प्रधान मंत्री ने भले ही चीन का नाम न लिया लेकिन उनकी 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के साथ ही आत्मनिर्भर भारत और वोकल फ़ॉर लोकल का नारा चीन समेत पूरी दुनिया में भारत को नए ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के इरादे का संकेत स्पष्ट रूप से देता है। चीन जो पहले से ऐसी आशंका से जूझ रहा था, जाहिर है प्रधान मंत्री के आज के संबोधन के बाद और सतर्क होकर आगे की रणनीति तय करेगा।
कोरोना पर जानकारियां छिपाने से लेकर कोरोना संक्रमण फैलाने तक के आरोप चीन पर लगातार लगाए जा रहे हैं। चीन ने अपने तरीके से इसका विरोध किया है। अभी भी पूरी दुनिया चीन के ही उत्पादों पर निर्भर है और चीन पूरी कोशिश करेगा कि वो इस निर्भरता को बनाये रखे।
कोरोना से निपटने के लिए पूरी दुनिया में तमाम तरह की मेडिकल सप्लाई प्रमुख रूप से चीन से ही भेजी जा रही है। इसी बहाने चीन इन सामानों की मनचाही कीमत वसूल रहा है और तमाम मामलों में घटिया माल की आपूर्त्ति की शिकायतें दुनिया भर से सामने आई हैं। चीन वैश्विक बाज़ार में अपनी धमक बनाये रखने के लिए किसी भी स्थिति तक जा सकता है क्योंकि ये उसके लिए वर्चस्व की लड़ाई होगी। जरूरत पड़ी तो चीन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन भी कर सकता है ताकि उसके उत्पाद दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा सस्ते हो जाएं ताकि लोग उन्हें खरीदने में प्राथमिकता दें।
प्रधान मंत्री की सोच बेहतर है इससे इनकार नहीं लेकिन सरकारी नियमों के पेंच, अफसरशाही, राज्यों के नखरे, राजनीतिक चालबाजियां, भ्रष्टाचार, भूमि अधिग्रहण की तमाम परेशानियां, बेवजह के विरोध-आंदोलन, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, भारत में चल रही सामाजिक अस्थिरता, पेट्रोलियम की बढ़ाई गई कीमतों के कारण माल ढुलाई का महंगा होना, रुपये की अस्थिरता… जैसे तमाम विषय ऐसे हैं जिनकी वजह से किसी बाहरी व्यक्ति या कंपनी द्वारा भारत में कोई उद्यम लगाना बहुत जोखिम के तौर पर देखा जाता है।
हालांकि, इससे पहले प्रधान मंत्री का मेक इन इंडिया का अभियान बुरी तरह असफल हुआ है लेकिन ऐसा लगता है कि अब बदलते वैश्विक परिदृश्य और चुनौतियों को देखते हुए इसी मुहिम को वो दूसरे रूप में चलाना चाहते हैं। ये भी स्वदेशी अपनाओ के साथ दुनिया के लिए जरूरी चीजें देश में ही बनाओ (मेक इन इंडिया) का एक सम्मिश्रण है, जो अगर एक न्यूनतम सीमा तक भी सफल हो सका तो इसका फायदा दूरगामी होगा।
ये उम्मीद भी जरूर जगी है कि कोरोना की लड़ाई से मुक्त होने पर पूरी दुनिया के अधिसंख्य विकसित देश चीन पर अपनी निर्भरता को क्रमशः घटाने की पूरी कोशिश करेंगे। हालांकि, इसे पूरी तरह और एकाएक समाप्त करना संभव नहीं क्योंकि चीन में जितने बड़े पैमाने पर सारे उद्योग स्थापित किये गए हैं, उनको बन्द करके सीधा किसी नई जगह फिर से स्थापित करना बहुत ही खर्चीला, समय लगने वाला और नुकसान से भरा सौदा है।
शुरुआत में छोटी जरूरतों वाले उद्योग, स्पेयर पार्ट्स, एक्सेसरीज जैसी इकाइयां ही बाहर लगाई जा सकेंगी। सरकारों की तरफ से आर्थिक सहायता पैकेज और छूट मिलने पर ही बड़ी इकाइयां लगाई जा सकती हैं।
लेकिन फिलहाल इसका फ़ायदा दक्षिण कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों को ही ज्यादा मिलता दिखाई दे रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह कि इन देशों में पहले से ही बेहतर आधारभूत संरचनाएं मौजूद हैं। चीन में स्थित बड़े औद्योगिक केंद्रों से उत्पाद मंगाना या वहां भेजना ज्यादा अनुकूल है और साथ ही वहां औद्योगिक क्षेत्रों का सुसंगत तरीके से किया निर्माण और आसान सरकारी प्रक्रियाएं आकर्षक हैं।
साथ ही, इस कड़ी में एक और बड़ी परेशानी जो सामने आ सकती है वो बड़े पैमाने पर प्रदूषण और पर्यावरण के नुकसान से जुड़ी बात है। चीन पहले से ही इससे प्रभावित है और भारत में भी अब ये चुनौती बहुत बड़ी मुसीबत बन चुकी है। इसलिये, ऐसे गंभीर विषय को ध्यान में न रखना भारी भूल साबित हो सकती है, जिसकी भरपाई करना संभव नहीं होगा।
भारत का सकारात्मक पक्ष यह है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और कुछ ही सालों में दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश भी बन जायेगा। यहां की श्रम शक्ति भी संभावनाओं से भरी हुई है। ये वो बिन्दु हैं, जो भारत को दुनिया की नज़र में मजबूत बनाते हैं।
ऐसे में बदलते समीकरणों को यदि भारत अपने पक्ष में भुना पाए तो ये बहुत ही बड़ी उपलब्धि होगी लेकिन इस रास्ते में चुनौतियां काफी ज्यादा हैं, जिनसे निपटना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। सबसे बड़ा डर इस बात का है कि कहीं प्रधान मंत्री का यह संकल्प भी उनकी पहले की घोषणाओं की तरह समय के साथ लुप्त न हो जाय!