तुलसी-पत्ता, गोबर खरीदते हैं  ‘एमेजॉन’ से और कहते भी हैं ‘मिथिलाञ्चल में मानसिक कैनवास से उतर रहा है मिथिला चित्रकला !!!!

मिथिलाञ्चल की संस्कृति और धरोहर - माँछ - कटहल का भार 
मिथिलाञ्चल की संस्कृति और धरोहर - माँछ - कटहल का भार 

जब दालान ही नहीं रहा तो गाय-गोरु कहाँ रहेगा?  गोबर तो गाँव से भी विलुप्त हो रहा है ! जब “भित” ही नहीं बच पाया तो फिर “भित्ति चित्रकला” कहाँ खीचेंगे? घर के आंगनों से “तुलसी-पीरा” गायब हो गया। शहरों में रहने वाले आजकल एमेजॉन से तुलसी-पत्ता, गोबर मंगा रहे​ हैं । पांच-सूत धागा को बांधकर “जेनऊ” पहनने लगे बिना मन्त्र वाला क्योंकि मन्त्र आता ही नहीं। जेनऊ बाएं कंधे से नीचे आता है या दाहिने कंधे से, सोचकर ‘बाप-बाप” कर रहे​ हैं । नवयुवक / नवयुवतियों को कह दें की ‘गोसओनी सिरा’ पर दीया जला दें, ‘गोसओनी’ शब्द को गुगुल पर ढूंढने लगेंगे। विवाह के मंडप पर धोती पहनने की प्रथा समाप्त हो गयी है। किस अवसर पर किस रंग का पाग पहना जाता पता नहीं। और सम्भ्रान्त लोग कहते हैं “मिथिला चित्रकला” का अस्तित्व खतरे में है !! 

इतना ही नहीं, आज की ही पीढ़ी नहीं, पचास-वर्ष की आयु वाले मिथिलाञ्चल की पुरुषों से, महिलाओं से कहें की वे पुरुषों का ‘दशपात अरिपन’ बनायें या महिलाओं के लिए ‘तुसारी पूजा का अरिपन बनायें, या ‘सांझ’ का अरिपन बनायें, या ‘उबटन’ लगाने का अरिपन बनायें, या ‘षष्ठीपूजा’ का अरिपन बनायें, या ‘कोजगरा’ का अरिपन बनायें, या ‘सुखरात्रि’ का अरिपन बनायें, या ‘षष्ठदल’ – ‘अष्ठदल’ अरिपन बनायें, या ‘कोहबर’ का अरिपन बनायें, या ‘बांस-पुरैन’ का बनायें या फिर पुरुषों से कहें की वे “जेनऊ गेठियाएँ”, उनसे कहें की “रुद्राक्ष माला” या अन्य माला गेठियाएँ – मिथिलाञ्चल के लोग चारो-खाने चित मिलेंगे। विस्वास नहीं हो तो आजमा के देखें। क्योंकि मधुबनी रेलवे स्टेशन पर मिथिला चित्रकारी का प्रदर्शन कर न तो चित्रकारी बच सकता है और न चित्रकार। 

आज मिथिला के चित्रकारों का ‘पेट’ शरीर के किस हिस्से में हैं या ‘पीठ’ शरीर के किस भाग में  है – यह समझ पाना बहुत मुश्किल है। 

वजह यह है कि मिथिलाञ्चल के लोगों ने मिथिला चित्रकारी को, मिथिला की मैथिली भाषा को जितना ख़ुद नेश्तोनाबुद किये, दूसरे लोग कोई नहीं। मिथिला चित्रकला वैश्विक स्तर पर लोग बहुत पसंद करते हैं – यह सच है; परन्तु ‘अंतराष्ट्रीय बाज़ार” नहीं है और इसके लिए इस चित्रकारी में लगे कलाकारों की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थिति उतनी मजबूत नहीं है, जिससे वे खुद बाजार ढूंढ सकें। अब अगर कोई “मदद” की बात भी करते हैं तो इसमें “मदद” से अधिक उनका “स्वहित” होता है। आप इन शब्दों की आलोचना करेंगे – परन्तु बिहार में ही नहीं, दिल्ली के अलावे भारत के सभी राज्यों में “मिथिलाञ्चल के एक-न-एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अवश्य पदस्थापित मिलेंगे जो इस कार्य में मददगार हो सकते हैं।  आप आजमा के देख लें – कितना मदद मिलता है आपको ?

 बहरहाल, मिथिलाञ्चल में “अपवाद” को छोड़कर अपनी भाषा, यानि “मैथिली भाषा” में लोगबाग बातचीत नहीं करते, चाहे दरभंगा के बंगाली टोला में रहते हों, मधुबनी के कोईलख में रहते हों, सहरसा के बनगाँव में रहते हों, समस्तीपुर के उजियारपुर में रहते हों, दिल्ली के लक्ष्मीनगर में रहते हों, नोयडा के सेक्टर 62 में रहते हों या अन्ततः दिल्ली के  बिशम्भर दत्त मार्ग के गगनचुम्मी ईमारत में रहते हों –  परन्तु “मिथिला पेंटिंग बोलिये या मधुबनी पेंटिंग” अपने जीवन की अन्तिम साँस ले रहा है, लोगबाग “तथाकथित रूप से” काफी चिन्तित स्वयं को दिखाते हैं। जबकि, वे इस चिंता से मिथिला चित्रकारी में लगे चित्रकारों को जीवन-पर्यन्त एक सुन्दर भविष्य दे सकते हैं – लेकिन देंगे नहीं। “अउ बाबू, ओ आगु केना चल जतई ? ओकर टांग घीचु !!!”

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शायद सुनने, पढ़ने में तकलीफ़ हो, लेकिन औसतन प्रत्येक 10 में से छः अथवा सात व्यक्ति “मिथिला चित्रकारी” और “मधुबनी चित्रकारी” को “दो” समझते हैं। 

इतना ही नहीं, संविधान के 92 वां संसोधन कानून, 2003 के तहत ‘बोडो’, ‘डोगरी’, ‘सन्थाली’ भाषाओँ के अलावे “मैथिली भाषा” को भी अष्ठम सूची में सम्मिलित किया गया। इसका सीधा लाभ मिथिलाञ्चल के युवाओं को, युवतियों को यह हुआ की वे प्रदेश में लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित राजपत्रित पदाधिकारियों की परीक्षाओं में “मैथिली साहित्य” विषय तो ले ही सकते हैं; संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित भारतीय प्रशासनिक, पुलिस सेवा और अन्य परीक्षाओं में भी मैथिली विषय लेकर परीक्षा दे सकते हैं। इसे बेहतरीन उपलब्धि माँ जा सकता है। 

सन 2015 में मैथिली साहित्य विषय लेने वाले 106 अभ्यर्थी थे, जिसमें 13 अभ्यर्थी उत्तीर्णता हासिल किये, यानि सफलता-दर 12.3 फीसदी था। इसके अगले वर्ष 2016 संघ लोक सेवा परीक्षा में कुल 25 छात्र/छात्राओं ने मैथिली साहित्य विषय को चुना, जिसमें एक अभ्यर्थी का नाम अग्रसारित हुआ। सवाल सबसे बड़ा यह है कि “मैथिली भाषा को संविधान के अष्ठम सूची में शामिल होने के बाद क्या सच में वे अपनी मैथिली भाषा को मजबूत कर रहे हैं अथवा उस भाषा का इस्तेमाल अपनी परीक्षाओं में उत्तीर्णता दर्ज करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? 

वर्तमान काल में भी देश के सम्पूर्ण भारतीय प्रशासनिक सेवा / पुलिस सेवा / राजस्व सेवा के कोई 5500 पदाधिकारियों में बिहार से लगभग 450 पदाधिकारी होंगे, जो बिहार के मिथिलाञ्चल सहित प्रदेश के अन्य राज्यों में और देश के विभिन्न भागों में पदस्थापित होंगे ।  स्वाभाविक है, “मिथिलाञ्चल” के “मैथिली भाषा-भाषी” भी होंगे इन 450 अधिकारियों की संख्या में।  इस संख्या में प्रत्येक वर्ष कुछ न कुछ इजाफ़ा ही होता होगा।  आप कभी ध्यान दिए की मिथिलाञ्चल के मैथिली-भाषा-भाषी पदाधिकारी चाहे दिल्ली में पदस्थापित हों या मुंबई में या फिर बंगलोर में – क्या वे अपनी भाषा में बात करते हैं जब सामने वाला भी अपनी ही भाषा-भाषी वाला हो? नहीं। फिर मिथिलाञ्चल के लोग, बुढ़-पुरैनिया (वृद्ध) मिथिलाञ्चल के कलाकार, नव-युवक-नव-युवतियाँ, जो मिथिला चित्रकला की परंपरा को,  धरोहर को आगे ले जाएँ  या उन्हें ले जाना चाहिए – क्यों उम्मीद रखते हैं ? 

ये पदाधिकारीगण वास्तविक रूप से मिथिला चित्रकला के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं, मिथिला चित्रकला के कलाकारों को कला के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर  नया जीवन दे सकते हैं – लेकिन देंगे नहीं। क्योंकि मिथिलाञ्चल के लोगों  ,अधिकारीयों को, यहाँ से जन्मे नेताओं को – फ़ितरत नहीं है। 

एक दृष्टान्त:  बेगूसराय जिला के बीहट गाँव के एक श्री बाल्मीकि प्रसाद सिंह जी हैं। मेरे बहुत घनिष्ठ हैं, सम्मानित हैं। पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त किये, सिंह जी सन 1964 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं। भारत  सरकार में 1997 – 1999 तक गृह सचिव थे। सैकड़ों उच्च पदों पर आसीन रहे।  यहाँ तक की वर्ल्ड बैंक के प्रशासनिक निदेशक भी रहे और विश्व में बेगूसराय का ही नहीं, मिथिलाञ्चल का ही नहीं, बिहार का ही नहीं, भारत राष्ट्र का झण्डा लहराते रहे – परन्तु सामने किसी भी मैथिली भाषा-भाषी को देखकर “अँग्रेजी” में या “हिन्दी” में “नहीं बतियाये हैं – आज भी नहीं बतियाते हैं। मेरा यह तीन-दसक से अधिक का अनुभव है जबकि आधुनिक अधिकारीगण “मैथिली भाषा” छोड़िये, “हिन्दी भाषा” भी छोड़िये – अंग्रेजी में कुस्ती लड़ने लगते हैं। 

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पिछले दिनों फेसबुक पर एक हिंदी टीवी चैनल के पत्रकार “लाईव” हुए थे। विषय बिहार से था। मैं भी उनके साथ जुड़ा। प्रश्नकर्ता से लेकर उत्तरदाता तक – अधिकांश लोग “टिपण्णी पेटी में अंग्रेजी में अपना-अपना विचार लिख रहे थे। मैं सहज रूप से जब पूछा की ‘हम बिहार पर बात कर रहे हैं, आपकी बात बिहार के औसतन आदमी सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं, आप हिन्दी टीवी चैनल के हैं, प्रश्नकर्ता अंग्रेजी में लिख रहे हैं, आप उत्तर अंग्रेजी में दे रहे हैं – क्या हम हिन्दी में बात नहीं कर सकते। उम्मीद है प्रश्नकर्ता भी हिन्दी अवश्य समझते होंगे अगर वे बिहार के हैं और आप तो हिन्दी जानते ही हैं ? मुझे कहा गया: “भाषा को बीच में नहीं लाएं। सबों को स्वतंत्रता है अपनी बात, अपनी सहुलियत की भाषा में बोलेन, लिखने की । मैं बिच्छेदित हो गया। 

कभी सोचे की आज भी पंजाब का ‘गिद्धा’ या ‘भंगड़ा’ नृत्य क्यों जीवित है? पंजाब के समाज में ही नहीं, प्रदेश में ही नहीं, देश में ही नहीं, विश्वभर में क्यों स्वस्थ भी है ? बंगाल का ‘रविन्द्र संगीत’ वैश्विक-स्तर पर क्यों जीवित है ? ओड़िसा का ‘पत्तचित्र’ क्यों जीवित ही नहीं, लोकप्रिय भी है ? 

क्योंकि “पंजाब को, चाहे महिला हों या पुरुष, बंगाल के लोगों को, ओड़िसा के जनमानसों को अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी कला पर ”नाज़” है। वे उसे अपनी आत्मा समझकर, अपने पूर्वजों का, पूर्वज के कलाकारों का धरोहर मानकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को बहुत ही फक्र से हस्तान्तरित करते हैं। उन्हें सिखाते हैं।  नयी पीढ़ियों को सीखने की भूख जागते हैं ताकि उनकी भाषा, उनकी संस्कृति, उनकी कला में कोई “घिसावट” नहीं आये। परन्तु, मिथिलाञ्चल में ऐसी परिस्थियाँ हैं क्या जहाँ तक मिथिला चित्रकला,  मिथिला लोकचित्र कला, मिथिला-गीत, मिथिला रीती-रिवाज़, बोलचाल में मैथिली भाषा का प्रयोग ? शायद नहीं। फिर कहाँ से बचेगी “मिथिला चित्रकला “? विचार जरूर कीजिये। 

शिखा गोयल लिखतीं हैं कि मधुबनी का अर्थ है शहद का जंगल । मधुबनी मिथिला ही है, परन्तु स्थान को उजागर करने हेतु यह चित्रकारी मधुबनी चित्रकारी हो गया। यह कला प्रकृति और पौराणिक कथाओं की तस्वीरों विवाह और जन्म के चक्र जैसे विभिन्न घटनाओं को चित्रित करती है। मूल रूप से इन चित्रों में कमल के फूल, बांस, चिड़िया, सांप आदि कलाकृतियाँ भी पाई जाती हैं और इन छवियों को जन्म के प्रजनन और प्रसार के प्रतिनिधित्व के रूप में दर्शाया गया है। यहाँ की चित्रकारी सामान्यतया भगवान कृष्ण, रामायण के दृश्यों जैसे भगवान की छवियों और धार्मिक विषयों पर आधारित होती हैं। इतिहास के अनुसार, इस कला की उत्पत्ति रामायण युग में हुई थी, जब सीता के विवाह के अवसर पर उनके पिता राजा जनक ने इस अनूठी कला से पूरे राज्य को सजाने के लिए बड़ी संख्या में कलाकारों का आयोजन किया था। 

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इस चित्रकारी को प्राकृतिक रंगों के साथ चित्रित किया जाता है, जिसमें गाय का गोबर और कीचड़ का उपयोग किया जाता है ताकि दीवारों में इन चित्रों को बेहतर बनाया जा सके।  कलाकारों ने अपनी कला में केवल प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जिसमें हल्दी, पराग या चुना और नीले रंग को नील से इस्तेमाल करते थे। कुसुम फूल का रस लाल रंग, चंदन या गुलाब के लिए इस्तेमाल किया जाता था।  इसी तरह कह सकते है कि कलाकारों ने अपने रंग की जरूरतों के लिए विभिन्न प्राकृतिक सामग्रियों का भी इस्तेमाल किया था जो अपने में एक अनूठी कला को दर्शाता है।

कहा जाता है कि  1930 से पहले मधुबनी क्षेत्र के बाहर कोई भी इस दुर्लभ सजावटी पारंपरिक कला को नहीं जानता था। सन 1934 में बिहार को बड़े भूकंप का सामना करना पड़ा था। मधुबनी क्षेत्र के ब्रिटिश अधिकारी विलियम जी आर्चर जो भारतीय कला और संस्कृति के बहुत शौकीन थे, ने निरीक्षण के दौरान मधुबनी की क्षतिग्रस्त दीवारों पर इस अनूठी कला को देखा था।  

यहाँ की चित्रकारी दो तरह की होतीं हैं – भित्ति चित्र और अरिपन। भित्ति चित्र विशेष रूप घरों में तीन स्थानों पर मिटटी से बनी दीवारों पर की जाती है जबकि :देवी –  देवता का घर के अंदर दीवारों पर, काजगों पर, कपड़ों पर।  भित्ति चित्रकला में मिट्टी (चिकनी) व गाय के गोबर के मिश्रण में बबूल की गोंद मिलाकर दीवारों पर लिपाई की जाती है। गाय के गोबर में एक खास तरह का रसायन पदार्थ होने के कारण दीवार पर विशेष चमक आ जाती है। इसे घर की तीन खास जगहों पर ही बनाने की परंपरा है, जैसे- पूजास्थान, कोहबर कक्ष (विवाहितों के कमरे में) और शादी या किसी खास उत्सव पर घर की बाहरी दीवारों पर। इस चित्रकला में जिन देवी-देवताओं का चित्रण किया जाता है, वे हैं- मां दुर्गा, काली, सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गौरी-गणेश और विष्णु के दस अवतार इत्यादि। 

अरिपन की परंपरा बहुत प्राचीन है जिसे  चित्रित करने के लिए फर्श पर लाइन खींच कर बनाई जाती है।  मिथिला में  कोई पर्व, समारोह, त्यौहार, विवाह, पूजा, जन्म, मरण, संस्कार ऐसा नहीं है, जब उस अवसर के निमित्त अरिपन नहीं हो।  इन चित्रकारी में चटख रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। जैसे गहरा लाल रंग, हरा, नीला और काला। कुछ हल्के रंगों से भी चित्र में निखार लाया जाता है, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। यह जानकर हैरानी होगी की इन रंगों को घरेलू चीजों से ही बनाया जाता है, जैसे- हल्दी, केले के पत्ते, लाल रंग के लिऐ पीपल की छाल प्रयोग किया जाता है और दूध। मिथिला चित्रकारीजिसे मूल रूप से कमरों की बाहरी और आंतरिक दीवारों पर और मारबा पर, शादी में, उपनायन और त्यौहार आदि कुछ शुभ अवसरों पर बनाया जाता है, जिसमें सूर्य और चंद्रमा का विशेष रूप से महत्व दिया जाता है, सम्पूर्ण वातावरण को प्रसन्नचित बना देता है जो समृद्धि को आकर्षित करता है। यह अलग बात है कि आज कुल आवादी का एक विशेष फ़ीसदी इस अरिपन प्रथा/बनाबट से वाकिफ नहीं है। उनमें  सीखने की ईक्षा की भी किल्लत है।  

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