
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
रामचरित मानस की यह चौपाई भारत के लगभग सभी लोगों को अर्थ-सहित कण्ठस्त होगा। वैसे यह चौपाई सबसे पहले स्वयं इसके रचयिता पर लागू हुआ और आज हज़ारों वर्ष बाद “देश के मालिक” द्वारा अचानक “देश को बन्द कर देने के बाद” 130 करोड़ लोगों को, एहसास हो गया की उनसे क्या गलती हुई, वह भी दोबारा।
रामचरित मानस की यह चौपाई खुद तुलसीदास जी पर भी लागू होती है जिन्होंने इसकी रचना की है। अगर राम की इच्छा नहीं होती तो प्राणों से भी अधिक प्रिय पत्नी उनका तिरस्कार नहीं करती और रामबोला से तुलसीदास नहीं बनते, यानि आज के परिपेक्ष में भारत के लोगों को गौतम बुद्ध के तरह “दिव्यज्ञान” नहीं होता । यह बात स्वयं तुलसीदास जी भी स्वीकर करते हैं इसलिए पत्नी को क्षमा करके बाद में उन्हें अपना शिष्य बना लेते हैं; यानि इस बात से इंकार नहीं कर सकते की “मालिक अब मालिक नहीं रह पायेगा”, यह देश की नई सोच है – यानि “सोच अब बदलो – देश बदलेगा।”
एक बार इनकी पत्नी मायके आईं तो कुछ समय बाद ही यह बेचैन हो उठे और पत्नी से मिलने चल पड़े। रास्ते में तेज बरसात होने लगी फिर भी इनके कदम नहीं रुके और लगातार चलते हुए नदी तट पर पहुंच गए। सामने उफनती हुई नदी थी लेकिन मिलन की ऐसी दीवानगी छाई हुई थी कि नदी में बहकर आती लाश को पकड़कर नदी पार कर गए। देर रात जब पत्नी के घर पहुंचे तो सभी लोग सो चुके थे। घर का दरवाजा भी बंद हो चुका था।
तुलसी जी को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे पत्नी के कक्ष तक पहुंचा जाए। तभी सामने खिड़की से लटकती रस्सी जानकर सांप का पूंछ पकड़ लिया और इसी के सहारे पत्नी के कक्ष तक पहुंच गए। पत्नी ने जब रामबोला को विक्षिप्त हालात में अपने पास आया देखा तो अनादर करते हुए कहा कि ‘अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।’ यानी इस हार मांस के देह से इतना प्रेम, अगर इतना प्रेम राम से होता तो जीवन सुधर जाता।’ पत्नी का इतना कहना था कि रामबोला का अंतर्मन जग उठा और वह एक पल भी वहां रुके बिना राम की तलाश में चल दिए और राम से ऐसी प्रीत लगी कि जहां भी रामकथा होती है वहां राम के साथ तुलसीदास जी का भी नाम लिया जाता है, यानि “लॉक डाउन से भारत के लोगों को जो ज्ञान मिला है, यह तो आने वाले समय में देश ही नहीं, विश्व भी देखेगा।
लीजिये न। कल ही की तो बात है। दो जून तो कल ही था न। माननीय श्री अनिल पाण्डेय जी भी तो “दो जून की रोटी – इधर कई दिनों से” नामक कविता में देश के श्रमिकों की सम्पूर्ण स्थिति को शब्दों में बांड दिए हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि देश ही नहीं, हिन्दी-भाषा-भाषी क्षेत्रों में भी श्री अनिल पाण्डेय जी की “दो जून की रोटी – इधर कई दिनों से” नहीं जानता है। पढ़ा भी नहीं होगा। लेकिन भारत के माननीय प्रधान मन्त्री द्वारा झटके में देश के करोड़ों श्रमिकों, रोजी-रोटी की कमाई के लिए, बाल -बच्चों की परवरिश के लिए, वृद्ध माता-पिता को आर्थिक संरक्षण देने के लिए अपने-अपने घरों से हज़ारों मील दूर प्रवासित होने के बाद जो “आत्मज्ञान” प्राप्त किये हैं; उसके बाद पांच-पुश्तों अधिक को श्री पाण्डेयजी की “दो जून की रोटी – इधर कई दिनों से” याद रहेगा।

बहरहाल, बहराइच जिले का राजकमल स्वर्ण मंदिर के शहर अमृतसर में “लड्डू करारे” बेचता था और मजे से परदेस में खा कमा रहा था । लेकिन लॉकडाउन के दौरान उसने ऐसी विपदा झेली कि अब उसने कभी परदेस नहीं जाने का सबक गांठ बांध लिया है।
लाकडाउन के बाद अब राजकमल अपने गांव लौट आया है और अब यहीं कोई काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पालने का फैसला कर चुका है।
बहराइच जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर विशेश्वरगंज ब्लॉक अंतर्गत कुरसहा ग्राम पंचायत के इमरती गांव के 25 वर्षीय राजकमल पांडे की कहानी लाखों प्रवासियों की कहानी जितनी ही पीड़ादायक है। आठवीं कक्षा तक पढ़े राजकमल की छः साल पहले शादी हुयी थी। शादी के बाद पत्नी को गांव पर ही रखा और खुद कमाने पंजाब चला गया। बीच में 4-5 महीने पर एक आध हफ्ते के लिए घर आ जाता था।
बहराइच के अपने पांच भाइयों सहित गांव व आसपास के इलाकों के 15-20 लोगों की टीम के साथ मिलकर राजकमल पांडे अमृतसर के सुंदरनगर के निकट जोड़ा फाटक इलाके में मशहूर लड्डू “लड्डू करारे” बनवाकर बेचने का काम करता था। सभी साथी मेहनत के अनुरूप महीने में 12-15 हजार कमा ही लेते थे।
राजकमल के अनुसार : ‘‘ अकेले बहराइच व गोंडा के करीब एक हजार लोग अमृतसर व आसपास के इलाकों में चने की दाल से बने खट्टे “लड्डू करारे” बेचने का व्यापार करते हैं। उप्र के हमारे इलाके के लोग इसे बनाने में माहिर हैं। जिले के पयागपुर का रहने वाला अदालत तिवारी लड्डू बनाकर देता था जिसे हम सब मिलकर बेचते थे।’’
राजकमल खाली आंखों से आसमान की ओर देखते हुए कहता है, ‘‘ मार्च में होली पर घर आए थे। कई महीने की बचत यहां घर पर देकर 16 मार्च को वापस अमृतसर पहुंचे। 17-18 साथियों ने 18 मार्च को दोबारा काम शुरू किया। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू, और फिर लॉकडाउन हो गया। हाथ में कोई बचत नहीं थी। सोशल डिस्टेंसिंग की बात करना बेमानी था, क्योंकि एक ही कमरे में 16-17 लोग रहते थे। सबके पैसे खत्म होने लगे। जल्दी ही खाने पीने व रोजमर्रा जरूरत की वस्तुओं की किल्लत होने लगी।”
राजकमल ने बताया,‘‘ कुछ दिन किसी तरह काम चला… साथी एक एक कर घर वापसी करने लगे । फिर गांव के हम दो लोग आठ अप्रैल को एक साइकिल से अमृतसर से बहराइच के लिए निकल पड़े। रास्ते में भूखे प्यासे, पुलिस नाकों पर पंजाब पुलिस से रोते गिड़गिड़ाते या चकमा देते 250 किलोमीटर दूर हरियाणा के अंबाला शहर तक जा पहुंचे। लेकिन वहां पुलिस ने आगे नहीं जाने दिया।
‘‘थक हारकर साइकिल 250 किलोमीटर दूर अमृतसर के लिए वापस मोड़नी पड़ी। पुलिस से बचते बचाते अमृतसर के उसी कमरे में वापस पहुंच गये।’’ वह बताते है कि कुछ दिन बाद ना तो पैसे बचे थे ना ही राशन। कभी कोई राशन दे जाता, कभी गुरूद्वारे या समाजसेवियों के लंगर की शरण लेनी पड़ती थी।
जैसे तैसे एक महीना बीता, मन विचलित हो रहा था। इस बीच अमृतसर में थाने पर जाकर कई बार अपनी जानकारी लिखवाई। बहराइच में स्थानीय विधायक सुभाष त्रिपाठी को फोन पर व्यथा बताई तो उन्होंने भी आनलाइन पोर्टल पर पंजीकरण करवा कर मदद की कोशिश की।
राजकमल शून्य में ताकते हुए बताता है, ‘‘इस बीच अमृतसर जंक्शन से यूपी के लिए ट्रेन चलने की जानकारी मिली। 2-3 बार ट्रेन चलने का संदेश मिला, पहुंचे तो स्टेशन पर या तो ट्रेन नहीं थी। ट्रेन थी तो लिस्ट में नाम नहीं। वापस कमरे में आ गये।’’ उन्होंने बताया कि 11 मई को नंबर आया तो श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर के नजदीकी स्टेशन गोंडा जंक्शन उतरकर सरकारी बस द्वारा बहराइच अपने गांव पहुंच गये।
कोरोना वायरस संक्रमण की जांच में राजकमल स्वस्थ पाया गया और गांव स्थित घर के बाहर बरामदे में ही पृथक वास पूरा किया। राजकमल के मुताबिक सरकार से उसे अभी तक सिर्फ एक बार राशन किट व पंजाब से गांव तक का ट्रेन का किराया मिला है। उसे अभी तक ना तो मनरेगा के तहत कोई काम की जानकारी है और ना ही सरकार से स्थाई अथवा अस्थायी नौकरी की सूचना! दूर दूर तक रोजी रोटी का कोई जरिया नहीं सूझ रहा है लेकिन फिर भी राजकमल ने फैसला कर लिया हैकि अब कमाने परदेस नहीं जाएगा । (बहराईच की कहानी भाषा के सौजन्य से)