भारतीय राजनीतिक बाज़ार में कहीं ‘सफ़ेद’ तो कहीं ‘हरी’, कहीं ‘काली’ तो कहीं ‘लाल’ टोपियाँ – लेकिन लोग अपना नहीं सके सुभाष बोस और भगत सिंह की  टोपियाँ 

भगत सिंह और उनकी टोपी 
भगत सिंह और उनकी टोपी 

भारतीय क्रांति के इतिहास में जिन दो महान नायकों – नेताजी सुभाष चन्द्र बोस या शहीद भगत सिंह – की भूमिका रही है, ‘उनकी टोपी’ को न तो आज के कोर्पोरेट की बनाने या बनवाने की ‘औकात’ है और न ही, क्रांतिकारियों को अपने ‘सिर पर रखने की बौद्धिक क्षमता’ –  यह अलग बात है कि अगर “नेहरु टोपी” का ‘पेटेंट’ हुआ होता तो शायद स्वतंत्र भारत में कई लाख करोड़ लोग भारतीय जेलों में सड़ रहे होते या फिर नेहरु परिवार टोपी के रायल्टी से अपार धन-राशि कमा लिए होते। 

सन 1974 के जयप्रकाश नारायण के “सम्पूर्ण क्रांति” से लेकर “मन्दिर वहीँ बनायेंगे” के रास्ते, अन्ना हजारे के “भ्रष्टाचार उन्मूलन” आन्दोलन का दर्शन करते यदि अरविन्द केजरीवाल के आम आदमी पार्टी तक यात्रा किया जाये तो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में कांग्रेस सबों पर “हावी” दीखता है और “नेहरु की टोपी” तो नेहरु के निधन के कई दसक  बाद भी सभी क्रांतिकारियों के “सर पर सवार” दिखता है जैसे “इस टोपी के बिना तो कोई क्रांति हो ही नहीं सकती – हाँ, टोपी का रंग पार्टी अध्यक्ष के अपने-अपने पसन्द के त्वचा के रंगों के अनुसार।”

पंडित जवाहरलाल नेहरू  और उनकी टोपी और  राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी 

मार्क्सिस्ट सिद्धांत की छाप लिए जब जय प्रकाश नारायण सन 1929 में अमेरिका से भारत वापस आये उस समय तक उनके माथे पर “नेहरु की टोपी” नहीं “सवार” हुयी थी। लेकिन उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें आमंत्रित किया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस मे शामिल होने के लिए। महात्मा गाँधी के सानिध्य में होने के कारण जयप्रकाश नारायण नेहरु की बात को “टाल” नहीं सके और जूझ पड़े स्वतंत्रता आन्दोलन में। इस आन्दोलन के दौरान अनेकों बार जयप्रकाश नारायण जेल गए, यातनाएं सहन किये लेकिन भारत छोडो आन्दोलन के दौरान जे पी “उभरकर” सामने आये एक “सामर्थ्यवान नेता के रूप में। ” अब तक मार्क्सिस्ट सिद्धांत की छाप जे पी के ललाट से “धूमिल” होती जा रही थी। 

लेकिन सन 1932 में जब वे नासिक जेल में बंद थे उनकी मुलाकात तत्कालीन समाजवादी नेताओं – राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, युसूफ देसाई जैसे लोगों से हुयी जो कांग्रेस में रहकर भी समाजवादी विचारधारा” से प्रभावित थे और इस समाजवादी  विचारधारा में वाम-पंथी विचारधारा भी कुलबुला रही थी। यहाँ जन्म हुआ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का और नेतृत्व किया आचार्य नरेन्द्र देव ने। भले ही इन  समाजवादी नेताओं की मनोदशा एक सामाजिक परिवर्तन लेन की रही हो, समाज में राम-राज्य की स्थापना भी रही हो, लेकिन भले ही ये सभी नेहरु की “राजनीति विचारों से प्रभावित” नहीं रहे हों, लेकिन “नेहरु की टोपी” उनका सरताज बन चुका था। 

ये भी पढ़े   नितीश कुमार में एक करोड़ "अवगुण" है, 'एटीच्यूड' कपार पर बैठा है - लेकिन मुस्कुराते तो हैं, गलियाते तो नहीं

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जिस तरह “समाजवाद” और “समाजवादी” भारत की सड़कों पर भारत के लोगों की संवेदना, विश्वास और धर्म-परायणता की आड़ में तांडव किये वह भी किसी से छिपा नहीं है, भले की आधुनिक भारत के इतिहासकार अपने-अपने “शब्दों को राजनैतिक बिस्तर पर सजाकर” लिखा हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में कांग्रेस और नेहरु के “अधिपत्य” को देखते, इन “समाजवादियों” ने आमने – सामने की लड़ाई न लड़कर दिल्ली को “त्यागे” और अपनी-अपनी राजनीती का अखाडा “राज्यों को बनाया” – जे पी भी उन्ही में से एक थे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था के लगभग “सभी सूत्रधार” या “नेपथ्य से सूत्रधारों का नथिया पकड़कर रखने वाले” जे पी के ही “शिष्य” हैं। 

जयप्रकाश नारायण और उनकी  टोपी

सन 1960 से 1974 तक जे पी राज्यों की राजनीति से रायसीना हिल को “हिलाना चाहा” और सफल भी रहे। सन 1974 में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी और उनके कांग्रेस के खिलाफ उन्होंने जो “युवा-शक्ति” को इस्तेमाल कर आन्दोलन का शुत्रपात किया उससे भले ही केंद्र में “जनता पार्टी” की सरकार बन गयी हो, लेकिन, इतिहासकार इस बात को स्वीकार करेंगे (न भी करेंगे तो भारत का तत्कालीन युवा वर्ग जो इससे पीड़ित हुआ, वह कभी उन्हें माफ़ नहीं करेगा) की सम्पूर्ण क्रांति से भले ही देश में “राजनैतिक भूचाल” लाकर “सत्ता और सिंधासन” दोनों पर जे पी और उनके सहकर्मी राजनेता कब्ज़ा कर लिए हों, लेकिन “सत्ता करने की सीख और ज्ञान” नहीं होने के कारण “गीली मिटटी” की तरह ढहता रहा उनका “सिंहासन” – आश्चर्य तो ये है कि जे पी “नेहरु टोपी” को नहीं उतार पाए। 

“मंदिर वहीँ बनायेंगे” – नारे के साथ जब भारत के लोगों के आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों के साथ “खिलवाड़” किया गया, वहां भी “नेहरु की टोपी”, कार्यकर्ताओं के “सिर पर विराजमान” थी। यहाँ सफेदी “भगुआ” रंग में दिखी. यह अलग बात है कि लोगों के “आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों” को सड़कों पर “लहू-लहान” होते भारत के लोगों ने देखा, चास्म्दिद गवाह भी बने, दीवारें ढहीं, लेकिन दसकों बाद भी मंदिर “महज एक कल्पना” बनकर ही रह गयीं। 

ये भी पढ़े   दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु ही नहीं, बल्कि मृत्योपरान्त दरभंगा राज का नेश्तोनाबूद होना एक शोध का विषय है
 मोहन भगवत और उनकी टोपी 

उन्ही समाजवादियों और लोहिया के शिष्यों में एक निकले मुलायम सिंह यादव और उनका समाजवादी पार्टी।कहने के लिए तो देश-प्रदेश में “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्द अधिकार है और एक नयी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के प्रचार-प्रसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते (यह अलग बात है कि समाजवादी पार्टी में कार्यकर्ताओं की भीड़ में ऐसी विचारधारा के विचारवान लोग नहीं के बराबर दिखते हैं), लेकिन यहाँ भी “नेहरु और उनकी टोपी” ने उनका पीछा  नहीं छोड़ा।  भले ही “सफ़ेद” रंग “लाल” में बदल गया हो, लेकिन “नेहरु की टोपी” सभी समाजवादियों के “सर का ताज” बना है। और अगर राजनैतिक समीक्षकों की बात मानी जाये तो यह “अनंत-काल” तक (जब तक समाजवादी पार्टी का नाम रहेगा) उनके लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं के “सर पर विराजमान” रहेगा। वाह रे नेहरु और उनकी टोपी। 

पिछले दिनों, एक और “नेहरु टोपी” पहने “बुढा बरगद” आन्दोलन की ओर निकल पड़ा।  अच्छी-भली “व्यक्तिगत छवि” का यह “महा-मानव” भी “कलयुग के दैत्यों” का शिकार हुआ  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शायद लोगों का इतना समूह साथ नहीं दिया होगा (मैंने देखा नहीं, सुना है, इसलिए लिख रहा हूँ) जितना इस महा-मानव के पीछे निकला। नाम है –  एना हज़ारे। विगत कई वर्षों से दिख नहीं रहे हैं। 

महान समाजवादी  मुलायम सिंह यादव  और उनकी टोपी   

मुबई के आज़ाद मैदान से दिल्ली के रामलीला मैदान तक “करोड़ों नेहरु टोपी” बगुलों की तरह भारत की सड़कों, गलियों, चौराहों पर विचरन देखता रहा।  ऐसा लग रहा था कि सम्पूर्ण देश नेहरुमय हो “सफेदी की चमक” में डूब गया है। यह अलग बात है कि “देश में सफेदी की चमक तो नहीं आ सकी, परन्तु जितने क्रांतिकारी, जो इस महा-मानव के साथ थे, “सफ़ेद-पोश” जरुर हो गए। 

कमाल की थी “नेहरु की सोच” – जिस व्यक्ति ने भी “नेहरु टोपी” के आकार – प्रकार के बारे में सोचा होगा, या पंडित जवाहरलाल नेहरु जब सर्वप्रथम इस आकार-प्रकार की  “टोपी” को “अपने सर पर स्थान दिया होगा”, वह क्षण “शायद ईश्वर ने विशेष तौर पर निर्धारित किया होगा ताकि आजीवन आन्दोलनकारी ऐसी ही टोपी को पहनकर (गिरगिट की तरह रंग बदलकर) देश के आवाम को “टोपी पहनाते रहे” और भारत भूमि पर “समाजवादी की स्थापना” करने का “दिवा स्वप्न” दिखाकर लोगों को “बरगलाते रहें। 

ये भी पढ़े   बिहार में 'अविवाहित' महिला 'विवाहित महिलाओं' के 'आँचल' और 'खोइँछा' को राजनीतिक बाज़ार में बेच रही है

उसी महा-मानव की एक “प्रजाति” अभी अभी “अलग हुई है”, लेकिन “नेहरु की टोपी” यहाँ भी मौजूद है, “सर के ताज के रूप में। ” देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने चलने वाले अरविन्द केजरीवाल ने एक राजनैतिक पार्टी बना ली।  भारत में राजनैतिक पार्टी तो ऐसे बनती है, टूटती है, घुलती है, मिश्रण होती है जैसे कोई “सुबह सवेरे चाय की दुकान खोलता है और शाम में नारकोटिक्स के व्यापार में लक्ष्मी के आगमन की सम्भावना देख, दुकान बंद कर, उस ओर उन्मुख हो जाता है. केजरीवाल “नेहरु टोपी” को अपने “मस्तक का ताज बनाये” भारत की आवाम को “विश्वास” दिलाना चाहते हैं की उनका “आम आदमी का पार्टी” भारत के आवाम को भारतीय राजनीति में “खास जगह दिलवाएंगे” और आज भारत का आवाम के सामने वे खड़े उतरे। वैसे ये भी दूध के धोये नहीं हैं, लेकिन लोगों का विस्वास है उनपर। 

राजनैतिक विशेषज्ञों का कहना है की भारत में राजनैतिक क्रान्तिकारी कार्पोरेट घरानों की उपज है।जिन्हें “ज्यादा खाद” मिलता है वे ज्यादा “फलीभूत” होते हैं। जे पी आन्दोलन से केजरीवाल के आन्दोलन तक, कोई भी क्रांतिकारी या नेता इस बात से इंकार नहीं कर सकते की वे इन घरानों से समर्थित नहीं है।  दुर्भाग्य यह है की भारतीय राजनैतिक विचारधारा को बदलने में जिन दो महान नायकों की भूमिका रही है, “उनकी टोपी” को न तो आज के कोर्पोरेट को बनाने/बनवाने की “आर्थिक औकात” है और न ही आज के क्रांतिकारियों को अपने “सर पर रखने का बौद्धिक क्षमता। ” दुर्भाग्य यह है की स्वतंत्र भारत में किसी भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक संघर्षों में कहीं भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस या शहीद भगत सिंह के आकर-प्रकार की “टोपी” दिखती है, पहनने की बात तो “एक स्वप्न” है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here