केंद्रीय मन्त्री रविशंकरजी के लिए ‘शाहरुख़ खान बहुत बड़े’ हैं, जबकि पटना के धीरेन्द्र जी लिखते हैं: ‘आत्महत्या नहीं’, सुशांत के निर्वाण को ‘महाप्रयाण’ कहिये 

इस तस्वीर को देखकर एक पिता के दर्द को आप जरूर महसूस करेंगे। 
इस तस्वीर को देखकर एक पिता के दर्द को आप जरूर महसूस करेंगे। 

केन्द्रीय विधि-न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद की सोच  बॉलीवुड के शाहरुख़ खान तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देता है, या फिर, बॉलीवुड के  कलाकारों में उनकी सोच का अंतिम पड़ाव “शाहरुख़ खान” तक ही है। पिछले दिनों प्रसाद दिवंगत सुशांत सिंह राजपूत के पिता और परिवार वालों से मिलने के बाद जो दो-शब्द लिखे, उसे आप भी पढ़िए और सोचिये अवश्य। 

प्रसाद जो भारत सरकार विधि-न्याय विभाग के अतिरिक्त कम्युनिकेशन, इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी विभाग के भी मंत्री हैं, अपनी भावनाओं को कलमबंद करते हुए कुछ इस तरह लिखे:

“प्रिय सुशांत ! तुम क्यों चले गए इतनी सम्भावना, क्षमता और आसमान छूने का इरादा , मैंने तुम्हारे पिता जी और तुम्हारे दीदी को यही कहा की तुम में भविष्य का शाहरूख खान दिखता था। पूरा देश दुखित है तथा मेरी असीम संवेदना है।” 

यह सच है कि केन्द्रीय मंत्री का बॉलीवुड की दुनिया में अच्छी पैठ है। लेकिन बॉलीवुड में शाहरुख़ खान या अन्य खानों की तुलना में सैकड़ों-हज़ारों “गुमनाम कलाकार” हैं, जो मौके की तलास करते-करते या तो जीवन की अन्तिम सांस ले लेते हैं। या फिर, बॉलीवुड के “कलाकारों-प्रोड्यूसरों-निर्देशकों-फिनांसरों द्वारा रचित चक्रब्यूह को तोड़ नहीं पाने कारण आत्महत्या कर लेते हैं । 

महाभारत में तो अभिमन्यु भी “उसी राजनीति का शिकार हुआ था जिसकी रचना हरियाणा के कुरुक्षेत्र में रचा गया था और पिछले सप्ताह सुशांत नाम का एक कलाकार भी उसी चक्रब्यूह का शिकार होकर अंतिम सांस लेना श्रेयस्कर समझा। इस चक्रब्यूह की रचना भारत के ही एक अन्य राज्य महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई की गयी थी। “

यह तस्वीर काफी है यह समझने के लिए की माननीय रविशंकर प्रसाद जी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कितने करीबी हैं। परन्तु सवाल यह है कि एक विधि-न्याय मंत्री होने के वावजूद दिवंगत सुशांत के परिवार को “न्याय” दिलाने की सोच रखते हैं अथवा नहीं 

वैसे सरकार अगर चाहे – क्योंकि भारत संविधान में सरकार की स्थिति, चाहे केंद्र की हो या राज्यों की; सर्वश्रेष्ठ और सवल है – तो बॉलीवुड में तक्षण “नकेल” कस सकती है। परन्तु देश के कुल  3,287,263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ऐसी कोई व्यवस्था दिखती नहीं है। 

सुशांत के परिवार, पिता  और अन्य परिजनों से मिलने के बाद, बिहार के एक श्रेष्ठ, विद्वान, विचारवान, प्रखर और सबसे महत्वपूर्ण देश के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री श्री अमित शाह के बहुत नजदीकी समझे जाने वाले रविशंकर प्रसाद इतना तो आस्वस्त कर सकते थे की “इस विषय में सीबीआई से अन्वेषण किया जायेगा।” लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।  कारण तो बेहतर वे जानते होंगे, लेकिन इतना तो बिहार का एक-एक बच्चा जानता है कि “सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर वे बॉलीवुड में अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध ख़राब नहीं कर सकते।”

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बहरहाल, पटना से वरिष्ठ पत्रकार और विचारक श्री धीरेन्द्र कुमार लिखते हैं : रविवार को सिने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली। एक उभरते सितारे का इस तरह से महाप्रयाण करना हर किसी के लिए चौंकाने वाली खबर थी। ऐसा नौजवान जो नेशनल फिजिक्स ओलंपियाड में गोल्ड मेडल जीता हो, जिसने इंजीनियरिंग की इंट्रेंस में देश में सातवां रैंक प्राप्त किया हो, जिसकी सोच चांद पर जमीन खरीदने की हो, जो अपनी मिट्टी से / गांव से जुड़ा हुआ हो उसके द्वारा आत्महत्या किया जाना अपने आप में एक साथ कई प्रश्नों को जन्म देता है।

हर अप्रत्याशित घटना के बाद समाज उन घटनाओं की विवेचना करता है। बेरोजगारी और अतिबौद्धिकता की आंधी में विवेचना बड़ी और कड़ी होती है। जब भी किसी ने आत्महत्या की, समाज ने उसे बिना सोचे समझे ‘कायर’ कहा। दूसरी बात, आजकल आत्महत्या के पीछे एक नया वैज्ञानिक शब्द का जिक्र प्रभावी हो गया है। ‘डीप्रेशन/अवसाद’ विज्ञान के चोंचलेबाजी के आसरे विद्वानों का कहना होता है कि फलां व्यक्ति डीप्रेशन में था इसलिए आत्महत्या की। यह तर्क बौद्धिक जुगाली में एक सीमा तक या कहें तो तात्कालिक रूप से सही हो सकता है लेकिन पूर्णकालिक नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार और विचारक श्री धीरेन्द्र कुमार

भौतिकवादी युग में मनुष्य की आकांक्षाएं बढ़ रही है। समाज उन आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम है। ऐसी स्थिति में अगर काएदे से जांच की जाए तो अनुमानत: 80 फीसदी आबादी अवसाद से ग्रसित मिलेगी। आत्महत्या के लिए अवसाद को जिम्मेदार मानने वालों के पास इस बात का भी अनुमान होना चाहिए कि आने वाले समय में कितने लोग अवसाद से ग्रसित हो मौत को गले लगाएंगे।

दरअसल घर में बैठकर सुबुक-सुबुक वादी किताब के आसरे किसी भी विषय पर थ्योरि गढ़ना और चश्मा-दाढ़ी की ओट में प्रवचन देना सुलभ कार्य है। ज्ञात रूप में विश्व की 20 करोड़ आबादी आज अवसाद से निकलने के लिए दवा का सहारा ले रही है। अवसाद के कारण आत्महत्या की वकालत करने वाले जाने अनजाने में अवसाद ग्रसित व्यक्ति को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने जैसा अपराध कर रहे हैं।

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सुकरात/अरस्तु/हिटलर सहित कई ऐसे बड़े नाम हैं जिन्होंने आत्महत्या की थी। हालांकि, आदि काल से ही भारत में यह प्रवृत्ति आम नहीं है। भारतीय दर्शन में और भारतीय कानून में आत्महत्या को निम्न अपराध/ अपराध की श्रेणी में रखा है।पश्चिमी देशों में भौतिकवादी मनोवृति के कारण आत्महत्या की प्रवृति अधिक है।

यद्यपि भारत में छद्म रूप से आत्महत्या की कहानी मौजूद है। मनुष्य का जीवन यश स्थापित करने के लिए है। हर छोटी मोटी असफलता पर ही मनुष्य महाप्रयाण न करने लगे इसलिए भारतीय मनीषियों ने आत्महत्या शब्द को संकुचित और निम्न कर दिया।

भारतीय दर्शन ने विकट परिस्थिति में अदम्य साहस के साथ मौत को गले लगाना स्वीकार किया है। मसलन युद्द में हार को निश्चित मान युद्द के लिए प्रस्तुत होना क्या आत्महत्या नहीं है? लेकिन भारतीय चिंतन में इसे वीरता माना गया । मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने की इस वीरता को ‘साका’ शब्द के साथ सम्मानित किया गया। साका उस युद्द को कहते हैं जब रणक्षेत्र से जीवित नहीं लौटने के संकल्प से योद्धा अपने सर पर केसरिया लपेट दुश्मन के सामने अभिमन्यु की भांति प्रस्तुत होता है। महिलाएं भी ऐसी स्थिति में जौहर कर आत्महत्या शब्द को सम्मानित करती थीं। जौ अर्थात जीव, हर अर्थात हरण, अपनी पवित्रता और अपनी मान सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किया जाता था। अगर हम तुमको हरा नहीं सकते तो तुम भी हमें जीत नहीं सकते, इस संकल्प के साथ किया गया साहसिक कदम महाप्रयाण है।

संतो के द्वारा स्वेच्छा से शरीर त्यागना/ राम का जल समाधि/ भीष्म पितामह की ईच्छामृत्यु/ राष्ट्र रक्षा के लिए प्रस्तुत सैनिक आदि किसी ना किसी रूप में महाप्रयाण के लिए संकल्प लेते हैं। चूंकि उनका प्राणोत्सर्ग का संकल्प मानव जाति के उत्थान के लिए समर्पित होता है इसलिए हम उनके कर्मो का सम्मान करते हैं।

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कोई आत्महत्या करता क्यों है….?

ऐसे कितने लोग हैं जो करोड़ों लाखों की लालच में प्राण गवां दें। शायद एक भी नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो यकीन मानिए इस भौतिकवादी युग में यह भी रोजगार बन जाता। आत्महत्या के विषय पर तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला, यदि प्रतिभा परिणाम में तब्दील ना हो पाए तो व्यक्ति हताश हो महाप्रयाण का विकल्प अपनाता है। दूसरी बात, यदि नदी की धारा को चारों तरफ से बंद कर दिया जाए तो धारा विस्फोटक रूप से आगे बढ़ती है। यह बहाव महाप्रयाण का रास्ता हो सकता है। तीसरी बात व्यक्ति अगर अपने कर्म / उपलब्धि से संतुष्ट हो जाए और उसके अंदर कुछ नया करने की जिजीविषा न हो, तब वह महाप्रयाण का रूख करता है।

पहली श्रेणी में वो आते हैं जिनके बारे में हमें आए दिन अखबार से जानकारी मिलती है। दूसरी श्रेणी में सुशांत सिंह/ एडोल्फ हिटलर जैसा महानायक होता है। और, तीसरी कैटेगरी में महाप्रयाण को प्रस्तुत संत महात्मा आते हैं।

हर सिद्धांत का अपवाद होता है। माइकल फिलिप, तैराकी में 23 ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता प्रसिद्ध होने के पहले आत्महत्या के बारे में सोच रहा था लेकिन नियति ने उसे मजबूत योद्धा के रूप में यश दिया। अब्राहम लिंकन के बारे में भी कहा जाता है कि वे नियति के सामने खुद को कमजोर मानते हुए महाप्रयाण के लिए सोचने लगे थे। बॉलिवुड से दीपिका पादुकोण / विनोद खन्ना आदि का नाम लिया जा सकता है। ये ऐसे लोग हैं जो अपनी कमजोरी से लड़ते हुए मजबूत होकर निकले।

मृत्यु की कल्पना मात्र से शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं । मृत्यु का वरण करना किसी भी श्रेणी में कारयता नहीं हो सकता है। अभिमन्यु कायर नहीं था/ पितामह कायर नहीं थे, चंद्रशेखर आजाद कायर नहीं थे। इन लोगों ने जानबुझकर मृत्यु का वरण किया था। कायर और कमजोर के बीच की रेखा बड़ी महीन है। किसी की मृत्यु पर वैसे भी उसे छोटा करने के बजाए उसके निर्वाण को महाप्रयाण कह कर सम्मानित करें, आपका भी सम्मान बढ़ेगा।

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