍वरूप दिया गया। 

तिरहुत सरकार के एक इंजनवाले एफ-4440 विमान में दो लोगों के बैठने की सुविधा थी। 1931 में वासराय के दरभंगा आगमन से पहले तिरहुत सरकार द्वारा एक विमान खरीदने की बात कही जाती है। यह जहाज भी बेहद छोटा था। एक इंजनवाले इस जहाज की कोई ​तस्वीर अब तक ​उपलब्ध नहीं हुई है, ​क्योंकि ये समय पर दरभंगा नहीं आ सका। 1932 में गोलमेज सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए जब कामेश्‍वर सिंह लंदन गये तो उस जहाज को भारत लाने की बात हुई, लेकिन नहीं आ पाया। 1934 के भूकंप के बाद इसे अशुभ मान कर लंदन में ही बेच दिया गया। 

तिरहुत में पहला विमान 1933 में उतरा। पूर्णिया के लाल बालू मैदान में माउंट एपरेस्‍ट की चोटी की ऊंचाई नापने और सुगम ​रास्ता  तलाशने के लिए तिरहुत सरकार ने इस मिशन को प्रायोजित किया था। 1940 में तिरहुत सरकार ने अपना दूसरा विमान खरीदा। आठ सीटोंवाले इस विमान का पंजीयन VT-AMB के रूप में किया गया। बाद में यह पंजीयन संख्‍या एक गुजराती कंपनी को और 18 मार्च 2009 में कोलकाता की कंपनी ट्रेनस भारत एविएशन,​ ​कोलकाता-17 को VT-AMB (tecnam P-92J5) आवंटित कर दिया गया है। 

यह विमान 1950 तक तिरहुत सरकार का सरकारी विमान था। इसी दौरान तिरहुत सरकार ने तीन बडे एयरपोर्ट दरभंगा, ​पूर्णिया  और ​कूच बिहार का निर्माण कराया। जबकि मधुबनी समेत कई छोटे रनवे भी विकसित किये। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद 1950 में अमेरिका ने भारी पैमाने पर वायुसेना के विमानों की निलामी की। दरभंगा ने इस निलामी में भाग लिया और चार डीसी-3 डकोटा विमान खरीदा। 

इनमें दो C-47A-DL और दो C-47A-DK मॉडल के विमान थे। आजाद भारत में यह एक साथ खरीदा गया सबसे बडा निजी विमानन बेडा था। ​इन्ही  चार जहाजों को लेकर दरभंगा के पूर्व महाराजा ​कामेश्वर  सिंह ने दरभंगा एविएशन नाम से अपनी 14वीं कंपनी की ​स्थापना  की। इस कंपनी का ​मुख्यालय  काेलकाता रखा गया। इसके निदेेशक बनाये गये द्वारिका नाथ झा। दरभंगा एविएशन मुख्‍य रूप से कोलकाता और ढाका के बीच काग्रो सेवा प्रदान करती थी। भारत सरकार में इन चारों विमानों को क्रमश: VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ VT-CME के नाम से पंजीयन कराया गया था। VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ नंबर का विमान जहां आम लोगों के लिए उपलब्‍ध था, वहीं,VT-CME को ​कामेश्वर  सिंह ने खास अपने लिए विशेष तौर पर तैयार करबाया था। यह भारत का पहला लग्‍जरी विमान था, इसमें कई खूबियां थी। 

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सर्वपल्ली राधाकृष्णन, मदन मोहन मालवीय, महाराजा  कामेश्वर सिंह – बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय समारोह में 

यह विमान कर्नाटक के बलगाम में अभी संरक्षित कर के रखा हुआ है। 1950 में ​स्थापित  दरभंगा एविएशन को पहला धक्‍का 1954 में लगा। 01 मार्च 1954 को कंपनी का विमान VT-DEM ​कलकत्ता  एयरपोर्ट से उडने के ​तत्काल  बाद गिर गया। इस हादसे के बाद कंपनी कमजोर हो गयी। कंपनी को बेहतर करने के लिए यदुदत्‍त कमेटी का गठन किया गया, लेकिन कमेटी का ​प्रस्ताव  देखकर कामेश्‍वर सिंह निराश हो गये। ​कामेश्वर  सिंह ने कंपनी को नये सिरे से शुरु करने का फैसला किया और नये विमान खरीदने का फैसला लिया गया। कंपनी ने 1955 में अपना एक पुराना विमान VT-AXZ कलिंगा एयरलाइंस को लीज पर दे दिया। कलिंगा एयरलाइंस ने उस विमान के परिचालन में घोर लापरवाही की, जिसका नतीजा रहा कि उसी साल 30 ​अगस्त  1955 को वो विमान नेपाल के सिमरा में ​दुर्घटनाग्रस्त  हो गया। 

दरभंगा एविएशन का तीसरा विमान 1962 में दुर्घटना का शिकार हो गया। VT-AYG नंबर का यह विमान बांग्‍लादेश में दुर्घटना का शिकार हो गया। इस विमान के ​दुर्घटनाग्रस्त  होने के बाद दरभंगा एविएशन की काग्रो सेवा नये विमान की आपूर्ति तक बंद कर दी गयी, जो फिर कभी शुरू न हो सकी। कंपनी के पास एक विमान बचा था, जो ​महाराजा कामेश्वर  सिंह का निजी विमान था। VT-CME नंबर का यह विमान ​कामेश्वर  सिंह के निधन तक उनके साथ रहा। इसी विमान ने तिरहुत को पहला पायलट दिया। बेशक इस विमान के पायलट आइएन बुदरी थे, लेकिन 1960 में मधुबनी के लोहा गांव के सुरेंद्र चौधरी इस जहाज के सहायक पायलट के रूप में ​नियुक्त  होनेवाले तिरहुत के पहले पायलट बने। श्री चौधरी 1963 तक इस विमान के सहायक पायलट थे। 01 अक्‍टूबर 1962 को कामेश्‍वर सिंह की मौत के बाद भारत सरकार ने इस विमान का निबंधन रद्द कर लिया। 

महाराजा के सम्मानार्थ – इतना तो आवश्यक है  

चीन युद्ध के बाद दरभंगा की संपत्ति देखनेवाले ​न्यासी  ने दरभंगा, पूर्णिया और कूचबिहार एयरपोर्ट के साथ-साथ इस ​लग्जरी  विमान को भी भारत सरकार को सौंप दिया, और ये तीनों एयरपोर्ट जहां आज भारतीय वायुसेना के एयरबेस बन चुके हैं और वहीं इस विमान VT-CME C‑47A‑DL 20276 LGB ex 43‑15810 को भारतीय वायुसेना के लिए नया नंबर BJ1045 दे दिया गया। यह विमान वर्षों तक भारत के प्रधानमंत्री का आधिकारिक विमान बना रहा। जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर ​शास्त्री यहां तक मोरारजी भाई देसाई तक इस विमान का उपयोग प्रधानमंत्री के रूप में कर चुके हैं। अब जबकि दरभंगा एयरपोर्ट से परिवहन उड़ानों को संचालित किए जाने की बातें हो रही हैं तो इसका नामकरण महाराज कामेश्वर सिंह के नाम से ही होना औचित्यपूर्ण ​है। 

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