बड़े दिनों के बाद, दिल्ली वालों को याद – पार्टी की मिट्टी आई है – चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आयी है

भारतीय डाक की यह पत्र पेटी गवाह है कि दिल्ली सल्तनत में सत्ता बदल गई है

भारत की आज़ादी के 39वें, गणतंत्र राष्ट्र घोषित होने के 36 वर्ष बाद और श्रीमती इंदिरागांधी की मृत्यु के दो बाद बाद सलीम खान की कहानी पर एक सिनेमा भारत के छवि गृहों में आया था। नाम था “नाम”, जिसका निर्देशन किये थे महेश भट्ट और उस सिनेमा में संगीत दिए थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल।  

उसी सिनेमा में पंकज उधास का एक गीत ‘बड़े दिनों के बाद, हम बेवतनो को याद, वतन की मिटटी आई है – चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आयी है – चिट्ठी है वतन से चिट्ठी आयी है” था। यह गीत आज भी जब भारत के लोग, या फिर संगीत की दुनिया में सांस लेने वाले सुनते हैं, तो कान से जाने वाली आवाज आँखों से अश्रुधारा बनकर जमीन पर गिरती ही हैं, जमीन को सींचती है – आप माने अथवा नहीं।

कल अपराह्न काल जब विश्व पुस्तक मेला में चहलकदमी कर रहा था, उसी वक्त लोकसभा के अध्यक्ष श्री ओम बिरला साहब का आगमन हुआ। जिस स्थान पर वे किसी किताब का लोकार्पण करने पहुंचे थे, सामने अशोक स्तम्भ का एक प्रतिकृति के साथ साथ भारत के संविधान का एक प्रतिकृति शीशे के अंदर रखा था। सामने एक छोटा सा गोलाकार मंच बना था जिसके साथ मोबाईल फोन लगाकर ‘सेल्फी’ लेने की व्यवस्था थी। 

पुरुष तो कम दिखे, लेकिन विभिन्न प्रकार के वस्त्रों में महिलाएं, बालिकाएं उस गोलाकार मंच पर दो-तीन सखियों के साथ खड़ी होकर, अपने मोबाईल को उस मोबाईल स्तम्भ में लगाकर घुमा देती थी। उनके वस्त्रों को देखकर यह भी अनुमान लगाया जा रहा था की ‘गर्मी दस्तक दे चुकी है।” उस मंच पर खड़ी होने वाली महिलाएं, बालिकाएं, कुछ हंसती भी थी।  कुछ हंसने में भी परहेज करती थी। 

उधर श्री ओम बिरला साहब हँसते-मुस्कुराते मंच की ओर कदम बढ़ा रहे थे। अब तक यकीन हो गया था की दिल्ली सल्तनत में सत्ता बदलने वाली है। वैसे श्री बिरला साहब दर्जनों लेखकों और प्रकाशकों के बीच थे, स्वाभाविक है कि लेखक, पत्रकार सभी किताब लिखने की भी बात सोचने लगे होंगे, ताकि अगले वर्ष की मेला में उसे लोकार्पित किया जाय। खैर। 

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अपरान्ह का कोई तीन बज गया था और दिल्ली सल्तनत का राजनीतिक भाग्य बदल गया था। दिल्ली 13 साल पुराने रिश्ते को “तलाक-तलाक-तलाक” कर नए रिश्ते के लिए हामी भर चुकी थी। इतिहासकार सल्तनत-ए-दिल्ली की व्याख्या अलग तरीके से करेंगे, कहते हैं मुग़ल के आगमन के पहले सल्तनत-ए-दिल्ली पर गुलाम वंश, ख़िलजी वंश, तुग़लक़ वंश, शैयद वंश और लोदी वंश शाशन किये थे। 1526 में मुग़ल सल्तनत के स्थापना के साथ उन साम्राज्यों का अंत हुआ। खैर। 

1951 में दिल्ली विधानसभा के गठन के साथ दिल्ली का राजनीतिक इतिहास काफी उतार-चढ़ाव से भरा रहा। 1952 में पहले चुनाव होने के बाद ब्रह्म प्रकाश दुबे दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने। लेकिन कुछ समय के बाद दिल्ली में विधानसभा को भंग हो गया केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया और उपराज्यपाल के रूप में दिल्ली की सत्ता केंद्र के हाथों आ गई। कुछ समय तक केंद्र शासित प्रदेश बने रहने के बाद, दिल्ली की जनता की मांग के आधार पर पुनः 1991 में दिल्ली में विधानसभा की स्थापना की गयी। परिसीमन के बाद 1993 में एक बार फिर चुनावों का आयोजन किया गया। जिसमें भाजपा 49 सीटें जीती थी, वहीं कांग्रेस को 14 सीटें मिली थी और 4 सीटों के साथ जनता दल, जो तीसरी पार्टी के रूप में आयी थी। भाजपा के मदन लाल खुराना नए मुख्यमंत्री बने। 

मदन लाल खुराना के इस्तीफा देने के बाद भाजपा के ही साहिब सिंह वर्मा को नया मुख्यमंत्री बने। जैन हवाला डायरी कांड में सर्वोच्च न्यायालय से क्लीन चिट मिल जाने के बाद भाजपा के कई बड़े नेता और कार्यकर्ताओं खुराना को दोबारा से मुख्यमंत्री बनाने के पक्षधर थे, लेकिन वे सत्ता में वापस नहीं हो पाए। प्रदेश की राजनीति बदल रही थी। नेपथ्य में पृष्ठभूमि भी बदल रहा था। अगले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा साहिब सिंह वर्मा को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर सुषमा स्वराज कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री बनी। 

उधर, कांग्रेस की दिल्ली की सत्ता में शुरुआत 1998 के विधानसभा चुनाव से हुई जब कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में लड़े चुनाव में जीत हासिल करके भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था और शीला दीक्षित खुद दिल्ली की नई मुख्यमंत्री बनी थी। 1998 से 2013 तक लगातार तीन कार्यकाल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कार्य किया। उनकी सरकार पर कई आरोप भी लगे जैसे 2010 में उनके नेतृत्व में दिल्ली में आयोजित हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार संबंधित कई आरोप लगे। जिसकी वजह से उन्हें 2013 के विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा और फिर विराजमान हुए आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल। जब उन पर भी दाग लगा तो आ गयी श्रीमती आतिशी। 1993 से 2025 तक देश की राजधानी दिल्ली ने आठ विधानसभा चुनाव देखे हैं। 

दिल्ली सल्तनत के लिए यह एक तरह से दुर्भाग्य भी है कि जिस दिल्ली में कभी मदनलाल खुराना और दिल्ली एक दूसरे के पर्यायवाची थे, उसी दिल्ली में आज मदन लाल खुराना के छोटे पुत्र को (बड़े पुत्र तो मृत्यु को प्राप्त किये) भाजपा की राजनीति में वह स्थान नहीं मिला, और वे ‘गलियारे’ में ही ‘गुम’ हो गए। 

चर्चाएं आम हैं कि मदन लाल खुराना से मुख्यमंत्री कार्यालय का भार लेने वाले साहब सिंह वर्मा के पुत्र प्रवेश वर्मा को गद्दी का भार मिले। एक बात तो है कि प्रवेश वर्मा अरविंद केजरीवाल को हराये भी और सत्ता से बाहर भी किये। वैसी स्थिति में उनका दावा हो सकता है। लकड़ा जाट वाले  मुंडका गाँव में जन्म लिए साहब सिंह वर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय के भगत सिंह कालेज में पुस्तकालयाध्यक्ष थे और वहीँ से दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा किया था। 

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अगर प्रवेश वर्मा को दिल्ली मुख्यमंत्री कार्यालय में स्थापित किया जाता है तो दिल्ली के बनने के बाद शायद यह पहला अवसर होगा जब एक पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) का पुत्र मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान होगा। यह ख़ुशी की बात है। लेकिन भाजपा की राजनीति को समझना समझ से परे है। अंतकाल में कौन आला-कमान को पसन्द आ जायेगा, यह कहाँ कठिन है। वैसे मुख्यमंत्री बनने के दावेदार अनेकानेक हैं, जिसमें अक्टूबर-दिसंबर, 1998 में मुख्यमंत्री रहीं सुषमा स्वराज की बेटी सुश्री बांसुरी स्वराज का भी नाम उछल-कूद रहा है। 

इससे पहले झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन अपने प्रदेश झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने थे। झारखंड की भांति उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, हरियाणा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि कुछ ऐसे राज्य हैं जहां राजनीति के वंशवादी चरित्र को सफलतापूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है। मुलायम सिंह यादव तीन बार (1989,1993, 2003 ) उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और उनका बेटा अखिलेश यादव एक बार (2012) बने। ओडिशा में बीजू पटनायक (1990) में एक बार और उनके बेटे नवीन पटनायक पांच बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए। 

जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला दो बार मुख्यमंत्री थे। फिर उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला तीन बार और उनके भी बेटे उमर अब्दुल्ला भी एक बार मुख्यमंत्री बने। हरियाणा में देवी लाल  दो बार मुख्यमंत्री रहे। उनका पुत्र ओमप्रकाश चौटाला पांच बार मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे। अगली पीढ़ी भी जारी है। इसी तरह कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा एक बार मुख्यमंत्री बने तो उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी दो बार मुख्यमंत्री रहे। महाराष्ट्र में शंकरराव चव्हाण और उनके पुत्र अशोक चव्हाण दो दो बार मुख्यमंत्री रहे। 

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मेघालय में संगमा पिता पुत्र – पीए संगमा और कोनराड संगमा दोनों एक एक बार सीएम बने। मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के बाद उनके पुत्र श्यामाचरण शुक्ला दो बार मुख्यमंत्री बने। आंध्रप्रदेश में बड़े नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी एक बार  (2004) तो उनके पुत्र आज की तारीख में वहां के मुख्यमंत्री हैं। अरुणाचल प्रदेश में आज के मुख्यमंत्री पेमा खांडू को भी उनके पिता दोरजी खांडू से सत्ता मिली। 

यह सभी बातें विश्व पुस्तक मेला में लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला साहब जहाँ किता का लोकार्पण किये थे, उससे कोई सौ कदम पहले के कक्ष में भारतीय डाक के इस पत्र पेटी और उसके बगल में आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह देखकर सबसे पहले पंकज उधास का वह गीत का मुखड़ा लबों पर आया और मन ही मन गुनगुनाने लगा – चिठ्ठी आयी है आई है चिट्ठी आयी है – चुनाव आयोग से चिठ्ठी आयी है – बड़े दिनों के बाद दिल्ली वालों को याद अपनी पार्टी का नाम आयी है – चिट्ठी आयी है।”

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