रविशंकर बाबू !!! इतना ‘एरोगेंसी’ सरकार के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं है, शीर्ष अदालत को बताएं, ‘समझाएं’ नहीं 

केंद्र ने 200 पृष्ठ के शपथपत्र में कहा, ‘‘विशेषज्ञों की सलाह या प्रशासनिक अनुभव के अभाव में अत्यधिक न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं, भले ही यह हस्तक्षेप नेकनीयत से किया गया हो।

नई दिल्ली : अगर सच पूछिए तो केंद्र सरकार द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 200 पन्नों का शपथ पत्र एक तरह से कोरोना वायरस के संक्रमण के रोकथाम से सम्बंधित केंद्र सरकार द्वारा लिए जा रहे कदमों को बताता हैं, वहीँ ‘अप्रत्यक्ष रूप से देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्था को ‘बता” भी रही है कि सरकार के कार्यों में अधिक टांग नहीं अड़ाएं। शपथ पत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि न्यायिक व्यवस्था को राज्य सरकारों और टीका विनिर्माताओं के काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। साथ ही, टीकों की खुराकों की सीमित उपलब्धता के कारण पूरे देश का एक बार में टीकाकरण संभव नहीं है। इतना “एरोगेंसी” सरकार और स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं है। 

सवाल यह है कि शपथ पत्र की भाषा किनकी है ? केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद की या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की? नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में बिहार वाले रवि शंकर प्रसाद न केवल संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी विभागों की कुर्सी संभाले हुए हैं; बल्कि देश की कानून और न्याय मंत्रालय के भी वर्तमान अधिष्ठाता है। रवि शंकर प्रसाद भारत के उच्चतम न्‍यायालय में एक वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता भी हैं। चूंकि अभी मंत्रालय में हैं, सरकार का हिस्सा हैं, इसलिए न्यायालय में वकालत नहीं करते। जिस दिन सरकार और सरकारी कार्यों से छुट्टी मिलेगी, पुनः शीर्ष अदालत में अपने क्लाइंटों के लिए उपस्थित होने लगेंगे। 

अब सवाल यह है कि कोरोना वायरस संक्रमण की रोकथाम और सरकार द्वारा की जाने वाली पहल से सम्बंधित 200 पृष्ठों का यह शपथ पत्र की भाषा किनकी है? शब्दों का चयन, वाक्यों का विन्यास किनका है? आम तौर पर किसी भी संवेदनशील मामलों में सरकार द्वारा, चाहे केंद्र की सरकार हो अथवा राज्यों की सरकारें, न्यायालयों में दिया जाने वाला शपथ पत्र में विधि मंत्रालय, मंत्री, और मुख्य मंत्रियों का सहयोग होता ही है। वैसी स्थिति में वर्तमान 200 पृष्ठों के इस शपथ पत्र को केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा निर्मित समझा जाय ? साथ ही, यह भी समझा जाय कि इस शपथ पत्र को न्यायालय में प्रस्तुत करने से पूर्व प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अवश्य देखे होंगे, काट-छाँट किये होंगे, अनुशंसित/अनुमोदित किये होंगे ? 

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यह बात भी सर्वविदित है कि रविशंकर प्रसाद प्रधान मंत्री के “नीली आँख वाले बच्चों” (ब्लू-आइड बॉय) में एक हैं तभी तो उन सभी मंत्रालयों के मालिक हैं जहाँ सरकार, उसकी नीतियों, क्रिया-कलापों के विरुद्ध जाने वाले किसी भी संस्था जो सूचना-प्रसारण, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी विभागों के अधीन आते हैं, उसके “टेंटुआ को पकड़कर कसा जा सके।” दो और अधिक खेमों में बंटे बेंच और बार में रविशंकर प्रसाद इसलिए भी ‘चर्चित’ रहे हैं क्योंकि इन्होने उच्‍च न्‍यायपालिका में नियुक्तियों में सुधार की बात कही, जिसके परिणामस्‍वरूप राष्‍ट्रीय न्‍यायिक नियुक्ति आयोग का अधिनियमन हुआ, जो पिछले 20 वर्षों से अधिक समय से लंबित था।

ये हैं रविशंकर प्रसाद जी। प्रधान मंत्री के “ब्लू-आइड बॉय”, इन्हे “गुस्सा अधिक आता है” – फोटो: पीटीआई के सौजन्य से 

अपने शपथ पत्र में सरकार जिस तरह से शब्दों का विन्यास किया है, शब्दों का अलंकरण किया है, ऐसा प्रतीत होता है कि वह शीर्ष अदालत को ‘बता नहीं रही है’, बल्कि ‘समझा रही है’ और यह भी समझा रही है कि ‘सरकार को अपना काम करने दें और आप अपना काम करें। सरकारी कार्यों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करें। क्योंकि केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि उसने कोविड-19 से निपटने के लिए ‘‘न्यायसंगत और भेदभाव रहित’’ टीकाकरण रणनीति तैयार की है और किसी भी प्रकार के ‘‘अत्यधिक’’न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं। केंद्र ने शीर्ष अदालत की ओर से उठाए गए कुछ बिंदुओं का जवाब देते हुए एक शपथ पत्र दायर किया है। इस शपथ पत्र में केंद्र ने कहा है कि वैश्विक महामारी के अचानक तेजी से फैलने और टीकों की खुराकों की सीमित उपलब्धता के कारण पूरे देश का एक बार में टीकाकरण संभव नहीं है।

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न्यायालय ने कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान आवश्यक सामग्रियों एवं सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के संबंध में स्वत: संज्ञान लिया था और इसी मामले में केंद्र ने यह शपथ पत्र दाखिल किया है। केंद्र सरकार ने कहा कि टीकाकरण नीति अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के जनादेश के अनुरूप है और इसे विशेषज्ञों के साथ कई दौर की वार्ता और विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया है। उसने कहा कि राज्य सरकारों एवं टीका विनिर्माताओं के काम में शीर्ष अदालत को कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

केंद्र ने 200 पृष्ठ के शपथपत्र में कहा, ‘‘विशेषज्ञों की सलाह या प्रशासनिक अनुभव के अभाव में अत्यधिक न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं, भले ही यह हस्तक्षेप नेकनीयत से किया गया हो। इसके कारण चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों एवं कार्यपालिका के पास इस मामले पर नवोन्मेषी समाधान खोजने के लिए खास गुंजाइश नहीं बचेगी।’’ उसने कहा, ‘‘कार्यकारी नीति के रूप में जिन अप्रत्याशित एवं विशेष परिस्थितियों में टीकाकरण मुहिम शुरू की गई है, उसे देखते हुए कार्यपालिका पर भरोसा किया जाना चाहिए।’’

केंद्र ने कहा कि टीकों की कीमत संबंधी कारक का अंतिम लाभार्थी यानी टीकाकरण के लिए पात्र व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि सभी राज्य सरकारों ने पहले ही अपनी नीति संबंधी घोषणा कर दी है कि हर राज्य अपने निवासियों का नि:शुल्क टीकाकरण करेगा। उसने कहा कि न्यायालय ने अपने कई फैसलों में कार्यकारी नीतियों की न्यायिक समीक्षा के लिए मापदंड बनाए हैं और इन नीतियों के मनमाना प्रतीत होने पर ही इन्हें खारिज किया जा सकता है या हस्तक्षेप किया जा सकता है। इसी कारण कार्यपालिका को संवैधानिक जनादेश के अनुसार काम करने के लिए पर्याप्त आजादी मिलती है।

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टीकों एवं दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए पेटेंट कानून के तहत अनिवार्य लाइसेंस प्रावधान को लागू करने के मामले पर सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि मुख्य बाधा कच्चे माल एवं आवश्यक सामग्री की उपलब्धता से जुड़ी है और इसलिए कोई भी और अनुमति या लाइसेंस को लागू करने से तत्काल उत्पादन संभवत: नहीं बढ़ेगा। शपथपत्र में कहा गया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय उत्पादन और आयात बढ़ाकर रेमडेसिविर की उपलब्धता बढ़ाने के हर प्रयास कर रहा है। 

उसने कहा, ‘‘हालांकि, कच्चे माल और अन्य आवश्यक सामग्रियों की उपलब्धता में मौजूदा बाधाओं के मद्देनजर केवल उत्पादन क्षमता बढ़ाने से आपूर्ति बढ़ाने संबंधी इच्छित परिणाम नहीं मिल सकते।’’ केंद्र ने कहा, ‘‘पेटेंट कानून 1970 , ट्रिप्स समझौते और दोहा घोषणा के साथ पढ़ा जाए, के तहत या फिर किसी अन्य तरीके से कानूनी शक्तियां इस्तेमाल करने से इस चरण पर केवल नुकसान होगा। केंद्र सरकार भारत के सर्वश्रेष्ठ हित में समाधान खोजने के लिए राजनयिक स्तर पर वैश्विक संगठनों से संवाद कर रही है।’’

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