आप विश्वास नहीं करें, आपकी मर्जी। भारत में तक़रीबन 1,99,404.76 लोगों पर एक अदालत है। अदालतों में हम जिला अदालत से लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक मानते हैं। भारत में कुल 25 उच्च न्यायालय हैं और कुछ केंद्र शासित प्रदेशों का न्यायिक भार एक से अधिक उच्च न्यायालयों पर है। देश में तक़रीबन 672 जिला न्यायालय हैं और एक सर्वोच्च न्यायालय। यानी 698 न्यायालय।
देश की आवादी अगर हम 134 करोड़ माने तो इस संख्या के आधार पर और देश में उपलब्ध न्यायालयों की संख्या के आधार पर देश के कुल 199404.76 लोगों को न्यायिक न्याय दिलाने का भार एक न्यायालय पर है। देश में तक़रीबन 14 लाख ‘निबंधित’ सम्मानित अधिवक्तागण हैं। लेकिन दिल्ली में जिस कदर न्यायालय ‘सुरक्षा कवच’ के अधीन है, अथवा कुछ ख़ास प्रदेश के मुख्यालयों में स्थित न्यायालयों को जो ‘सुरक्षा-कवच’ के अधीन रखा गया हैं; को छोड़कर देश के अन्य न्यायालयों में उपलब्ध सुरक्षा व्यवस्था – एक शोध का विषय है, आप माने अथवा नहीं।
विगत दिनों रामप्रसाद बिस्मिल, अस्फाकुल्लाह खान, रोशन सिंह, प्रेम कृष्णा खन्ना, बनवारी लाल, हरगोविंद, इंद्रभूषण, जगदीश, बनारसी इत्यादि जैसे क्रांतिकारियों, जिन्होंने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए कुछ भी कर गुजरने को सज्ज थे, किये; उनके ही शहर शाहजहांपुर में एक 57-वर्षीय अधिवक्ता को ‘भूमि विवाद’ में अदालत के प्रांगण में ढ़िशूम-ढ़िशूम कर दिया गया। अधिवक्ता मृत्यु को प्राप्त किये।
मोहनदास करमचंद गाँधी के चम्पारण में, जहाँ से गाँधी भारत की आज़ादी और अंग्रेजी अफसरानों के अत्याचार के खिलाफ अपना आंदोलन प्रारम्भ किये थे, कुछ अपराधी किस्म के लोग अदालत परिसर में ही एक कर्मचारी को ठांय-ठांय कर मृत्यु को प्राप्त करा दिए।
इसी तरह पंजाब के सोलान के एक अदालत में एक कैदी को, जब उसे एक मुकदमें की सुनवाई के लिए अदालत में पेश किया जा रहा था, ढ़िशूम-ढ़िशूम कर दिया और वह वहीँ अंतिम सांस लिया। आपको याद भी होगा कि विगत दिनों दिल्ली के रोहिणी अदालत में दो दिल्ली पुलिसकर्मी सहित एक अधिवक्ता पर बेतहाशा गोलियों की बारिश की गयी। तीन व्यक्ति वहीँ मृत्यु को प्राप्त किये। तीन महिला विधवा हो गई। तीनों के बच्चे अनाथ हो गए। जब घटना घटी, सम्मानित न्यायमूर्ति अदालत में उपस्थित थे।
अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो किसी भी दिन आप एक या तो अपनी गाड़ी अथवा तीन-पहिया पर बैठकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ दिल्ली उच्च न्यायालय और दिल्ली के सभी सात जिला न्यायालयों – तीस हज़ारी, पटियाला हॉउस, करकरडूमा कोर्ट, रोहिणी कोर्ट, द्वारका कोर्ट, साकेत कोर्ट और राउज एवेन्यू कोर्ट का चक्कर लगाएं। आज दिल्ली स्थित अदालतों में चतुर्दिक दिल्ली पुलिस के सुरक्षा कर्मियों के साथ-साथ गृह मंत्रालय के अधीनस्थ वाली संस्थाओं के सुरक्ष कर्मी दीखते हैं। क्या ऐसी ही सुरक्षा व्यवस्था देश के अन्य जिला अदालतों में है?
एक और भी महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि अगर देश का न्यायिक व्यवस्था स्वयं सुरक्षा-कवच में है तो फिर देश के लोगों के साथ-साथ उन चार करोड़ सात लाख मुकदमों के ‘वादियों-प्रतिवादियों’ का क्या होगा जिनके मुकदमें मुद्दत से न्यायालयों में ‘लाल वस्त्रों’ में बंधे हैं ‘न्याय’ की प्रतीक्षा में ? वैसे, दिल्ली के रोहिणी अदालत की घटना के बाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय में, दिल्ली उच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया गया और न्यायालय से यह गुजारिश किया गया कि न्यायालयों में पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था हो। उचित है।
भारत सरकार के एक आंकड़े के अनुसार भारत के विभिन्न अदालतों में – सर्वोच्च न्यायालय से जिला न्यायालयों तक – कुल चार करोड़ सात लाख मुकदमें लाल रंग के वस्त्रों में बंधे हैं। इसमें तक़रीबन 87.4 फीसदी सबॉर्डिनेट कोर्ट्स में लंबित हैं। करीब 12.4 फीसदी उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। इसी तरह कुल 71,411 मुकदमें देश के सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों में कुल 56,365 सीविल मुकदमें हैं और 15,076 आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। इतना ही नहीं, करीब 10,491 लंबित मुकदमें ‘डिस्पोजल’ के लिए दशकों के पड़े हैं।
इसी तरह देश के सभी 25 उच्च न्यायालयों में कुल 59,55,907 मुकदमें, जिसमें 42,99,954 सिविल मुकदमे हैं और 16,55,953 आपराधिक मुकदमे हैं। कई मुकदमे ऐसे हैं जिसमें “आदेश” नहीं लिखा गया है और “लंबित” हैं।
न्यायिक व्यवस्था से जब भी आवाज उठती है सरकार अपना पल्लू झाड़ने की कोशिश करती है। अगर न्यायिक व्यवस्था यह कहती है कि अन्य कई कारणों के अलावे न्यायमूर्तियों की कमी के कारण अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है, सरकार तुरंत कहती है: “मैंने सर्वोच्च न्यायालय में 46 न्यायमूर्तियों को नियुक्त किये, उच्च न्यायालयों में 769 न्यायधीशों की नियुक्ति किये और 619 अतिरिक्त न्यायमूर्तियों को पदोन्नति दिए, उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की सख्या बढ़ा दिए हैं, नीचली अदालतों में भी न्यायधीशों की संख्या 24,613 कर दिए, सेंट्रली स्पॉन्सर्ड स्कीमों के निष्पादन के लिए अब तक 9013. 21 करोड़ रुपये आवंटित किये … इत्यादि-इत्यादि।”
लेकिन कभी किसी भी न्यायालयों से सम्बंधित कार्यकारिणी के सम्मानित लोग, निजी तौर पर देश की न्यायिक व्यवस्था को किस कदर वादी-प्रतिवादी के बीच ‘फ्रेंडली’ बनाया जाय, अपने-अपने कक्षों से बाहर निकलकर देश के न्यायालयों में आये, शायद नहीं।
वैसी स्थिति में आखिर सम्मानित न्यायमूर्ति, सम्मानित न्यायाधीश, सम्मानित अधिवक्तागण क्या कर सकते हैं ?
दिल्ली में तो सिर्फ 9 अदालत है, शेष दिल्ली के बाहर है और यह पक्का है कि जिस कदर की सुरक्षा कवच दिल्ली के न्यायालयों में हैं, वैसी व्यवस्था देश के किसी भी उच्च न्यायालय अथवा जिला न्यायालयों के सम्मानित न्यायाधीशों को, सम्मानित न्यायमूर्तियों को, सम्मानित अधिवक्ताओं को नहीं मिली होगी। वादी-प्रतिवादी और उनके अधिवक्ताओं की बात तो सोच भी नही सकते।