मेरठ गदर के दौरान एओ ह्यूम को पहननी पड़ी थी साड़ी

एओ ह्यूम, इटावा और साड़ी 
एओ ह्यूम, इटावा और साड़ी 

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रान्तिकारियों, शहीदों और उनके वंशजों की खोज और उन्हें एक नया जीवन देने से सम्बंधित अपने प्रयास के दौरान पुरे देश में गजब-गजब की कहानी सुने। कुछ अपने देशवासियों के बारे में, कुछ अंग्रेजी अधिकारियों, उनकी पत्नियों और परिवारों के बारे में। चुकि हमारी सभ्यता और हमारी संस्कृति के साथ-साथ हमारा अपना निजी संस्कार, जो माता-पिता के माध्यम से हम तक पहुंचा है, हमें कतई यह इजाज़त नहीं देता की हम अपने क्या, उन अंग्रेजीं की पत्नियों, परिवारों के बारे में कुछ भी नकारात्मक लिखें। आखिर वे भी महिला थीं और महिलाओं का सम्मान करना हमारा संस्कार है।

वैसे आजकल भारत में तो संसद से लेकर विधान सभाओं के रास्ते पंचायत तक महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात तो “लॉली पॉप” जैसा दिखाते आ रहे हैं “पुरुष” वर्ग। बेचारी चीखें-चिल्लाएं भी तो कहाँ। अगर सड़क पर ा गयीं तो आजकल पुलिस में महिलाओं की संख्या भी बहुत कम होती जा रही है और शाशन-व्यवस्था को तो कोई परवाह है की उचित संख्या में महिलाओं की भी नियुक्तियां मिले। वैसी स्थिति में “मैन इन यूनिफॉर्म” का तो बल्ले-बल्ले हो जाता है। यह तो आप सभी मानवाधिकारी अपने अपने टीवी सेट पर देखते ही होंगे। वह तो कोरोना बाबू को धन्यवाद दीजिये की देश की सड़कें अभी 90 फीसदी अधिक “भर-मुक्त” है।

बहरहाल, एक कहानी पढ़िए-सुनिए। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मेरठ से उठी चिंगारी ने देश भर में ऐसा भयावह रूप धारण कर लिया था कि उत्तर प्रदेश के इटावा में अंग्रेज अधिकारी और कांग्रेस संस्थापक एलन आक्टेवियन यानी ए.ओ.ह्यूम को क्रांतिकारियों के कोपभाजन का शिकार बनने से बचने के लिये साड़ी पहन कर भागना पड़ा था।

इटावा से वार्ता सम्वाद एजेंसी के श्री प्रदीप जी लिखते हैं: इटावा के हजार साल इतिहास के झरोखे में इटावा नामक ऐतिहासिक पुस्तकों में दर्ज ह्यूम की बारे में इन अहम तथ्यों का उल्लेख करते हुए केकेपीजी कालेज के इतिहास विभाग के प्रमुख डा.शैलेंद्र शर्मा ने कहा। उनके अनुसार एओ ह्यूम को वैसे तो आम तौर सिर्फ काग्रेंस के संस्थापक के तौर पर जाना और पहचाना जाता है लेकिन ह्यूम की कई पहचानें रही हैं। ह्यूम को उत्तर प्रदेश के इटावा मे जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये साड़ी पहन कर ग्रामीण महिला का वेश धारण कर भागना पड़ा था। ए.ओ़ हृयूम तब इटावा के कलेक्टर हुआ करते थे ।

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शर्माजी के अनुसार आजादी के मतवालों ने ह्यूम और उनके परिवार को मार डालने की योजना बनाई जिसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढपुरा पहुंच गये और सात दिनों तक बढपुरा में छिपे रहे। उन्होने कहा हृयूम ना बचते अगर उनके हिंदुस्तानी साथियो ने उनको चमरौधा जूता ना पहनाया होता,सिर पर पगड़ी ना बांधी होती और महिला वेश धारण कर सुरक्षित स्थान पर ना पहुंचाया होता। हृयूम ने इटावा से भाग कर आगरा के लालकिले मे शरण लेनी पडी। अंग्रेज अधिकारी के भारतीय वफादार सहयोगियो ने मदद कर उनकी जान बचाई। वर्ष 1912 मे इटावा के मूल निवासी डा.श्रीराम महरौत्रा लिखित पुस्तक लक्षणा का हवाला देते हुए चंबल अकाईब के मुख्य संरक्षक किशन महरौत्रा बताते है कि 1857 की क्रांति में लगभग पूरे उत्तर भारत में अंग्रेज अफसर जान बचाते फिर रहे थे। इनमें से कई लखनऊ की रेजीडेंसी या आगरा किले मे छुप गये थे। अपने परिवार के साथ लंबे समय तक आगरा मे रहने के बाद 1858 के शुरूआत मे हृयूम ने भारतीय सहयोगियों की मदद से इटावा वापस आकर फिर से अपना काम काज शुरू किया ।

दरअसल,चर्बी लगे कारतूसों क कारण 6 मई 1857 में मेरठ से सैनिक विद्रोह भड़क गया था। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली से लगे हुये अन्य क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्यधिक संवेदनशील घोषित कर दिये थे। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भारतीयों की संख्या भी बडी मात्रा में थी। हृयूम ने इटावा की सुरक्षा व्यवस्था को ध्यान में रख कर शहर की सड़कों पर गश्त तेज कर दी थी। 16 मई 1857 की आधी रात को सात हथियारबंद सिपाहियों को शहर कोतवाल ने पकडा। ये मेरठ के पठान विद्रोही थे और अपने गांव फतेहपुर लौट रहे थे।

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इस बारे में कलक्टर हयूम को सूचना दी गई। इस बीच विद्रोहियों ने कमांडिंग अफसर कार्नफील्ड पर गोली चला दी लेकिन वह बच गया। इस पर क्रोधित होकर उसने चार विद्रोहियों को गोली से उड़ा दिया लेकिन तीन विद्रोही भाग निकले। इटावा में 1857 के विद्रोह की स्थिति भिन्न थी। इटावा के राजपूत विद्रोहियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहे थे। 19 मई 1857 को इटावा आगरा रोड पर जसवंतनगर के बलैया मंदिर के निकट बाहर से आ रहे कुछ सशस्त्र विद्रोहियों और गश्ती पुलिस के मध्य मुठभेड हुई। विद्राहियों ने मंदिर के अंदर घुस कर मोर्चा लगाया। कलेक्टर हयूम और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डेनियल ने मंदिर का घेरा डाल दिया । गोलीबारी में डेनियल मारा गया और हयूम वापस इटावा लौट आये जबकि पुलिस घेरा डाले रही लेकिन रात को आई भीषण आंधी का लाभ उठा कर विद्रोही भाग गये। ए.ओ.हयूम की देशी पलटन को बढपुरा की ओर रवाना करने के निर्देश दिया गया इस पलटन के साथ इटावा में रह रहे अग्रेंज परिवार भी थे,इटावा के यमुना तट पर पहुंचते ही सिपाहियों को छोडकर बाकी सभी इटावा वापस लौट आये ।

इसी बीच हयूम ने एक दूरदर्शी कार्य किया कि उन्होंने इटावा में स्थित खजाने का एक बडा हिस्सा आगरा भेज दिया था तथा शेष इटावा के ही अग्रेंजो के वफादार अयोध्या प्रसाद की कोठी में छुपा दिया था। इटावा के विद्रोहियों ने पूरे शहर पर अपना अधिकार कर लिया और खजाने में शेष बचा चार लाख रूपया लूट लिया। इसके बाद अंग्रेजों को विद्रोहियों ने इटावा छोडने का फरमान दे दिया।

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इटावा में अपने कलक्टर कार्यकाल के दौरान हयूम ने अपने नाम के अग्रेंजी शब्द के एच.यू.एम.ई. के रूप में चार इमारतों का निर्माण कराया जो आज भी हयूम की दूरदर्शिता की याद दिलाते है। चम्बल फाउंडेशन ने अध्यक्ष शाह आलम कहना है कि इटावा मे चार फरवरी 1856 को इटावा के कलेक्टर के रूप मे हृयूम की तैनाती अंग्रेज सरकार की ओर से की गई । इटावा मे वह 1867 तक तैनात रहे। यहां आते ही अंग्रेज अधिकारी ने अपनी कार्यक्षमता का परिचय देना शुरू कर दिया ।

16 जून 1856 को हृयूम ने इटावा में जनस्वास्थ्य सुविधाओ को मद्देनजर मुख्यालय पर एक सरकारी अस्पताल का निर्माण कराया तथा स्थानीय लोगो की मदद से हृयूम ने खुद के अंश से 32 स्कूलो को निर्माण कराया जिसमे 5683 बालक बालिका अध्ययनरत रहे । हृ्यूम ने इटावा को एक बडा व्यापारिक केंद्र बनाने का निर्णय लेते हुये अपने ही नाम के उपनाम से हयूमगंज की स्थापना करके हॉट बाजार खुलवाया जो आज बदलते समय मे होमगंज के रूप मे बडा व्यापारिक केंद्र बन गया है। स्थानीय रक्षक सेना के गठन की भी बडी दिलचस्प कहानी है। 1856 में ए.ओ.हयूम इटावा के कलेक्टर बन कर आये। कुछ समय तक यहां पर शांति रही। डलहौजी की व्ययगत संधि के कारण देशी राज्यों में अपने अधिकार हनन को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के विरद्ध आक्रोश व्याप्त हो चुका था।

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