कोरोना वायरस के नाम पर राजनीति दिल्ली-यू पी बॉर्डर पर, दोषी कौन? 

यह फोटो श्री नरेंद्र सिंह बिष्ट साहेब का है। हे भगवान् !! जो "घर में हैं उन्हें घर में रहने की बुद्धि दो", जो सड़क पर हैं उन्हें घर-वापसी (राजनीति वाला नहीं) की सद्बुद्धि दो - शेष कल क्या होने वाला है वह तो तुम जानते ही हो - तुम तो परमात्मा हो,

दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा पर जो हो रहा है, वह गलत है और किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को इस घटना की राजनीति नहीं करना चाहिए। यह कहना भी गलत होगा की दिल्ली सरकार इन विस्थापित लोगों/मजदूरों को अपनी सीमा से बाहर फेंक दिया या फिर यह कहना भी गलत होगा की प्रधान मंत्री इस दिशा  ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। सन्नाटे भड़ी सड़कों पर लोगों की भीड़, माथे पर सामानों का गठ्ठर, गोद में दूध पिता बच्चा, ऊँगली पकडे सड़क को नापते बच्चे – आज़ादी के पूर्व माउन्ट बेटन रेखा को लांघता भारत का आवाम – भविष्य पता नहीं।


सबसे अधिक भूमिका मिडिया, विशेषकर टीवी का है जो “प्रश्नवाचक चिन्ह” अंदर है। टीवी स्क्रीन पर कुछ आवाज दिल्ली सल्तनत, यानि मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल को घसीट रहा है तो कुछ चिल्लाता आवाज  प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री आदित्यनाथ योगी को। कोई किसी का गरेवान पकड़ रहा है तो कोई किसी का पीठ थपथपा रहा है। मिडिया तो आजकल न्यायपालिका की भूमिका निभाने लगा है – लेकिन सवाल यह है कि इन लाखों लोगों को सड़क पर किसने आने दिया ? दिल्ली में कर्फ्यू नुमा दृश्य है।  चप्पे-चप्पे पर पुलिस है ? क्या दिल्ली पुलिस एक बार फिर शक के घेरे में तो नहीं है?

यह भीड़ कैसे आयी सड़क पर 


जबकि सच्चाई यह है कि सम्पूर्ण देश आज हवा की एक ऐसे झोंके के मुहाने पर खड़ा है जो न तो किसी राजनेता को पहचानता है और न ही सड़कों पर रिक्शा चलाकर अपना और अपने परिवार का  जीवन यापन करने वाला गरीब का।  न तो वह केंद्रीय मंत्री को पहचानता है और न ही देश के सब्जी मंडियों में अर्धनग्न वस्त्र ओढ़े एक निरीह मजदूरों को।  


विज्ञानं भी यही कहता है की औसतन एक मिनट में एक व्यक्ति 12 से 20/25 बार सांस लेता है चाहे वह देश का राष्ट्रपति हो, प्रदेश के मुख्य मंत्री हों, केंद्र अथवा राज्यों के मंत्रीगण हों या फिर नगर निगमों में शौचालय साफ़ करने वाला कर्मी अथवा कोरोना से लड़ते लोग। 


टीवी वाले दो-फांक में बनते हैं – एक सत्ता को समर्थन करने वाले, दूसरे सत्ता की आलोचना करने वाले।  अब तो ये सभी “भगवान्” को भी बीच में खींचकर शपथ ले रहे हैं। 


देश में ऐसी त्रादसी से निपटने के लिए पैसों की किल्लत नहीं है (होनी नहीं चाहिए) बसर्ते व्यवस्था, नेतागण, सांसदों, विधायकों, जिलाधिकारियों या अन्य सभी लोगों को देश के लोगों के प्रति चिंता हो। शायद वे भूल रहे हैं की “अगर देश में आवाम (मतदाता) नहीं रहेंगे तो वे संसद अथवा विधान सभाओं में इत्र-छिड़ककर नहीं बैठ पाएंगे। 

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आकंड़ों के अनुसार भारत के लोक सभा में 543 सांसद हैं, जबकि राज्य सभा में 245 यानि कुल 788 सांसद।  इसी तरह, सम्पूर्ण देश के विधान सभाओं में कुल 4116 विधायक और 426 विधान परिषदों में – यानि कुल 4542 विधायक। ये सभी सांसद और विधायक अपने-अपने क्षेत्रों के मतदाताओं (लोगों) के प्रतिनिधि होते है, इसलिए इनकी जवाबदेही देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री से अधिक होता है। इन सांसदों को अपने संसदीय / विधान सभा-विधान परिषद् क्षत्रों में विकास अथवा अन्य कार्यों के लिए राशि आवंटित किये जाते हैं। 


अब अगर प्रत्येक सांसद अपने कोष से एक साल की राशि यानि पांच करोड़ कोरोना त्रादसी के रोकथाम के लिए  समर्पित करते हैं तो कुल राशि 788  x  50000000 = 39400000000 करोड़ रुपया राष्ट्र को मिलता है।  इसी तरह अगर कुल 4542 विधायक अपनी राशि से 20000000 रुपये देते हैं तो कुल राशि      90840000000 रूपया राष्ट्र को मिलेगा।  यानि कुल 1302800000000 रूपया  ।

 
​बहरहाल, फेसबुक पर धीरेन्द्र कुमार कहते हैं: ​हर व्यक्ति जो झोला उठा कर घर की ओर (बिहार) की ओर आ रहें हैं वो भयानक गलती कर रहें हैं.. बिहार के बाहर या आपके घर के बाहर कोई रक्षा कवच नहीं है जो वहां पहुंच कर बच जाइएगा…बेहतर हो कि दैनिक मजदूर के लिए स्थानीय सरकार वहीं व्यवस्था करे जहां वे रुके/फंसे हुए हैं। उनका कहना है कि “सोशल दूरी को मज़ाक मत बनाइए…भारत में बीमारी को रोकने का यही एक मात्र मंत्र है।

पहले ही विदेश बैठे छद्म भारतीय को सरकार भारत लाकर समस्या को गंभीर बना चुकी है…अब कम से कम समस्या को विकराल और वीभत्स बनाने से बचिए…हर राज्य सरकार अपने यहां बसे/कार्यरत प्रवासी लोगों का पूर्ण ख्याल रखे…ध्यान रहे हर व्यक्ति भारतीय है। प्रादेशिक समझना भविष्य में एक नई समस्या को आमंत्रण देने जैसा है।”

बिहार के अनूप  लिखते हैं: “नई दिल्ली के आनंद विहार टर्मिनल पर जिस तरह से हजारों बिहारियों की भीड़ बिहार लौटने के लिए अपने बस का इंतजार कर रही है इससे हालात बहुत ही ज्यादा खराब होने वाले  है। केंद्र और राज्य सरकारों से अपील है कि जल्द से जल्द कर्फ्यू लगा कर जो लोग जहां है वही उनके रहने खाने की व्यवस्था कर स्थिति को नियंत्रित किया जाए नहीं तो इस लाइलाज महामारी से लाखों लोगों को मरने से कोई नहीं रोक सकता सरकारे स्थिति की भयावहता को देखकर कठोर से कठोर कदम उठा सकती है। 

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इस भीड़ को देखकर बिहार में अपने घरों में दुबके लोगों की धड़कन बढ़ चुकी है पहले से ही कोरोना और जिंदगी के बीच के फासले को बढ़ाने में लगे लोग इस भारी भीड़ के कारण आतंकित है। एकाएक सोशल मीडिया पर यह मांग उठने लगी है कि देश के प्रधानमंत्री इस मामले में हस्तक्षेप पर दिल्ली में रह रहे हजारों बिहारियों के लिए वही रहने खाने की व्यवस्था करें।

वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी लिखते हैं: 1000 बसें उत्तर प्रदेश की सड़क पर। इस बात का बहुत प्रचार किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने अब एक हज़ार बसें दिल्ली की सीमा पर लगा दी हैं।यह भी कहा जा रहा है कि दिल्ली सरकार अपने यहां की जनता को पैदल उत्तर प्रदेश की सीमा में खदेड़ रही है ताकि लोग दिल्ली में ना रहें। यह भी सवाल उठ रहे हैं कि दिल्ली से बसें क्यों नहीं चलाई जा रही हैं?सबसे पहले दिल्ली से बसें क्यों नहीं चल रहीं?शायद आप लोग जानते होंगे दिल्ली में केवल सीएनजी बसें चलती हैं और सभी जगह सीएनजी मिलती नहीं है, अतःये बसें लंबी दूरी तक जा नहीं पातीं। इसीलिए दिल्ली सरकार की बसें जो सीएनजी से चल रही हैं अंतर राज्य मार्गों पर नहीं चल पा रही।


दूसरा उत्तर प्रदेश की 1000 बसें आप जान लें हरियाणा पंजाब राजस्थान और खुद नोएडा गाजियाबाद के रास्ते सीमा पर एकत्र लोगों की संख्या एक लाख के आसपास है। एक हज़ार बसें अधिकतम 10000 लोगों को ढो सकती है, अर्थात बसों की संख्या जरूरत की तुलना में ऊंट के मुंह में जीरा के समान है ।


आज जरूरत है कि आगरा मथुरा इन सभी स्थानों के डिपो में खड़ी बसें , वहां के स्कूलों की बसें वहां के अन्य सार्वजनिक और निजी बसों को एक साथ इस काम में लगाया जाए । पूरी रात इन लोगों को भेजा जाए और हर जगह कोशिश हो कि इन बस में बैठे लोगों का ठीक से स्वास्थ्य परीक्षण भी हो।​ ​दिल्ली में आंकड़ों पर बहुत सारे राहत कार्य चल रहे हैं, लेकिन जिस तरीके के संदेश, जिस तरीके के छोटे-छोटे निवेदन हमारे पास आ रहे हैं –उससे स्पष्ट है कि जमीनी काम की जगह आंकड़े और प्रचार का काम ज्यादा हो रहा है।

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खासकर पिछले महीने जो इलाके दंगे से ग्रस्त थे, और राहत शिविर में रहे लोगों को भगा दिया गया था, उन लोगों के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा है। ये अधिकांश दैनिक मजदूर लोग थे ।उनके घरों में आग लगा दी गई है। जिन मकानों में किराए पर रहते थे अधिकांश के मकान मालिकों ने उनसे मकान खाली करा लिए हैं । उनके पास में चूल्हे में लकड़ी या अन्न के लिए पैसा है नहीं। इस इलाके में अभी भी यूनाइटेड अगेंस्ट हेट, मीम, जनवादी संगठन ही काम कर रहे हैं।


दिल्ली की 40% आबादी लगभग 45 लाख लोग हर दिन कुआं खोदकर पानी पीने की तर्ज पर अपना पेट भरते हैं ।बसों के लिए लालायित या पैदल जा रहे सभी लोग दिल्ली के नहीं है । यह बहुत दूर दूर से चलकर आ रहे हैं और सिलसिला अभी आने वाले तीन-चार दिन और बढ़ेगा क्योंकि अब जम्मू पंजाब और राजस्थान के दूरस्थ इलाकों के लोग भी इस उम्मीद से दिल्ली की तरफ आ रहे हैं कि वहां से उत्तर प्रदेश की तरफ जाने वाली बसें मिल जाएंगे ।


आजादी के बाद की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक इसमें अब लोग सड़कों पर मर रहे हैं । मुंबई में विरार के पास सड़क पर सो रहे चार लोगों को वाहन ने कुचल दिया ।उसी तरह तेलंगाना में भी ऐसे ही सड़क पर पैदल चल रहे पांच लोग किसी वाहन की चपेट में आ गए । दिल्ली से मुरैना जा रहे रणवीर की मौत आगरा में हो गयी।
यह समझ ले कि संकट यहीं तक सीमित नहीं है यदि इस भीड़ में शामिल एक या दो लोगों को ही करोड़ों का असर हुआ तो इससे सैकड़ों हजारों में फैलने में वक्त नहीं लगेगा। घर जा रहे लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण भी होना चाहिए।  

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