बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर ‘कोई शरीर से पार्थिव’ है तो कोई ‘आत्मा’ से; लेकिन वसूली भाई का व्यापार चल रहा है 

बनारस का हरिश्चंद्र घाट 
बनारस का हरिश्चंद्र घाट 

बनारस: यह जानते हुए कि बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर सड़क की अंतिम छोड़ से गंगा तट पर बने दाह-संस्कार वाला शय्या की दूरी “शरीर से पार्थिव’ और ‘शरीर से जीवित लेकिन ‘आत्मा से पार्थिव’ दोनों शरीरों के लिए कुल 24 – कदम ही है, विश्वास नहीं हो तो जीवित शरीर से ही गिनती कर लें। लेकिन यहाँ आज-कल दूसरे श्रेणी के लोग, पहले श्रेणी के परिवार और परिजनों को लूटने में कोई कोताही नहीं कर रहे हैं। कभी इस घाट पर ‘सत्यता’ का कसम खाये थे राजा हरिश्चन्द्र; आज “निर्लज्जता का कसम खाये हैं कन्धा देने वाले भाड़े के लोग” – तभी तो “रामचन्द्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा – हंस चुगेगा दाना ओर कौआ मोती खायेगा?”

हंस इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी प्राणियों में, पक्षियों में सबसे अधिक वफादार होता है। वैसे इसके शरीर पर 25,000 से अभी अधिक पंख होते हैं और उसकी याददाश्त किसी भी पक्षियों की तुलना में सबसे अधिक होता है। लेकिन यह कलयुग है बाबू। यहाँ हंस, जिसे भारत में लोग-बाग़ माँ सरस्वती का वाहन भी मानते हैं, उसके वफ़ादारी को भी स्वहित में नेश्तोनाबूद कर देते हैं। 

वजह भी है – भारत में पढ़े-लिखे लोग तो घर में रहते हैं और दवंग, अनपढ़, अशिक्षित बाजार को – चाहे आर्थिक हो, राजनीतिक हो, सांस्कृतिक हो, बौद्धिक हो – निर्धारित करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आज भारत की सांस्कृतिक शहर में, महादेव-सती की नगरी में, स्वतंत्र भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र दामोदर मोदी के संसदीय क्षेत्र में “पार्थिव शरीरों को कन्धा देने के लिए भी ”वसूली-भाइयों का साम्राज्य” स्थापित नहीं हो जाता। आज मैसूर घाट और गंगा घाट के बीच स्थित गंगा किनारे का वह घाट, जहाँ कालू डोम ने राजा हरिश्चंद्र को ख़रीदा था और घाट पर दाह-संस्कार करने वालों से “कर-वसूलने” का कार्य सौंपा था – आज फिर इस घाट पर स्थानीय लोग जो कर रहे हैं, एक दृष्टि से अगर ‘सहज’ भी है तो दूसरे दृष्टि से अमानवीय भी है।  

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इस घाट का इतिहास राजा हरिश्चंद्र से जुड़ा है। भगवान राम भी राजा हरिश्चंद्र के रघुकुल में जन्मे थे। राजा हरिश्चंद्र के बेटे की मृत्यु के बाद उन्हें अपने पुत्र के दाह संस्कार के लिए डोम से आज्ञा मांगी थी जिसके यहां पर उन्होंने एक वचन के अनुसार नौकरी की थी। तब बिना दान के दाह संस्कार मान्य नहीं था इसलिए राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी की साड़ी का एक टुकड़ा दान में देकर अपने पुत्र का दाह संस्कार किया था। आज की स्थिति को देखकर जब माता तारामती, उनकी गोद में उनके पुत्र रोहताश्व का पार्थिव शरीर और दाह-संस्कार के लिए ‘कर-वसूलते पिता’ को दृष्टि के सामने लाता हूँ तो लगता है कि ‘सतयुग’ और ‘कलयुग’ में शायद यही अंतर है। 

सतयुग में एक माँ जब कर चुकाने के लिए, ताकि उसके पुत्र के पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द किया जा सके, अपनी ‘आँचल को फाड़ती है’ तो 24 करोड़ हिन्दू संप्रदाय के अधिष्ठाता सम्पूर्ण ब्राह्मण में अवतरित हो जाते हैं – इस निःसहाय माँ की मदद करने, पृथ्वी पर अनर्थ न हो जाय, रोकने के लिए – परन्तु आज उसी हरिश्चंद्र घाट पर महज कंधे देने के लिए हज़ारों-हज़ार रूपये वसूले जा रहे हैं उन परिवारों से जो इस कोरोना महामारी के कारण अपने – अपने माता-पिता, पति-पत्नी – भाई – बहन – सास – ससुर, परिवार, परिजनों के हँसते-मुस्कुराते शरीर को पार्थिव होते देखा है। किसी तरह बनारस के दो घाटों – हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट प्रवेश करने वाली गलियों के नुक्कड़ तक ढ़ोकर लाया है – लेकिन घाट तक पहुँचने के लिए उनके पास चार कंधे नहीं है। जो हैं वे सभी “व्यापारी” हैं अथवा “राजा हरिश्चंद्र जैसा किसी शपथ से बंधे हैं” ताकि मृतकों के परिवारों से, परिजनों से “अपनी-अपनी इक्षानुसार द्रव्य वसूल कर सकें।”  

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अनेकानेक रिपोर्ट लिखे जा रहे हैं वाराणसी के श्मशान घाटों पर बढ़ती गहमागहमी पर । घाटों पर लाशें जलाने का क्रम टूट नहीं रहा है। अंतिम संस्कार के लिए पहुंचने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की हैं जो कोरोना से जान गंवाने वाले अपनी करीबियों का दाह-संस्कार कराने के लिए पहुंच रहे हैं। सूत्रों के अनुसार हरिश्चंद्र घाट पर अंतिम संस्कार के लिए पहुंचने वाले लोगों को शव जलाने के लिए भरी दुपहरी में घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। लोगों की परेशानी इतनी भर नहीं है। यहां दाह संस्कार कराने के लिए उनसे भारी-भरकम राशि की मांग की जा रही है। 

टाईम्स ऑफ़ इण्डिया के एक रिपोर्ट के मुताबिक लहरतारा में एक डिपार्टमेंडल स्टोर चलाने वाले राजेश सिंह (35) के चाचा की मौत कोविड-19 की वजह से हुई। राजेश अपने चाचा के दाह-संस्कार के लिए हरिश्चंद्र घाट पहुंचे थे। उन्होंने बताया कि अंतिम संस्कार के लिए घाट पर उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ा। सिंह का कहना है कि घाट के ‘प्रबंधक’ ने उनसे 11,000 रुपए की मांग की और जब उन्होंने इसका विरोध किया तो ‘प्रबंधक’ ने उनसे लाश वहां से ले जाने के लिए कहा। सिंह का कहना है कि दाह संस्कार के लिए लकड़ी और सामग्री की कीमत 5000 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए। 

रिपोर्ट के मुताबिक घाटों पर पीड़ितों से ज्यादा पैसे वसूलने की यह पहली घटना नहीं है। इन दिनों उत्तर प्रदेश के ज्यादातर श्मशान घाटों का यही हाल है। कोरोना की वजह से अपने प्रियजनों को खोने वाले लोगों से घाटों पर जरूरत से ज्यादा पैसे लिए जा रहे हैं। शव जलाने के लिए लोगों को पैसे देने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है। घाटों पर शवों के ढेर को देखते हुए मोलभाव करने के लिए लोगों के पास न तो समय और न धैर्य। विगत दिनों यहां करीब 300 शवों का अंतिम संस्कार हुआ। लकड़ी से ही 280 अधिक संस्कार होने के कारण दूर तक चिता ही दिखाई दे रही थी। यही नहीं जगह न होने से शवों को लेकर पहुंचे परिजनों को पांच से सात घंटे तक इंतजार करना पड़ा। चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल रहा।

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सूत्रों के अनुसार, कोरोना से मृत लोगों का अंतिम संस्कार हरिश्चंद्र घाट पर ही किया जा रहा है। यहां सीएनजी से भी शवदाह की सुविधा है। वाराणसी के अलावा अन्य जनपदों के लोग भी शव लेकर दाह संस्कार के लिए पहुंच रहे हैं। इसका कारण सीएनजी से संस्कार में कम खर्च तो है ही वहीं वाहनों की घाट तक सुगम पहुंच भी है। बुधवार को सीएनजी शवदाह गृह के दोनों चैंबर खराब हो गए। इससे स्थिति भयावह हो गई। लोग लकड़ियों से संस्कार करने पर विवश हो गए। इसके कारण घाट पर दूर तक चिताएं ही सजी रहीं। वह भी एक-दूसरे के करीब। इसके अलावा कई लोग शवों को लेकर इंतजार करते रहे।  

कहा जा रहा है कि लगातार शवदाह से दोपहर करीब दो बजे सीएनजी शवदाह गृह के एक चैंबर को गर्म होने के कारण बंद किया गया। थोड़ी देर बाद जब दोबारा चालू हुआ तो एक शव के संस्कार के बाद वह खुद से बंद हो गया। कई शवों का लकड़ियों की चिता पर दाह संस्कार करने के कारण महाश्मशान पर शाम करीब सात बजे लकड़ियों की कमी हो गई।बहरहाल, काशी शिव का नगरी है। सती का नगरी है। भूत-प्रेत-पचासों का नगरी है। मोक्ष का नगरी है। संसार में त्रादसी को देखकर “मानवीय देवगण” तो बनारस की गलियों सहित लखनऊ और दिल्ली में गुम हो गए हैं; अब महादेव और महाशक्ति ही कुछ करें तो मानव का कल्याण हो पायेगा क्योंकि जहाँ वसूली-भाई पार्थिव शरीर के परिवार और परिजनों से “वसूल” रहे हैं वहां से गंगा-तट की दूरी जीवित और पार्थिव शरीरों के लिए बराबर है। 

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