18वें मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ‘माई मर्करी’ का मानना है कि “जब लापरवाह मानवीय खतरों के कारण प्रकृति विनाश के कगार पर हो, तो हम बेचैन नहीं हो सकते”

‘माई मर्करी’ की निर्देशक जोएल चेसलेट

मुंबई: ‘जब प्रकृति नष्ट हो रही हो, तो हम बेचैन नहीं हो सकते। जब लापरवाह मानवीय खतरों के कारण प्रकृति विनाश के कगार पर हो, तो हम बेचैन नहीं हो सकते।’ यह बात ‘माई मर्करी’ की निर्देशक जोएल चेसलेट ने आज 18वें मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (एमआईएफएफ) में ‘एंथ्रोपोसीन युग यानी मानव युग में क्या अभी भी बेचैन होने का समय है? – एक बेहतरीन उदाहरण’ शीर्षक से आयोजित एक ज्ञानवर्धक वार्तालाप सत्र के दौरान कही। यह रोचक सत्र उनकी पर्यावरण-मनोवैज्ञानिक वृत्तचित्र फिल्म पर आधारित था जिसका प्रीमियर कल एमआईएफएफ में हुआ।

अपनी फिल्म के बारे में बात करते हुए जोएल ने कहा कि 104 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री में उनके भाई यवेस चेसलेट की असाधारण दुनिया और मर्करी द्वीप पर संरक्षण करने के उनके प्रयासों को दर्शाया गया है जहां समुद्री पक्षी और सील ही उनके एकमात्र साथी हैं। इस फिल्म में लुप्तप्राय समुद्री पक्षियों और सील से अपने अस्तित्व को हो रहे खतरों का सामना कर रहे अन्य वन्यजीवों के पतन पर प्रकाश डाला गया है। उन्होंने कहा, ‘लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए इस द्वीप को पुनः हासिल करने का उनका साहसी मिशन दरअसल बलिदान, विजय और मनुष्य एवं प्रकृति के बीच बने गहरे जुड़ाव की एक मनोरम गाथा के रूप में सामने आता है।’

उन्होंने यह भी कहा कि इसमें मनुष्य की जटिल मानसिकता और प्रकृति के साथ हमारे उत्साहपूर्ण जुड़ाव को दर्शाया गया है। भावुक जोएल ने कहा, ‘मानव व प्रकृति के बीच सच्चे संबंध को ढूंढना ईश्वर को खोजने जैसा है।’ इस फिल्म में दर्शाए गए पारिस्थितिक संतुलन में मानव और गैर-मानवीय संबंधों के बीच जटिल अंतर्संबंध को रेखांकित करते हुए जोएल ने कहा, ‘यह आशा, त्याग और बदलाव की गाथा है। उन्होंने विशेष जोर देते हुए कहा, ‘इस फिल्म में सब कुछ सच है।’ फिल्म के दक्षिण अफ्रीकी निर्देशक, संगीतकार और छायाकार लॉयड रॉस ने इस फिल्म की लंबी शूटिंग अवधि के दौरान आई चुनौतियों के बारे में जानकारी साझा की।

उधर, चार प्रशंसित महिला फिल्मकार “उनकी कहानी का अनावरण: डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण के माध्यम से महिलाओं की कहानियों की पड़ताल” शीर्षक से एक गहन सत्र के लिए एकजुट हुईं। इसका संचालन प्रमुख वृत्तचित्र कथाकार क्वीन हजारिका ने किया। इस सत्र में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता सृष्टि लखेरा, फरहा खातून, प्रेरणा बरबरूआ और निपुण लेखिका, निर्माता व निर्देशक इसाबेल सिमोनी शामिल थीं। पैनल में शामिल शख्सियतों ने अपनी फिल्म कला, सामाजिक मुद्दों और फिल्म उद्योग में उनके सामने आने वाली चुनौतियों और सफलताओं पर चर्चा की।

उत्तराखंड की रहने वाली सृष्टि लखेरा ने इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं के लिए पत्थर तोड़ने से लेकर कविता लिखने तक कुछ भी असंभव नहीं है। उनकी पहली डॉक्यूमेंट्री फीचर “एक था गांव” है, जिसने 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी का पुरस्कार जीता। उन्होंने इस फिल्म में अपने पिता के हिमालयी गांव में जीवन को दर्शाया है। जब उन्होंने फिल्मांकन शुरू किया था, तब केवल सात निवासी उनके साथ थे। इस डॉक्यूमेंट्री में एक 80 वर्षीय महिला और एक 19 वर्षीय लड़की के संघर्षों को दर्शाया गया है जो एकांत गांव के जीवन और एक अलग शहर के अस्तित्व के बीच चुनाव के असमंसज का सामना करती हैं। 

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लखेरा ने बताया कि परित्यक्त गांवों में पीछे छूट जाने वाले लोग अक्सर महिलाएं और दलित होते हैं, क्योंकि शहर में जाने का विशेषाधिकार आमतौर पर पुरुषों का होता है। उन्होंने कहा कि महिलाएं अपना पैसा खुद कमाना चाहती थीं, लेकिन उनके पास वहां विकल्प नहीं है। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बढ़ती निर्भरता पर ध्यान दिया और दूरदराज के गांवों में साधारण पृष्ठभूमि से युवा हिप हॉप कलाकारों के प्रेरक उद्भव के बारे में बताया जिन्होंने खुद लिखना, रिकॉर्ड करना और म्यूजिक मिक्स करना सीखा है।

इसाबेल सिमोनी ने लैंगिक समानता हासिल करने की चुनौतियों और अपनी कहानी में महिलाओं की प्रधानता पर अपने फोकस के बारे में बात की। उन्होंने महिला फिल्मकारों के सामने आने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डाला, जिसमें महिलाओं की बनाई फिल्मों के दर्शकों तक न पहुंच पाने का डर और वित्तीय प्रभाव शामिल हैं। सिमोनी ने आने वाले फिल्मकारों को सलाह देते हुए कहा कि, “सेट पर भी, आपको टीम सदस्यों को आत्मविश्वास से भरपूर महसूस कराना होगा। हमें पेशेवर होना होगा और उन विषयों के लिए कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है जिन्हें हम स्क्रीन पर देखना चाहते हैं।”

प्रेरणा बरबरूआ, पूर्वोत्तर की एक निपुण निर्देशिका, लेखिका, अभिनेत्री और मॉडल हैं, जिन्होंने 50 से अधिक वृत्तचित्र बनाए हैं। मेघालय के मातृ सत्तात्मक समाज से प्रेरित उनकी पहली फिल्म, उनके पितृ सत्तात्मक पालन-पोषण के विपरीत है। अपने वृत्तचित्र में, उन्होंने मातृ सत्तात्मक जनजातियों के भीतर अनूठी सामाजिक भूमिकाओं की खोज की, 36 घंटे के फुटेज को 36 मिनट की फिल्म में समेट दिया। बारबरूआ ने पुरुषों का अपनी पत्नी के घर में रहना, जो कि मेघालय के जनजातीय समाज में एक आदर्श बात है, के प्रति अपना आकर्षण व्यक्त किया।

फिल्मकार और संपादक फरहा खातून अपने वृत्तचित्र में लैंगिक, पितृसत्ता और धार्मिक कट्टरता के विषयों के बारे में चर्चा करती हैं। उन्होंने भारत में महिला वृत्तचित्र फिल्म निर्माताओं की महत्वपूर्ण उपस्थिति पर प्रकाश डाला तथा तत्कालीन फिल्म प्रभाग और वर्तमान राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) द्वारा प्रदान किए गए सहयोग की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि यह सरकारी सहयोग वृत्तचित्र फिल्म निर्माताओं को एक महत्वपूर्ण प्रोत्साहन और आत्मविश्वास प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपना करियर शुरू करने और बनाए रखने में सहायता मिलती है।

18वें एमआईएफएफ में लघुकथा फिल्म ‘गुमनाम दिन’ की निर्देशक एकता मित्तल संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करती हुईं

इतना ही नहीं, एकता मित्तल द्वारा निर्देशित गुमनाम दिन (मिसिंग डेज) एक लघु कथा फिल्म है, जो काम के लिए दूर-दराज के शहरों में पलायन करने वाले गुमनाम लोगों के माध्यम से अलगाव और लालसा के मार्मिक विषयों पर प्रकाश डालती है।  ‘बर्लिनले स्पॉटलाइट: बर्लिनले शॉर्ट्स पैकेज’ में शामिल यह फिल्म  अलगाव को रोजमर्रा जीवन के अपरिहार्य हिस्से के रूप में देखती है। यह फिल्म बर्लिनले शॉट्स 2020 के लिए आधिकारिक चयन का हिस्सा थी। एकता मित्तल ने फिल्म के निर्माण और इसके द्वारा प्रस्तुत गहन कथा के बारे में जानकारी साझा की। अपनी फिल्म की उत्पत्ति के बारे में एकता मित्तल ने कहा कि यह फिल्म 2009 में शुरू हुई एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा थी। मित्तल ने बताया  कि “बिहाइंड द टिन शीट्स’ शीर्षक के तहत, हमने प्रवासी निर्माण श्रमिकों के बारे में तीन लघु फिल्में बनाईं। इन फिल्मों को पूरा करने के बावजूद, ऐसा लगा कि कुछ अभी भी अधूरा है और इसलिए यह फिल्म बनाई गई।

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प्रशंसित फिल्म निर्माता ने प्रवासी श्रमिकों के जीवन की अनिश्चित प्रकृति पर भी जोर दिया, उन्होंने कहा कि उनकी पहचान अक्सर उनके परिवेश के साथ बदलती रहती है। आगे के शोध और अन्वेषण से पता चला कि पंजाबी सूफी कवि शिव कुमार बटालवी की कविता से प्रेरित होकर “बिरहा” का जन्म हुआ, जो बताता है कि अलगाव श्रमिकों के दिमाग को कैसे प्रभावित करता है। “गुमनाम दिन” इन श्रमिकों के जीवन के गुम हुए दिनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इससे आगे बढ़ता है और उनके अनुभवों को एक विचारोत्तेजक और अमूर्त तरीके से प्रदर्शित करता है। यह उनके नामों और आकड़ों से अलग है, जो उन्हें कमजोर बनाते हैं।  

मित्तल ने आगे कहा. “ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से लोग गुमनाम होना चुनते हैं। उन्होंने कहा, “श्रमिकों के लिए, श्रमिक कॉलोनी में रहना एक अलग अनुभव है। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया के दौरान, मैं प्रवासी श्रमिकों के परिवारों के साथ रही और मैंने देखा कि जीवन या रिश्तों में कुछ भी स्थायी नहीं है। कोविड-19 महामारी ने केवल इसकी पुष्टि की है।” बर्लिनेल में अपने अनुभव के बारे में एकता मित्तल ने इसे अभिभूत करने वाला और विनम्रता प्रदान करने वाला बताया, उन्होंने महोत्सव की मजबूत रचनात्मक शैली की प्रशंसा की। उन्होंने इस बारे में अनिश्चितता व्यक्त की कि क्या श्रमिकों को फिल्म पसंद आई या समझ में आई, लेकिन उन्हें विश्वास था कि वे इस फिल्म से अपने को जोड़ सकते हैं।

आगे की योजनाओं के बारे में मित्तल ने कहा कि वे श्रम और प्रवास से जुड़े मुद्दों की खोज के लिए समर्पित हैं। उनकी अगली परियोजना एक राज्य के भीतर आंतरिक प्रवास पर केंद्रित होगी, जो श्रमिक मुद्दों पर उनके चिंतन को जारी रखेगी। “गुमनाम दिन” हिंदी, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी में प्रस्तुत 28 मिनट की फिल्म है। मित्तल ने कहा कि लघु फिल्मों की अमूर्त और काव्यात्मक प्रकृति के बावजूद, यह जरूरी नहीं कि वे छोटे बजट पर बनायी जाएँ और देखने का समय सीमित संबंध बनाता है।उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि फिल्मों को हमेशा सक्रियता-उन्मुख होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि वे रचनात्मक तरीकों से भावनात्मक पहलुओं का चित्रण कर सकती हैं।

उधर, “अनलॉकिंग द फोर्स: यूजिंग डॉक्यूमेंट्री फिल्म्स टू प्रमोट सोशल ट्रांसफॉर्मेशन” विषय पर एक रुचिपूर्ण पैनल चर्चा हुई, जिसमें वरिष्ठ कन्नड़ फिल्म निर्देशक, अभिनेता और निर्माता डॉ. टी. एस. नागभरण शामिल हुए। इस सत्र में वृत्तचित्रों की सामाजिक परिवर्तन को गति देने की विपुल संभावनाओं पर चर्चा की गई, जिसमें वृत्तचित्रों के महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करने, कार्रवाई को प्रेरित करने और महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन लाने की शक्ति पर ध्यान केंद्रित किया गया। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) के महाप्रबंधक श्री डी. रामकृष्णन ने चर्चा का संचालन किया।

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एक प्रसिद्ध वृत्तचित्र फिल्म निर्माता, डॉ. टी.एस. नागभरण ने भी एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में सिनेमा के उत्तरदायित्व को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि आधुनिक सिनेमा अक्सर खुद को “नो-मैन्स लैंड” में पाता है, जहाँ मोबाइल कैमरा वाला कोई भी व्यक्ति फिल्म बना सकता है। बहरहाल, उन्होंने फिल्म की सफलता के लिए आवश्यक अनुशासन प्रदान करने के लिए “शिक्षा में सिनेमा और सिनेमा में शिक्षा” के महत्व पर बल दिया। इस वरिष्ठ फिल्म निर्माता के अनुसार, फीचर फिल्में और वृत्तचित्र दोनों ही सामाजिक यथार्थवाद को दर्शाते हैं और समाज से आंतरिक रूप से जुड़े हुए हैं। उन्होंने फिल्म निर्माताओं के लिए वर्तमान सामाजिक मुद्दों पर अपडेट रहने और अपने काम में सामाजिक प्रासंगिकता के लिए प्रयास करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “वृत्तचित्र सामाजिक परिवर्तन के लिए कलात्मक उपकरण है। एक फिल्म निर्माता के लिए सत्य की खोज करना सरल नहीं होता। सत्य हमेशा दिखाई नहीं देता और अक्सर मायावी होता है।”

सात बार के इस राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ने स्वतंत्र फिल्म निर्माण के लिए एक उचित सहायता प्रणाली की आवश्यकता को भी रेखांकित किया और वृत्तचित्रों में तथ्यों से छेड़छाड़ के खिलाफ चेतावनी दी। उन्होंने कहा, “यदि आप तथ्य को फिर से बनाते हैं, तो यह अब तथ्य नहीं रह जाता। यह हेरफेर है।” उन्होंने वृत्तचित्र फिल्म निर्माताओं से अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने के लिए एक अद्वितीय दृश्य साक्षरता और सौंदर्य बोध रखने की भी अपील की। फिल्म निर्माताओं द्वारा प्रस्तुत सत्य को स्वीकार करने में समाज के सामने आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, डॉ. टी.एस. नागभरण ने ईमानदार फिल्म निर्माण के माध्यम से बदलाव लाने की वकालत की। उन्होंने एजेंडा-प्रेरित फिल्म निर्माण के खिलाफ चेतावनी दी, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह प्रामाणिकता को कमजोर करता है और नकली कथाओं को बढ़ावा देता है। उन्होंने कहा, “दृश्य भाषा लगभग एक काव्यात्मक भाषा की तरह एक अलग दृष्टिकोण है। आज की दृश्य भाषा को वास्तविक सत्य को पकड़ने के लिए काव्य और राजनीति को आपस में जोड़ते हुए खुद को विकसित करना चाहिए।”

डॉ. टी.एस. नागभरण ने न केवल राष्ट्र के प्रति, बल्कि पूरी मानवता के प्रति फिल्म निर्माताओं के उत्तरदायित्व पर बल दिया। उन्होंने जोर देकर कहा कि फिल्म निर्माण में उद्देश्य की स्पष्टता यह सुनिश्चित करती है कि नेक इरादे व्यक्त किए जाएं, अस्पष्टता और भ्रामक कथाओं से बचा जाए। उन्होंने यह भी कहा कि अतीत की पटकथा संबंधी बाधाएं, जहां वृत्तचित्र 10 मिनट की अवधि तक सीमित थे, अब विभिन्न आधुनिक प्लेटफार्मों द्वारा दूर कर दी गई हैं जो कहानी कहने के लिए विस्तारित समय प्रदान करते हैं।

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