ग़रीबों की हँसी उड़ाते ‘लालू’ से ‘लालू प्रसाद यादव’ बन गए ‘लालूजी’, अब ‘सत्ता का हस्तानांतरण’ का समय है, लेकिन सवाल बहुत बड़ा है ‘तेजस्वी यादव’!!! 

लालू प्रसाद यादव और उनके शुभचिंतक, का समझे !!!
लालू प्रसाद यादव और उनके शुभचिंतक, का समझे !!!

राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अपनी पार्टी की  24 वें स्थापना दिवस पर पार्टी के कार्यकर्ताओं के नाम एक सन्देश जारी किया। राजनीतिक दृष्टिकोण से यह “जन्म-दिन सन्देश” कुछ और कहता है – जैसे वे अब हतास हो गए हों। आज जिस उम्र में उनके छोटे पुत्र हैं, यानि 30 वर्ष, इस उम्र से कोई चार-वर्ष कम, यानि 26 साल के उम्र में लालू प्रसास यादव में जो “तेज” था, जो “वाक्-पटुता” उनमें थी, लोगों को वशीकरण करने की क्षमता जो उनमें थी – वह तेजस्वी यादव में नहीं है। 

लालू प्रसाद यादव “झूठ” को पटना के गाँधी मैदान या पटना के डाक बँगला चौराहे पर “खड़े-खड़े” बेचने की कूबत रखते थे, बेच दिए थे और सिंघासन पर विराजमान हो गए।  उसी तरह जैसे गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री स्वयं को “चाय वाला” बता कर, राजनीतिक बाजार में शतरंज बिछा कर संसद में प्रवेश लेकर प्रधान मन्त्री बन गए। “झूठ को बेचने की ताकत” लालू यादव के पुत्र में नहीं है और राजनीति में नेताओं को “सच से परहेज” हैं – यानि “सोसल डिस्टेन्सिंग”

सन 1948 के 11 जून को जन्में लालू यादव आज 72-वर्ष के हो गए और उनके कनिष्ठ पुत्र 30-वर्ष के। लेकिन सच तो यह भी है कि चाहे कितनी ही बातों के गुलछर्रे उड़ा दें, बिहार के जन-मानस के दर्द को, उसकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व्यथा को न तो लालू प्रसाद यादव जान पाए, न ही उनकी पत्नी पूर्व-मुख्य मंत्री राबड़ी देवी और न ही पूर्व-उप-मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव । 

अपने सन्देश की शुरुआत लालू प्रसाद यादव कुछ ऐसे करते हैं: “जन्मदिन पर आपकी ढेर सारी बधाई पाकर अभिभूत हूँ। वर्तमान परिस्थिति में आपकी एक-एक बधाई मुझे संघर्षों का सम्बल, आशाओं का स्रोत, अन्याय का दमन और बदलाव की किरण दिखाई देती है। उम्र का ये भी पड़ाव है, शायद तबीयत उतना साथ नहीं दे रही, लेकिन हौसला तो अभी भी उतना ही है, अन्याय को मिटाने का जूनून रत्ती भर भी कम नहीं हुआ।”

स्वयं को वे बृद्ध या बीमार नहीं मानते हैं, ताकि “हौसला बुलंद” रहे, इसलिए लिखते हैं: “लालू में आज भी वही ऊर्जा है जिसे लिए मैं फुलवरिया के अपने गांव से पटना चला था, ऊंच-नीच का भाव मिटाने की ऊर्जा, सामंती और तानशाही सत्ता को हटाने की ऊर्जा, गरीब-गुरबों के हक़ की आवाज़ उठाने की ऊर्जा।” 

इस बात से कोई नकार नहीं सकता की लालू प्रसाद यादव समाज के नीचे तबके के लोगों के “मुख में आवाज” दिया, लेकिन इस बात से भी वे लोग इंकार नहीं कर सकते की लालू प्रसाद यादव, उसी आवाज़ को ‘उनकी कमजोरी’ और अपना “ईक्का” मानकर “राजनीतिक गलियारों में ‘सपरिवार’ सत्ता में बने रहने के लिए “साम-दाम-दंड-भेद”, को ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल किया। 

अगर ऐसा नहीं था तो: एक: दो बार मुख्य मंत्री (1845 दिवस और फिर 844 दिवस) रहने के बाद, बिहार को छोड़ें, पार्टी में ही, उनके बराबर शिक्षित, विचारवान, प्रदेश के  प्रति निष्ठावान, गरीब-गुरबा के विकास को  सोचने वाले अन्य किसी भी कार्यकर्ता के हाथों प्रदेश का भविष्य न सौंपकर अपनी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी को ही मुख्य मन्त्री पद पर आसीन क्यों दिए? जिस नीचे – दबे – कुचले – पिछड़े की बातों को अपना “ईक्का” बनाकर खेला, वे आज भी बिहार के गावों में, गलियों में, सडकों पर उसी दशा में, उसी दिशा में भाग्य के सहारे जी रहे हैं। क्या लालूजी, मैं लगत ?

दो: लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी 5369 – दिवस बिहार  के सिंघासन पर बैठे रहे जो अब तक के 23 मुख्य मन्त्रियों (माथे की गिनती है) में दूसरे स्थान पर हैं। इससे पहले श्रीकृष्ण सिंह 5419 – दिवस मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके हैं। वर्तमान मुख्य मंत्री नितीश कुमार तीसरे स्थान –  5062-दिवस पर हैं, शीघ्र ही गिनती को पछाड़ने वाले हैं।  

लेकिन लालू प्रसाद यादव के सन्देश की अगली पंक्तियाँ देखिये, कैसे शब्दों की राजनीति होती है, स्वहित के लिए, परिवार के लिए, परिजनों के लिए। सन्देश में लालू  लिखते हैं: “बिहार के जो हालात हैं उससे मन गमगीन है, राजनीति मन से कोसों दूर है और बिहारी भाई-बहनों का दर्द मन में कहीं गहरे से बैठा है। क्या शब्द दूं उस पीड़ा को जो अपने बिहार से दूर अस्पताल के इस कमरे के भीतर मेरे मन में उठ रही है। बिहार में होता तो जतन में रत्ती भर कोताही ना करता।” 

लेकिन यह लिखने में चुक गए की “जब थे तब क्या किये? अगर कुछ प्रदेश के लिए किये होते, गरीब-गुरबा-पिछड़ों के लिए किये होते तो शायद जहाँ आज जिस अस्पताल  कक्ष में हैं, जिस मुक़दमे में बंद हैं; यहाँ नहीं होते।” 

लालू प्रसाद यादव यह जानते हैं की स्वास्थ ठीक होने पर भी वे सत्तर-अस्सी वाला “जवान” नहीं हो पाएंगे। राजनीति अब “दौड़-भागकर” नहीं कर पाएंगे। अब मगध के चाणक्य की राजनीति शास्त्र की मूल नीतियों आधार पर – ‘साम, दाम, दंड, भेद’ – ही राजनीति करेंगे।  

वैसे अब तक तो कुछ ऐसा ही करते आये हैं, फिर भी आधुनिक भाषा में यदि इसे “ट्रान्सफर ऑफ़ रणनीति” कहें तो सन्देश  लिखते हैं: “अब तेजस्वी और अपनी पार्टी के कन्धों पर ये जिम्मेदारी दी है। सत्ता ने जब-जब निराश किया, तेजस्वी और पार्टी ने मन को राहत दी और महसूस कराया कि भले ही कुर्सी पर बैठे लोग बेपरवाह हैं, लेकिन मेरे राजद परिवार, मेरे बिहार के लोग संकट की इस घड़ी में एक दूसरे का बखूबी साथ दे रहें हैं।” 

अपना खाइए न !!! काहे नज़र गराये हैं – खाने दीजिये 

यहाँ लालू प्रसाद यादव की सोच या कल्पना आने वाले समय में “गलत साबित भी हो सकता है” – वजह यह है की: अगर इन्दिरा गाँधी के बाद, राजीव गाँधी की  राजनीतिक पकड़ हाथों से थोड़ी ही सही, फिसली;  राजीव गाँधी के बाद सोनिया गाँधी और उनके पुत्र राहुल गाँधी के ऊपर लोगों का विस्वास और साथ, वह नहीं रहा, जो पहले था।फिर राष्ट्रीय जनता दल कैसे उम्मीद करती है कि तेजस्वी यादव के प्रति बिहार के लोग उतने ही प्रतिबद्ध होंगे – अगर तेजस्वी यादव के विचारों में आधुनिकता नहीं आये, क्योंकि विगत 5369 – दिनों की आपकी और आपकी पत्नी की सरकार के काम-काज से बिहार के लोग समझ गए हैं कि उन्हें आखिर क्या करना है !!  

सन्देश में आगे लिखते  हैं: “जीवन भर विरोधी ये कहते रहे कि लालू हंसी-मजाक करता है, संजीदा नहीं होता। मेरे बिहारवासियों मैं आज ये आपसे कहना चाहता हूं कि मैं जीवन भर अपने दिमाग से हर वो प्रयत्न संजीदा होकर करता रहा जो मेरे गरीब, दलित, शोषित, वंचित और पिछड़े भाइयों का हक़ दिलाएं उनके जीवन को ऊपर उठाएं, और दिल से मेरी यही कोशिश रही कि मेरे बिहारवासी हमेशा हंसते रहें, मुस्कुराते रहें। मेरी एक बात सुनकर जब सामने खड़े लाखों लोग हंस देते हैं तो विरोधियों के सारे आरोप और तमगे मुझे बेमानी लगने लगते हैं।”

लालू के सन्देश के एक पंक्ति को कुछ इस कदर देखते हैं। इस सदी में हंसना, हँसाना एक व्यवसाय हो गया है। आप लोगों को हंसाकर स्वयं लक्ष्मी समेटते गए, जैसे आजकल टीवी में  हंसने-हंसाने का सीरियल आता है – कपिल शर्मा शो। शर्माजी अपने शो में आने वाले सभी आगंतुकों को खुद से ‘कम’ ज्ञानी समझते हैं। अगर सामने से कोई कुछ सवाल पूछ दे, तो उनके पास दो ही विकल्प होता है – या तो उसे अपने जबाब से मुर्ख बना दें जिससे वह लज्जित होकर बैठ जाता है, या फिर हंसने का अंदाज बदल दें।  

अब उन्हें कौन बताये की लोग उन्हें संजीदा समझते थे, उनसे बहुत उम्मीदें भी थी, खासकर बिहार के निर्धनों का, गरीब-गुरबों को, समाज के उपेक्षितों का, उन सबों का जिन्होंने उन्हें प्रदेश का राजा बनाया।  लेकिन उन सबों का दुर्भाग्य रहा की “राजा सिर्फ, और सिर्फ अपना, अपने परिवार और परिजनों के बारे में ही सोचा। समयांतराल, परिजनों द्वारा विद्रोह इस बात का गवाह है  – यह सभी जानते हैं  वाले समय में पार्टी में दो-फांक भी हो सकती है । 

आगे लिखते हैं: “तेजस्वी से मैंने कहा कि तुम्हारी कच्ची उम्र में तुमने जो किया मुझे गर्व है तुम पर, पर तुम्हे तनिक भी रुकना नहीं हैं, तुम्हे अपनी ऊर्जा के साथ-साथ लालू की ऊर्जा से भी काम करना है, दोगुना करना है हर कार्य, जनसेवा का वचन यूं ही निभाते रहना है, दुःखी चेहरों पर मुस्कुराहट सजाते रहना है। यही मेरे जन्मदिन का सबसे बड़ा उपहार होगा।”

अब सवाल यह है कि तेजस्वी यादव पिता के “घिसे-पिटे” सोच को अपना “ईक्का” बनाएंगे या फिर कोई नयी सोच होगी। वैसे लोगबाग ही नहीं, राजनीतिक गलियारे  भी यह कहते नहीं थकते की प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है – लेकिन इसी ध्वस्त व्यवस्था में बिहार के बच्चे पढ़कर अब्बल आ रहे हैं। फिर वजह है की लालू  पुत्र-द्वय नवमीं कक्षा के बाद पढाई से खुद को दर-किनार कर लिया ?  क्या शिक्षा महत्व उनके नजर है? (क्रमशः……..) 

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